Democracy : लोकतंत्र का ध्वंस अचानक विस्फोट के साथ नहीं होता. जब लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती देने वाले लड़ने का तरीका भूल जाते हैं, तब यह खामोशी में टूटता है. बिहार के चुनावी नतीजे ने विपक्ष को सिर्फ एक राज्य से ही वंचित नहीं किया, इसने भारत को मजबूत लोकतंत्र से भी वंचित कर दिया है. विपक्षी गठबंधन ने बड़े वादे किये थे, पर वह असहमति और व्यक्तित्वों की आपसी लड़ाई में मात खा गया. बिहार में विपक्ष की हार एक राष्ट्रीय त्रासदी है : ताकतवर भाजपा को चुनौती दे सकने वाला विश्वसनीय विपक्ष देश में नहीं है. यह खालीपन खतरनाक ढंग से गहराता जा रहा है.
बिहार में विपक्ष की न कोई योजना थी, न चेहरा था, न कोई सामूहिक संदेश था. ऐसे में, अस्तित्व बचाने का संदेश बदलाव के संदेश पर भारी पड़ गया. भाजपा को अपनी ताकत के बारे में बताने की जरूरत ही नहीं पड़ी. प्रधानमंत्री मोदी के चमत्कृत कर देने वाले संदेश और जीत की प्रतिबद्धता ने सब कुछ तय कर दिया था. यह आश्चर्यजनक है, क्योंकि बिहार वह राज्य है, जिसने आपातकाल के दौरान केंद्रीकृत ताकत को उलट देने का काम किया था.
यह दुखद है कि विपक्ष ने अतीत से कोई सबक नहीं सीखा. अतीत में विपक्ष का प्रदर्शन प्रेस कॉन्फ्रेंसों और सोशल मीडिया पर नाराजगी पर नहीं, बल्कि दमन, जेल, त्याग और व्यक्तिगत आकांक्षाओं के बजाय बदलाव की इच्छा पर आधारित था. एक समय था, जब इंदिरा गांधी अजेय नजर आती थीं और उनकी ताकत ने कानूनी, राजनीतिक और नैतिक चुनौतियों को परास्त कर दिया था. तब विपक्ष किसी एक पार्टी से नहीं, बल्कि आंदोलन से उभरा. वृद्ध जयप्रकाश नारायण ने अपने नैतिक साहस के बल पर इतिहास में जगह बनायी.
उन्होंने समाजवादियों, कम्युनिस्टों, परंपरावादी नेताओं, किसान संगठनों, श्रम संगठनों, छात्रों और क्षेत्रीय क्षत्रपों को एकजुट किया और एक राजनीतिक साम्राज्य को सत्ता से बाहर कर दिया. जेपी आंदोलन से जुड़ने वाले अपने राजनीतिक कद और छवि के लिए नहीं, भविष्य के लिए चिंतित थे. उस दौर से आज के विपक्षी नेताओं की तुलना कीजिए. इंडिया गठबंधन में वार्ता मिशन के लिए नहीं, अपनी सीटों के लिए हुई थी. उनके नेता राज्यों को क्षेत्रों की तरह विभाजित कर रहे थे, जैसे राष्ट्रीय राजनीति आपस में बांट लेने का कोई नक्शा हो. हार में भी वे अपने-अपने क्षेत्रों के प्रति चिंतित दिखे. जब राजीव गांधी 1980 के दशक में इंदिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न सहानुभूति लहर में अपार बहुमत से जीत सत्ता में आये थे, तब ऐसा लगता था कि कोई ताकत उन्हें चुनौती नहीं दे सकती. फिर भी वीपी सिंह ने विद्रोह किया और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता से नायक बन कर उभरे.
विद्रोह की उनकी रणनीति बंद कमरे में नहीं बनी थी. उन्होंने देवीलाल और मुलायम सिंह यादव को अपने साथ लिया था. उनके साथ किसान थे, जो राजमार्गों को ठप कर दे सकते थे और ऐसे समाजवादी संगठन थे, जो शहरों को अपने समर्थकों से भर दे सकते थे. तब तमिलनाडु में एम करुणानिधि, आंध्र प्रदेश में एनटी रामा राव और पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु ने राष्ट्रीय स्तर पर अपना महत्व जताने की कोशिश नहीं की थी. वे सभी अपने राज्यों को सुरक्षित बनाये रखने के साथ-साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन में सहभागी होने के इच्छुक थे.
आज राष्ट्रीय परिदृश्य में ऐसा कोई नेता नहीं दिखता. अब भारतीय राजनीति नेतृत्व के अकाल से गुजर रही है. आज नेतृत्व तो है, लेकिन उनमें गंभीरता नहीं है. नारे तो हैं, लेकिन उनमें जोश और जुनून नहीं है. वाम राजनीति के पतन से देश में वैचारिकता का बड़ा शून्य आया है. हरियाणा और पंजाब की राजनीति को परिभाषित करने वाले चौटाला और बादल परिवार आज गायब हैं या इतने कमजोर हो गये हैं कि पहचान में नहीं आते. ममता बनर्जी दिल्ली से तभी लड़ती हैं, जब कोलकाता को खतरा पैदा होता है. के चंद्रशेखर राव तेलंगाना के गौरव की बात करते तो हैं, पर उस सोच को व्यापक राष्ट्रीय लोकतांत्रिक परियोजना में बदलने में रुचि नहीं दिखाते.
उत्तर प्रदेश की बात करने वाले अखिलेश यादव व्यापक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने में हिचकते हैं. आम आदमी पार्टी साझा गठबंधन के साथ जाने को अनिच्छुक है. इस शून्य में अपना वर्चस्व बनाने में भाजपा को अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता. इसका सांगठनिक तंत्र बिना किसी थकावट के आगे बढ़ता है. स्थिरता, राष्ट्रवाद, विकास और सुरक्षा के नारों के साथ इसके केंद्रीय चेहरे क्षेत्रीय नेताओं की तुलना में कहीं आगे दिखते हैं. ऐसे वर्चस्व के नतीजे गंभीर होते हैं. जब एक पार्टी सर्वशक्तिमान हो जाती है, तब संस्थाएं विकृत होती हैं. नौकरशाही झुक जाती है. जांच संस्थाएं चुनींदा लोगों को निशाना बनाती हैं. मीडिया पहुंच बनाने के बदले अपनी शक्ति का विस्तार करता है. आर्थिक कुलीनतंत्र राजनीतिक एकाधिकार में फलता-फूलता है. सामाजिक ध्रुवीकरण सुविधाजनक औजार बन जाता है. जनता को जब विकल्प नहीं दिखता, तब वह जवाबदेही की मांग करना बंद कर देती है.
अगर विपक्षी दल अपना पुनरुत्थान चाहते हैं, तो वे वंशवादी दावे, व्यक्तिगत करिश्मे, रक्षात्मक गठबंधन, सत्ता से शिकायत या पार्ट टाइम राजनीति पर निर्भर नहीं रह सकते. उन्हें राजनीतिक प्रबंधन के बजाय राजनीतिक आंदोलन पर जोर देना होगा. विपक्ष को एक नेता या नेताओं का समूह चाहिए, जिनकी वैधता त्याग पर आधारित हो. मजबूत और विश्वसनीय विपक्ष के लिए व्यक्तिगत और विचारधारा के स्तर पर बेहतर विकल्प की जरूरत है. एक ऐसा नेता हो, जो बेरोजगार युवाओं, छोटे किसानों तथा महिला श्रमिकों के प्रति संवेदना के साथ बोल सकता हो, जो नष्ट हो रहे संवैधानिक संस्थानों के प्रति चिंतित हो, और जो अल्पसंख्यकों को मतदाताओं के रूप में नहीं, अधिकारसंपन्न नागरिकों के रूप में देखता हो. ऐसा नेतृत्व ड्रॉइंग रूम से या वंशानुगत तौर पर नहीं, नीचे से उभरना चाहिए.
ऐसा नेतृत्व, जो सरकारी अतिवाद के खिलाफ टेलीविजन स्टूडियो पर नहीं, सड़कों पर चुनौती दे सकता हो. भारतीय विपक्ष का भविष्य इस पर निर्भर करता है कि वह अल्पावधि में क्षेत्रीय नुकसान सह कर भी साझा वैचारिक मूल्यों पर कितना काम कर सकता है. अगर वह विफल होता है, तो लोकतांत्रिक प्रणाली इसी तरह नष्ट होती रहेगी, जिससे भाजपा और मोदी अजेय बने रहेंगे. भारतीय लोकतंत्र एकतरफा विमर्श पर हमेशा नहीं चल सकता. विकसित और सुरक्षित भारत के लिए वैकल्पिक विमर्श का उभरना भी जरूरी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

