Trump administration : ट्रंप प्रशासन ने पिछले कुछ हफ्तों से विदेशी छात्रों की धरपकड़ और वीजा रद्द करने का अभियान शुरू कर रखा है, जिससे अमेरिकी विश्वविद्यालय परिसरों में भय का माहौल है. इसका घोषित उद्देश्य उन छात्रों का शैक्षणिक वीजा रद्द करना और देश से निकालना है, जिन पर फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनों में भाग लेने और यहूदी विरोधी विचारधारा रखने का संदेह है. एक हजार से भी अधिक विदेशी छात्रों की धरपकड़ हो चुकी है या वीजा रद्द किये जा चुके हैं. इसकी चपेट में भारत के छात्र भी आ रहे हैं, क्योंकि अमेरिका में पढ़ने वाले 11 लाख विदेशी छात्रों में लगभग हर तीसरा छात्र भारतीय होता है. धरपकड़ के ब्योरों से पता चलता है कि फिलिस्तीन समर्थक गतिविधियों में भाग लेने वालों को ही नहीं, छोटे-मोटे अपराध में शामिल छात्रों को भी निशाना बनाया जा रहा है. विदेश मंत्री मार्को रूबियो का कहना है कि वीजा अमेरिका में आकर पढ़ाई करने के लिए दिये जाते हैं, परिसरों में उत्पात मचाने के लिए नहीं.
ट्रंप की इस वैचारिक जंग का घोषित उद्देश्य शिक्षकों, छात्रों और परिसरों में फैली यहूदी विरोधी भावना का उन्मूलन करना है. हमास के बर्बर हमले के जवाब में इस्राइल के विनाशकारी हमले के कारण वह और प्रबल हुई है, पर वास्तविक उद्देश्य उससे अधिक व्यापक है. ट्रंप का मानना है कि कोलंबिया, पेंसिलवेनिया, प्रिंसटन, हार्वर्ड, स्टेनफोर्ड और येल जैसे आइवी लीग विश्वविद्यालय अतिवादी वामपंथी एवं लिबरल, यानी वोक विचारधारा के अड्डे बन चुके हैं और वहां अमेरिका की पारंपरिक दक्षिणपंथी विचारधारा के लिए जगह नहीं बची है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी ट्रंप इन्हें रिपब्लिकन कंजरवेटिव विचारधारा के दुश्मन कहते रहे. इसलिए उन्होंने सत्ता संभालते ही यहूदी विरोध पर अंकुश लगाने के नाम पर एक कार्यबल का गठन किया, जिसने पहला निशाना न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया यूनिवर्सिटी को बनाया, जहां से पिछले अप्रैल में फिलिस्तीन समर्थक तंबू आंदोलन की शुरुआत हुई थी.
यहूदी विरोधी कार्यबल ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी को शैक्षणिक, प्रशासनिक और चयनात्मक सुधारों की एक सूची भेज लिखा था कि जब तक ये सुधार नहीं किये जाते, तब तक केंद्र से मिलने वाला उसका 40 करोड़ डॉलर का अनुदान रोक लिया जायेगा. केंद्रीय अनुदान के बिना यूनिवर्सिटी के शोध और अन्वेषण के कार्यक्रमों के साथ कई महत्वपूर्ण विभागों का काम ठप हो सकता था, इसलिए उसने कुछ को छोड़ ट्रंप प्रशासन की कई प्रमुख मांगें मानते हुए पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया और अफ्रीकी अध्ययन विभागों के अपने वरिष्ठ प्रोफेसरों और अधिकारियों को बदला तथा फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनों व यहूदी विरोधी संगठनों से जुड़े दर्जनों छात्रों को बर्खास्त किया, पर तब भी प्रशासन ने केंद्रीय अनुदान राशि पर लगी रोक नहीं हटायी.
ट्रंप प्रशासन का अगला निशाना हार्वर्ड था, जिसके अधिकारियों और वकीलों का दल करीब दो हफ्तों से यहूदी विरोधी कार्यबल के साथ बातचीत कर ट्रंप प्रशासन की शिकायतें दूर करने के लिए विश्वविद्यालय की स्वायत्तता बनाये रखते हुए कुछ सुधार करने के प्रयास कर रहा था. हार्वर्ड ने भी अपने पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र के निदेशक को बर्खास्त किया था, क्योंकि उस पर इस्राइली दृष्टिकोण को समाहित न करने के आरोप थे, पर यहूदी विरोधी कार्यबल ने अचानक 11 अप्रैल की रात को ई-मेल से एक पत्र भेजा, जिसमें ऐसी 10 मांगें रखी गयी थीं, जिन्हें मानना हार्वर्ड जैसी प्रतिष्ठित और पुरानी संस्था के लिए संभव नहीं था. लिहाजा हार्वर्ड को करारा जवाब देते हुए कहना पड़ा कि उसके लिए इस तरह की शैक्षणिक स्वायत्तता छीनने वाली मांगें स्वीकार करना संभव नहीं होगा.
हार्वर्ड का जवाब मिलते ही ट्रंप प्रशासन के अधिकारियों ने कहा कि यह पत्र भूल से चला गया है. हार्वर्ड सुधारों को लेकर बातचीत कर रहा है, इसलिए इस समय पत्र नहीं जाना चाहिए था. इससे लगता है कि ट्रंप प्रशासन इस समय हार्वर्ड के साथ लड़ाई को आगे नहीं बढ़ाना चाहता, पर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ट्रंप प्रशासन पीछे हट रहा है. उसने जवाब में हार्वर्ड को मिलने वाले 220 करोड़ डॉलर के केंद्रीय अनुदान और छह करोड़ डॉलर के अनुबंध रोकने का एलान कर दिया है. प्रशासन ने हार्वर्ड को शैक्षणिक संस्था होने के नाते मिलने वाली सब्सिडियां और टैक्स छूट समाप्त करने तथा दाखिला लेने वाले विदेशी छात्रों को वीजा देना बंद कर देने की धमकियां भी दे डाली हैं. हार्वर्ड अमेरिका का सबसे पुराना होने के साथ-साथ सबसे धनी विश्वविद्यालय भी है, जिसके पास 5,320 करोड़ डॉलर का दानकोष है. इसलिए वह चाहे, तो केंद्रीय अनुदान के बिना भी कुछ वर्ष अपना कामकाज चला सकता है.
स्वायत्तता की इस लड़ाई में अब कोलंबिया, स्टेनफोर्ड, प्रिंसटन और कॉर्नेल जैसी आइवी लीग यूनिवर्सिटियों का साझा मोर्चा बनाने की बातें भी हो रही हैं, पर इस लड़ाई में जनता पूरी तरह इन संस्थानों के साथ खड़ी नहीं दिखती. पिछले तीन-चार दशकों में उद्योग-धंधे बंद होने से कॉलेज शिक्षितों और कॉलेज शिक्षा वंचितों के बीच आर्थिक विषमता की खाई और बढ़ी है. ट्रंप ने आर्थिक रूप से विपन्न और बेरोजगार हुए इन्हीं लोगों के वोट हासिल कर चुनाव जीता था. अब इसी बहुसंख्यक आबादी में उन उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रति संदेह की भावना बढ़ रही है, जिनके खिलाफ ट्रंप ने वैचारिक जंग छेड़ी है.
ट्रंप ने खुला हमला बोलते हुए पिछले दिनों अपने सोशल मीडिया मंच से जारी टिप्पणी में लिखा, ‘हार्वर्ड जिन्हें पढ़ाने के लिए बुलाता है, वे लगभग सभी वोक, अतिवामपंथी और पक्षी जितने दिमागों वाले मूर्ख हैं, जो छात्रों और तथाकथित कल के नेताओं को केवल नाकामी ही सिखा सकते हैं… हार्वर्ड एक मजाक बन गया है, जहां नफरत और बेवकूफी सिखायी जाती है. वह केंद्रीय अनुदान के लायक नहीं बचा है,’ यदि भारत का प्रधानमंत्री अतिवामपंथी विचारधारा से उकता कर अपने सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय के बारे में ऐसा कुछ बोल दे, तो कल्पना करें कि क्या होगा, परंतु ट्रंप अपने जनाधार और जनमत को उकसा कर शिक्षा संस्थानों को ही नहीं, बल्कि विधि संस्थानों, अदालतों, मीडिया और बाबूशाही को भी वामपंथी वोक विचारधारा से मुक्त कराना और दक्षिणपंथी रिपब्लिकन विचारधारा का वर्चस्व कायम करना चाहते हैं, परंतु उसके लिए अमेरिका को विश्व की शिक्षा, अन्वेषण और नवाचार की महाशक्ति बनाने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों की छवि की बलि चढ़ाना ऐसा जोखिम है, जो उस देश को दशकों पीछे धकेल सकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)