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विचाराधीन कैदियों की रिहाई की बने राह

लगभग 4.88 लाख लोग जेलों में बंद हैं, जिनमें 3.71 लाख विचाराधीन कैदी हैं. इनमें से अधिकतर गरीब और कमजोर वर्गों से जुड़े हैं.

अदालतों में चल रहे मुकदमों और जेलों में बंद गरीब कैदियों की मदद के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर विधिक सेवा प्राधिकरण का गठन किया गया है. कानूनी सहायता से जुड़े हुए जजों की पहली बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विचाराधीन कैदियों के मुद्दे को उठाते हुए कहा कि कारोबारी सुगमता (ईज ऑफ डूईंग बिजनेस) की तर्ज पर ईज ऑफ जस्टिस यानी न्याय की सुगमता भी जरूरी है.

कानून मंत्री किरेन रिजिजू, सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना और अन्य जजों ने भी गरीबों को जल्द न्याय देने और कैदियों की रिहाई की बात कही. संविधान के अनुसार गरीब-अमीर सभी बराबर हैं, तो फिर अमीरों की तरह गरीबों को भी जल्द न्याय मिलना उनका संवैधानिक अधिकार है. संविधान के अनुच्छेद 21 में मिले जीवन के अधिकार के तहत लोगों को जल्द न्याय मिलना जरूरी है. इसके बावजूद देश में लगभग 4.88 लाख लोग जेलों में बंद हैं, जिनमें 3.71 लाख विचाराधीन कैदी हैं.

इनमें से अधिकतर गरीब, अशिक्षित, अनुसूचित जाति, जनजाति और कमजोर वर्गों से हैं. ब्रिटिश हुकूमत के दौर में भारत के लोगों को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार नहीं था, लेकिन आजादी के बाद पुलिस और न्यायिक व्यवस्था में औपनिवेशिक मानसिकता खत्म नहीं होने से विचाराधीन कैदियों का मामला नासूर-सा बन गया. इन वक्तव्यों तथा पहली बार आदिवासी समुदाय से किसी व्यक्ति, वह भी महिला, के राष्ट्रपति बनने से उम्मीदें बढ़ी हैं.

इस संदर्भ में तीन जरूरी पहलुओं को समझना जरूरी है- (1) पुलिस द्वारा बेवजह और गैर-जरूरी गिरफ्तारी. मजिस्ट्रेट के आदेश के बगैर किसी भी व्यक्ति को आठ घंटे से ज्यादा जेल में नहीं रखा जा सकता है. लोगों को पुलिस कब, क्यों और कैसे गिरफ्तार करे, इसके लिए भी कानूनी प्रावधानों के साथ सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले हैं. जिन मामलों में सात साल से ज्यादा की सजा हो, आरोपी के भागने की आशंका हो, सबूतों के साथ छेड़छाड़ हो सकती हो और हिरासत में लेकर पूछताछ जरूरी हो, उन्हीं मामलों में गिरफ्तारी होनी चाहिए,

लेकिन इन नियमों को अनदेखा कर पुलिस द्वारा मनमाने तौर पर गिरफ्तारी विचाराधीन कैदियों की समस्या का सबसे बड़ा मर्ज है. गिरफ्तारी के बाद जमानत का नियम है और जेल भेजना अपवाद है. (2) थकी हुई न्यायिक व्यवस्था. पुलिस की एफआइआर और स्टोरी पर आंख मूंद कर भरोसा कर ट्रायल कोर्ट के मजिस्ट्रेट आरोपी को जेल भेजने का आदेश पारित कर देते हैं.

इसलिए जेलों में बंद कैदियों के मर्ज के लिए पुलिस से ज्यादा मजिस्ट्रेट और जजों की जवाबदेही है. (3) अंग्रेजों के जमाने के दो शताब्दी पुरानी पुलिस जांच और फौजदारी कानून. तकनीकी विकास के साथ कंप्यूटर, इंटरनेट और सोशल मीडिया आम लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन गये हैं. दूसरी तरफ सीआरपीसी कानून के तहत पुलिस जांच और साक्ष्य कानून के तहत सबूतों को जुटाने का सिस्टम ब्रिटिशकालीन ही है.

इस वजह से पुलिस जांच के बाद लंबे-चौड़े आरोप-पत्र दायर करने का चलन खत्म नहीं हो रहा. इसलिए गवाहों की लंबी सूची और मोटी फाइलों के बोझ से दबी अदालतों से फैसला और न्याय की बजाय लंबी तारीख मिलती है. दूसरी तरफ रईस और रसूखदार लोगों को साम, दाम, दंड और भेद के इस्तेमाल से जल्द न्याय मिल जाता है. ऐसे में न्याय के महंगा होने के साथ लोगों में असमानता भी बढ़ गयी, जिसके लिए प्रधान न्यायाधीश ने चिंता और बेचैनी जाहिर की है.

पुराने कैदी रिहा हों और नये कैदियों की आमद कम हो. इन पहलुओं से विचाराधीन कैदियों के मर्ज को दुरुस्त करने के लिए रोडमैप बनाने के साथ कई मोर्चों पर काम करने की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट के हाल के तीन अहम फैसलों को पूरे देश में प्रभावी तरीके से लागू किया जाए, तो इस मर्ज को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है. पहला, सीआरपीसी कानून की धारा 41 के तहत संदिग्ध या आरोपी को पुलिस जांच में बुलाने से पहले नोटिस देना जरूरी है.

अगर आरोपी हाजिर होता है, तो फिर शिकायत या संदेह के आधार पर उसकी गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए. अगर नोटिस के तहत कोई व्यक्ति हाजिर नहीं होता, तो भी अदालत से वारंट हासिल करने के बाद ही गिरफ्तारी होनी चाहिए. दूसरा, सुप्रीम कोर्ट के नये फैसले में दिये गये जरूरी दिशानिर्देश के अनुसार जमानत की अर्जी को दो सप्ताह में और अग्रिम जमानत की अर्जी को छह सप्ताह में निपटाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार आपराधिक मामलों में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है और लगातार हिरासत में रहने के बाद किसी का बरी होना बेहद अन्याय की बात है. सभी उच्च न्यायालयों से कहा गया है कि जमानत की शर्त पूरी करने में असमर्थ विचाराधीन कैदियों का पता लगाकर उन्हें जल्द राहत दी जाए. तीसरा, छत्तीसगढ़ के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि सजा पूरी होने के बाद किसी भी व्यक्ति को जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद 19 (1)-डी और 21 का सरासर उल्लंघन है.

कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार को आदेश दिया कि सजा से ज्यादा समय तक जेल में रखने के लिए कैदी को 7.5 लाख रुपये का हर्जाना मिले तथा दोषी अधिकारियों को चिह्नित कर उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए.

छिंदवाड़ा के एक मामले में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को तीन लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया. इन मामलों में कानून और प्रशासन के साथ सिस्टम की भी खामी सामने आयी है, जिसे ठीक करने के लिए तकनीक के इस्तेमाल की जरूरत है. अदालतों के आदेश समय पर सरकार और जेल प्रशासन के पास पहुंचे और उन पर समयबद्ध तरीके से हुई कार्रवाई का विवरण अदालतों तक भेजा जाए, तो निर्दोष लोगों को बेवजह जेल में नहीं रहना पड़ेगा.

संविधान के अनुच्छेद 39-ए में लोगों को कानूनी सहायता देने का प्रावधान है. कानून मंत्री के अनुसार, पूरे देश में 676 जिला विधिक सेवा प्राधिकरण विचाराधीन कैदियों की रिहाई के लिए जुटे हुए हैं. इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के दो सुझावों पर अमल हो, तो समस्या का बेहतर समाधान होगा.

टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के माध्यम से विचाराधीन कैदियों, उनके मुकदमे और जेल में रहने की अवधि आदि के डेटा का विश्लेषण किया जाए. जैसे मेडिकल के छात्रों को गांवों में सेवा देना जरूरी है, वैसे ही कैदियों की रिहाई के लिए कानून की पढ़ाई कर रहे छात्रों की इंटर्नशिप जरूरी हो जाए, तो फिर विचाराधीन कैदियों को अमृत महोत्सव पर्व पर आजादी का हक हासिल होगा.

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