ब्रिटेन के राउंडटेबल सम्मेलन में चर्चा के दौरान सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने शीर्ष ब्रिटिश न्यायाधीशों के साथ न्यायपालिका की विश्वसनीयता, पारदर्शिता और जवाबदेही पर जोर देते हुए जो कुछ कहा है, वह महत्वपूर्ण भी है और अपने यहां के संदर्भ में प्रासंगिक भी. रिटायरमेंट के तुरंत बाद न्यायाधीशों द्वारा सरकारी पद स्वीकार करने और चुनाव लड़ने पर चिंता जताते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि विधायिका और कार्यपालिका की वैधता मतपत्र से प्राप्त होती है, जबकि न्यायपालिका अपनी स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता के संवैधानिक मूल्यों को बनाये रखकर वैधता अर्जित करती है. ऐसे में, सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद सरकारी पद स्वीकार करने या चुनाव लड़ने से जनता का न्यायपालिका में भरोसा डगमगाता है, क्योंकि जाने-अनजाने यह धारणा बनती है कि ऐसे न्यायाधीशों के न्यायिक फैसले उनकी भविष्य की राजनीतिक या सरकारी उम्मीदों से प्रभावित थे. दरअसल हाल के वर्षों में अपने यहां कई ऐसे उदाहरण देखे गये, जब उच्चतर न्यायपालिका से जुड़े न्यायाधीशों ने रिटायरमेंट के तुरंत बाद राज्यसभा में जाने, सरकारी पद लेने या फिर चुनाव लड़ने का फैसला किया.
इसी पृष्ठभूमि में सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने और वर्तमान सीजेआइ न्यायमूर्ति बीआर गवई तथा वरिष्ठ जज अभय एस ओका ने घोषणा की कि वे सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद कोई पद नहीं लेंगे. सीजेआइ ने कहा भी कि यह प्रतिबद्धता न्यायपालिका की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता बनाये रखने की कोशिश है. न्यायिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार और कदाचार का जिक्र करते हुए सीजेआइ ने कहा कि ऐसे मामले न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास और भरोसे को कमजोर करते हैं. हालांकि उन्होंने जोर देते हुए यह कहा कि भारत में जब भी ऐसे मामले आये हैं, तो सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल और सख्त कदम उठाये हैं. दरअसल उच्च न्यायालय के जज यशवंत वर्मा के घर पर नोटों की गड्डी मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच करवायी, और जांच समिति ने उन्हें दोषी पाया. ऐसी स्थिति में भी अपनी ओर से इस्तीफा न देने के कारण पूर्व सीजेआइ ने उन पर महाभियोग चलाये जाने की सिफारिश की, जिस पर संसद के आगामी मानसून सत्र में फैसला लिया जा सकता है. मौजूदा स्थिति में न्यायपालिका के प्रति जनता के भरोसे को बरकरार रखने की दिशा में उनके विचार बेहद महत्वपूर्ण हैं.