Bihar elections : बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे और अंतिम दौर में भी भारी मतदान दर्ज किया गया है. दूसरे चरण में लगभग 69 प्रतिशत वोट पड़े, जबकि पहले चरण में करीब 65 फीसदी मतदान हुआ था. यानी दोनों चरणों को मिलाकर औसत मतदान 67 प्रतिशत के आसपास रहा, जो बिहार के 73 साल के चुनावी इतिहास में सबसे अधिक है. यह 2020 की तुलना में तो करीब 10 प्रतिशत ज्यादा है. बिहार में बंपर वोटिंग के कई कारण बताये जा रहे हैं. जैसे, पिछला चुनाव चूंकि कोविड के साये में हुआ था, वैसे में, उसमें मतदान का आंकड़ा कम होना था. इस लिहाज से इस बार वोटिंग का आंकड़ा स्वाभाविक रूप से ज्यादा रहा.
एसआइआर भी ज्यादा मतदान का कारण हो, तो आश्चर्य नहीं. चुनाव आयोग द्वारा बिहार में एसआइआर की पहल तथा राहुल गांधी के कथित वोट चोरी के आरोप ने बिहार के मतदाताओं को निश्चित रूप से अधिक से अधिक संख्या में मतदान बूथों तक आने के लिए प्रेरित किया होगा. फिर एनडीए तथा महागठबंधन के बीच प्रशांत किशोर ने जिस तरह अपने अभियान को गति दी, तथा लीक से हटकर चुनाव प्रचार किया, उसने भी ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को वोटिंग के लिए प्रेरित किया होगा.
इसके ब्योरे हैं कि दिवाली और छठ पर्व पर भारी संख्या में बिहार आये अनेक लोग चुनाव तक रुके रहे. इन्हें त्योहार में घर पहुंचाने के लिए विशेष गाड़ियों की जो व्यवस्था की गयी थी, वह भी भारी मतदान की एक वजह रही. फिर अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों ने अपने कोर वोटरों को मतदान केंद्रों तक जाने के लिए प्रोत्साहित किया. इसके अलावा, नीतीश सरकार की तरफ से महिलाओं के खाते में पहुंचे 10,000 रुपये ने भी महिलाओं को वोटिंग के लिए प्रोत्साहित किया होगा. बताया यह भी जा रहा है कि इस बार बड़ी संख्या में युवाओं ने भी मतदान किया है.
इस तरह बिहार के चुनाव में हुई बंपर वोटिंग के कई स्पष्ट कारण दिखाई देते हैं. पहले के दशकों में इतनी बड़ी वोटिंग को आम तौर पर सत्ता में बदलाव के संकेत के रूप में देखा जाता था. यह माना जाता था कि जनता में असंतोष होने पर वह बदलाव के लिए अधिक से अधिक से संख्या में बाहर निकली है. लेकिन, बाद के वर्षों में यह प्रवृत्ति बदलने लगी. अब ज्यादा वोटिंग कई बार प्रो-इंकंबेंसी (सत्ताधारी दल के प्रति रुझान) के रूप में भी देखी जाती है. यही वजह है कि यह मामला अब ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ जैसा हो गया है. अधिक मतदान का अर्थ बदलाव भी हो सकता है, तो यथास्थिति का संकेत भी.
यहां इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि दूसरे चरण का मतदान मुख्यतः सीमांचल और कोसी की उन सीटों जैसे किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और मधेपुरा में हुआ, जहां महागठबंधन और विशेषकर राजद का परंपरागत आधार रहा है. इन इलाकों में मुस्लिम और यादव वोटरों की भागीदारी निर्णायक मानी जाती है. पहले चरण में हुए भारी मतदान के बाद जिस तरह से एनडीए के नेताओं ने उत्साह प्रदर्शित किया, और उसकी तरफ से इसे भावी जीत की तरह देखा गया, उससे हो सकता है विपक्षी गठबंधन को खतरा महसूस हुआ हो, इसलिए बहुत संभव है कि दूसरे चरण में उसने अपने मतदाताओं को और ज्यादा सक्रिय रूप से मतदान के लिए प्रेरित किया हो. खासकर दूसरे चरण में मतदान के प्रतिशत में बढ़ोतरी की एक राजनीतिक वजह यह भी हो सकती है.
बिहार के चुनाव में मतदान से जुड़े अब तक जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे यह स्पष्ट हो रहा है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अधिक मतदान किया है. पिछले करीब डेढ़ दशक से बिहार में महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान करती आ रही हैं. इसके कई कारण भी बताये जाते हैं. शराबबंदी ने नीतीश को महिलाओं में लोकप्रिय बनाया है, ऐसे में, महिलाओं की ज्यादा वोटिंग को नीतीश कुमार के लिए सकारात्मक संकेत माना जा सकता है. हाल ही में लागू मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना का, जिसमें महिलाओं को एकमुश्त 10 हजार रुपये दिये गये हैं, आर्थिक और सामाजिक असर कैसा होगा, यह तो वक्त ही बतायेगा, लेकिन इसका राजनीतिक असर नीतीश के पक्ष में जा सकता है.
बिहार कोई अपवाद नहीं है. बीते कुछ वर्षों के दौरान कई राज्य सरकारों ने महिलाओं को नकदी देने की योजनाएं शुरू की हैं और तमाम सत्तारूढ़ दलों को इसका जबरदस्त राजनीतिक फायदा हुआ है. ऐसे में अधिक महिला मतदान के आंकड़े एनडीए खेमे में, खासकर जदयू में उत्साह जगा रहे हैं, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में जदयू का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा था. यह अलग बात है कि बीस साल के लंबे शासन के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थके हुए से लगते हैं. तबीयत भी उनकी अक्सर खराब रहती है. सार्वजनिक मंचों पर कई मौकों पर उनका आचरण सत्तारूढ़ दलों के सहयोगियों के लिए बेहद असहज रहा है. इसके बावजूद यदि एग्जिट पोल्स में जदयू को भाजपा के लगभग बराबर सीटें मिलती दिखाई दे रही हैं, तो यह निश्चित तौर पर किसी चमत्कार से कम नहीं है. राजनीतिक विडंबना का यह एक क्लासिक उदाहरण माना जायेगा.
अब एग्जिट पोल्स की बात कर लेते हैं. एग्जिट पोल्स को अक्सर ‘साइंस’ से ज्यादा ‘आर्ट’ कहा जाता है. और अपने यहां इसका मिला-जुला असर रहा है. ब्रिटेन में हाल ही में एग्जिट पोल्स बिल्कुल सही साबित हुए थे, लेकिन हमारे यहां स्थिति काफी अलग रही है. भारत में समस्या यह है कि एग्जिट पोल्स को लेकर कोई स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर, यानी मानकीकृत पद्धति नहीं रही है. सर्वे सैंपलिंग से लेकर ग्रामीण-शहरी या वर्गीय अनुपात जैसी चीजें अक्सर अस्पष्ट या मनमानी होती हैं. इसके अलावा, कुछ एग्जिट पोल्स के पीछे राजनीतिक झुकाव या दबाव भी साफ देखने को मिलता है.
खासकर हाल के वर्षों में इसके उदाहरण कई बार देखने में आये हैं. चुनाव आयोग की तरफ से कोई नियामक ढांचा न होने के कारण जवाबदेही की भी कमी है. कई ऐसे नये प्लेयर हैं, जिनकी कोई बड़ी कंपनी या कोई पुराना अनुभव हो, ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता. ये तमाम बातें लोकतांत्रिक पारदर्शिता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कही जायेंगी. लेकिन कुल मिलाकर, बिहार में विधानसभा चुनाव के दोनों चरणों में जिस तरह बढ़-चढ़कर मतदान हुआ है, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए निश्चय ही उत्साहवर्धक है. बिहार को वैसे भी राजनीतिक रूप से बेहद सजग राज्य माना जाता रहा है. नतीजा चाहे जो आये, बंपर वोटिंग को सकारात्मक रूप से ही लिया जाना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

