Indian culture in Prayagraj : महाकुंभ के समय प्रयागराज 45 दिनों तक विश्वास, पापमुक्ति और सांस्कृतिक एकता का केंद्रबिंदु बना रहा. इस दौरान देशभर और विदेश से आये 66 करोड़ से भी अधिक हिंदुओं ने पवित्र संगम में डुबकी लगायी. कुछ त्रासदियां और विवाद, मीडिया के पूर्वाग्रह तथा बाजार का पागलपन अंतत: उन प्राचीन लहरों में डूब गये, जहां ईश्वरीय कोप से दानवों का विनाश हुआ था. प्राचीन काल में पवित्र रेतीले तट पर अमृत की जो बूंदें गिरी थीं, उसने इस महाकुंभ को भारत की स्वतंत्रता के अमृतकाल में तब्दील कर दिया.
एक ही जगह दुनिया के सबसे अधिक लोगों का यह जमावड़ा उस हिंदू धर्म की सांस्कृतिक शक्ति, आस्था और मैत्री भाव प्रदर्शित करने का अवसर था, जिसमें 4,000 से भी अधिक जातियां, हजारों उपजातियां और सौ से अधिक संप्रदाय हैं. राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, अनेक केंद्रीय मंत्री तथा मुख्यमंत्रीगण सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करने प्रयागराज गये, तो विभिन्न राजनीतिक दलों के सामान्य कार्यकर्ता और स्वयंसेवक भी वहां पहुंचे. प्रत्येक 144 वर्षों पर होने वाले महाकुंभ की जड़ प्राचीन हिंदू पुराणों में है, और जो खगोलीय गणना के आधार पर तय होता है. महाकुंभ आस्था, राजनीति और आर्थिक शक्ति के विराट प्रदर्शन का अवसर होता है, जिसमें हालांकि भारत के सामाजिक-राजनीतिक लैंडस्केप की विसंगतियां भी दिखती हैं. इस बार महाकुंभ के दौरान प्रयागराज आये 66 करोड़ लोगों ने, जो अमेरिका की आबादी का दोगुना है, भारत के वैश्विक कद को ऊंचा किया और भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण को प्रतिबिंबित किया.
यह आयोजन अगर पक्षपातपूर्ण राजनीतिक संदेश था, तो पहचान के अभ्युदय का एक विज्ञापन और उन खास लोगों के एकत्रीकरण का मंच भी था, जो इसके जरिये खुद को सनातन धर्म से जुड़ा हुआ बताना चाह रहे थे. सिनेमा, कला और व्यापार से जुड़े धनी और प्रसिद्ध लोग सोशल मीडिया पर महाकुंभ से संबंधित अपनी तस्वीरें पोस्ट कर धर्म के इस ओलिंपिक में जैसे आपसी प्रतिस्पर्धा कर रहे थे. महाकुंभ में उमड़ी भारी भीड़ ने संघ परिवार के लिए जनमत संग्रह का काम किया. भाजपा और उसके सहयोगी महाकुंभ के बेहद शानदार आयोजन के लिए लगातार अपनी पीठ थपथपा रहे थे. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इसका श्रेय दिया भी गया. राज्य और केंद्र सरकार ने इस दौरान ढांचागत क्षेत्र में 7,000 करोड़ रुपये का भारी निवेश किया.
प्रयागराज में 4,000 हेक्टेयर में 12 किलोमीटर लंबा घाट बनाया गया, 360 स्पेशल ट्रेनें चलायी गयीं और महाकुंभ स्थल की निगरानी में एआइ का इस्तेमाल हुआ. उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि महाकुंभ के आयोजन से उसे दो लाख करोड़ से अधिक का अतिरिक्त राजस्व मिला. इससे स्थानीय कारोबार में भारी वृद्धि हुई, पुण्य के लिए अंतरराष्ट्रीय तीर्थयात्रियों के आने से पर्यटन क्षेत्र फल-फूल उठा और हजारों उपग्रहों द्वारा आसमान से इस विराट आयोजन की भव्यता को तस्वीरों के जरिये पेश करना पश्चिम के उन उदारवादियों के लिए चकित करने वाला था, जिन्होंने सनातन धर्म की एकता की श्रद्धांजलि बहुत पहले लिख डाली थी.
इस दौरान कई राजनीतिक विवाद भी हुए. अनेक विपक्षी नेता या तो महाकुंभ में नहीं गये या उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा किये गये प्रबंध की तीखी आलोचना की. राहुल गांधी द्वारा महाकुंभ में न पहुंचना अतिशय धार्मिक माहौल के बीच नर्म हिंदुत्व की अपनी पहचान को मुद्दा बनाये जाने से परहेज करना था. आगे के चुनावों से पहले महाकुंभ राजनीतिक व्यूह रचना का जैसे लिटमस टेस्ट था. सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक पर्यटन के रूप में इसने खुद को फायदेमंद कारोबार भी साबित किया. कुंभ मेलों का आयोजन हमारे यहां सहस्राब्दियों से होता आया है. विभिन्न शासकों के दौर से भी, जिसमें ब्रिटिशों का 200 वर्षों का शासनकाल भी था, कुंभ का स्वरूप प्रभावित हुआ. कुंभ के विराट आकार, इसकी आर्थिक संभावना और आयोजन के दौरान सशस्त्र धार्मिक समूहों के बीच होने वाली हिंसा से अंग्रेज बौखला गये थे.
उनके समय कुंभ में हिंसा का शुरुआती ब्योरा 1796 का मिलता है, जब कैप्टन थॉमस हार्डविके ने हरिद्वार में भीषण हिंसा की रिपोर्ट दी थी, जिसमें 500 लोग मारे गये थे. उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटिशों ने कुंभ को चुनौती के साथ अवसर के रूप में भी देखा. वर्ष 1857 की क्रांति के बाद देश में ब्रिटिशों की पकड़ मजबूत होने पर कुंभ के प्रबंधन को औपचारिक रूप दिया गया. हालांकि उस विद्रोह से एक बदलाव आया, तीर्थयात्रियों के दान पर निर्भर इलाहाबाद के पुजारियों ने विद्रोह का समर्थन किया था, नतीजतन ब्रिटिशों ने उन्हें निशाना बनाया और इलाहाबाद विवाद का प्रमुख केंद्र बन गया.
इस कारण 1858 में कुंभ मेले का आयोजन ही नहीं हो पाया. इसके आयोजन पर प्रतिबंध नहीं था, पर अशांति और ब्रिटिशों द्वारा उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई के कारण इलाहाबाद में तीर्थयात्रियों का आना असंभव हो गया था. भारी संख्या में भारतीयों के जमावड़े को ब्रिटिश सरकार तब संदेह की नजर से देखती थी. ब्रिटिशों की सीधी देखरेख में पहली बार 1870 में जब कुंभ का आयोजन हुआ, तब अंग्रेजों ने अपने आर्थिक लाभ के लिए तीर्थयात्रियों पर टैक्स लगा दिया था. शुरुआत में इससे सरकार को आय हुई, पर बाद में इसका विरोध शुरू हुआ. बीसवीं सदी में कुंभ मेला उपनिवेश-विरोधी भावनाओं का केंद्र बन गया. वर्ष 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापानियों द्वारा बमबारी की अफवाहों के बीच कुंभ के दौरान इलाहाबाद के लिए रेल टिकट की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.
आजादी के बाद राज्य सरकारों ने कुंभ मेलों की जिम्मेदारी ली. वर्ष 1954 में इलाहाबाद में हुआ कुंभ आजाद भारत का पहला बड़ा धार्मिक आयोजन था, पर उसमें भगदड़ में 800 लोगों की मौत से सनसनी फैल गयी, जबकि उसमें भीड़ प्रबंधन का आधुनिक तरीका अपनाया गया था. बाद में स्थिति क्रमश: बेहतर होती गयी. भारतीयों के लिए कुंभ मेला आध्यात्मिकता का शिखर है. शोभायात्राओं, विमर्शों और आध्यात्मिक विभूतियों के साथ संवाद के जरिये यह भारत की विरासत को सांस्कृतिक कैनवास के जरिये प्रदर्शित करने का अवसर भी है. अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और वाराणसी के पुनर्विकास के बाद इस साल महाकुंभ के सफल आयोजन ने भारतीय संस्कृति को प्राचीन से आधुनिक के साथ भव्य तरीके से जोड़ दिया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)