Pakistan–Saudi Arabia relations : विगत 17 सितंबर को सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने रियाद में ऐतिहासिक रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किये. इस ‘स्ट्रेटेजिक म्यूचुअल डिफेंस एग्रीमेंट’ में एक प्रमुख धारा यह है कि किसी एक देश पर हमला दोनों देशों पर हमला माना जायेगा. यह समझौता नाटो-शैली का है, जहां हमले की स्थिति में दोनों देश एक-दूसरे की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं.
इस समझौते की पृष्ठभूमि में हाल की क्षेत्रीय घटनाएं, जैसे इस्राइल का कतर पर हमला और अमेरिका की सुरक्षा गारंटी में आयी कमजोरी जिम्मेदार हैं. भारत के लिए यह समझौता दोधारी तलवार है. एक ओर, भारत और सऊदी अरब के बीच मजबूत आर्थिक संबंध हैं. भारत सऊदी से 100 अरब डॉलर से अधिक का व्यापार करता है और मुख्य रूप से तेल आयात करता है.
सऊदी अरब ने स्पष्ट किया है कि भारत के साथ उसके संबंध मजबूत रहेंगे और यह समझौता भारत के खिलाफ नहीं है. विगत अप्रैल में प्रधानमंत्री मोदी की सऊदी अरब यात्रा के बाद दोनों देशों ने रक्षा सहयोग बढ़ाने की योजना बनायी थी. खाड़ी देशों में 90 लाख से अधिक भारतीय काम करते हैं, जो रेमिटेंस का बड़ा स्रोत है.
अलबत्ता यह समझौता भारत की पश्चिम एशिया की नीति को चुनौती देता है. पाकिस्तान अब मुस्लिम दुनिया में अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है, जो कश्मीर मुद्दे पर भारत के खिलाफ इस्तेमाल हो सकता है. हालांकि, भारत की प्रतिक्रिया संयमित रही है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रंधीर जयसवाल ने कहा है कि भारत इस समझौते का अध्ययन करेगा और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए प्रतिबद्ध रहेगा.
भारत के लिए हालांकि अवसर भी है. यह समझौता भारत को अपनी रक्षा क्षमताओं को मजबूत करने का अवसर देता है. क्वाड (भारत, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया) जैसे गठबंधनों को मजबूत करना, अंडमान-निकोबार द्वीपों पर रक्षा बुनियादी ढांचा विकसित करना और नौसेना की गश्त बढ़ाना आवश्यक है. ओमान, यूएई और बहरीन जैसे मध्यमार्गी खाड़ी देशों से भी भारत संबंध मजबूत कर सकता है. ऊर्जा विविधीकरण के लिए नवीकरणीय स्रोतों पर भी भारत को जोर देना चाहिए.
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच रक्षा सहयोग दशकों पुराना है. बीती सदी के छठे दशक से ही सऊदी अरब को पाकिस्तान सैन्य प्रशिक्षण और रक्षा सहायता प्रदान करता आया है. जैसे, 1970-80 के दशक में पाक सैनिक सऊदी अरब में तैनात रहे. यमन में हूती विद्रोहियों के खिलाफ लड़ाई में भी पाकिस्तान का योगदान रहा है. हालांकि, यह नया समझौता पहले के अनौपचारिक संबंधों को औपचारिक रूप देता है, जो क्षेत्रीय तनावों के कारण आवश्यक हो गया था.
हाल ही में इस्राइल ने कतर की राजधानी दोहा पर हमला किया, जो सऊदी अरब की सीमा से सटा है. इस हमले में अमेरिका की चुप्पी ने खाड़ी देशों में अमेरिकी सुरक्षा गारंटी पर संदेह पैदा कर दिया है. अमेरिका के पास पश्चिम एशिया में करीब 40,000-50,000 सैनिक तैनात हैं, लेकिन इस्राइली हमले पर वाशिंगटन की निष्क्रियता ने सऊदी अरब को वैकल्पिक सुरक्षा भागीदारों की तलाश करने पर मजबूर किया. इसी संदर्भ में पाकिस्तान, जो मुस्लिम दुनिया का एकमात्र परमाणु हथियार संपन्न देश है, सऊदी अरब के लिए एक आकर्षक सहयोगी बन गया.
समझौते में रक्षा उद्योग सहयोग, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और सैन्य सह-उत्पादन शामिल हैं, जो दोनों देशों की सैन्य क्षमताओं को मजबूत करेंगे. यह समझौता क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को बदलने वाला है. पश्चिम एशिया में इस्राइल की आक्रामकता और ईरान के साथ तनाव के बीच सऊदी अरब को एक मजबूत सहयोगी की जरूरत थी, जबकि पाकिस्तान के लिए यह आर्थिक और रणनीतिक लाभ का स्रोत है, क्योंकि सऊदी अरब से तेल आपूर्ति और वित्तीय सहायता मिल सकती है. दोनों देशों के लिए यह समझौता अहम है. सऊदी अरब के लिए यह अमेरिकी निर्भरता से मुक्ति का कदम है.
कतर पर इस्राइली हमले के बाद सऊदी अरब ने महसूस किया कि अमेरिका हमेशा उसकी रक्षा नहीं करेगा. पाकिस्तान की परमाणु क्षमता इस समझौते को और मजबूत बनाती है, हालांकि समझौता स्पष्ट रूप से परमाणु छत्रछाया का उल्लेख नहीं करता.
पाकिस्तान के लिए यह समझौता आर्थिक संकट से उबरने का अवसर है. पाकिस्तान को सऊदी से तेल आपूर्ति, निवेश और सैन्य सहायता मिल सकती है. इस समझौते से पाकिस्तान को सऊदी की वित्तीय और तेल सहायता मिल सकती है, जो युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान की शक्ति बढ़ाएगी. यदि भारत पाकिस्तान पर हमला करता है, तो सऊदी अरब की प्रतिक्रिया आ सकती है. इससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा प्रभावित हो सकती है, क्योंकि सऊदी से तेल आयात पर हमारी निर्भरता है.
ऐसे में, भारत को रूस और अन्य स्रोतों से विविधीकरण तेज करना होगा. पश्चिम और दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन बदलने वाला यह समझौता भारत के लिए सतर्कता की घंटी है. ऐसे में, भारत को अपनी कूटनीति और रक्षा रणनीति को अनुकूलित करना होगा. हालांकि घबराने की जरूरत नहीं है. मजबूत नेतृत्व और रणनीतिक स्वायत्तता से भारत इस चुनौती का सामना कर सकता है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

