Jawaharlal Nehru : आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहरलाल नेहरू और भारतीय समाजवाद के पितामह आचार्य नरेंद्र देव के बीच आजादी की लड़ाई के दौरान और उसके बाद, आचार्य के कांग्रेस से अलग हो जाने के बाद भी, जैसी अंतरंगता थी, उसकी दूसरी मिसाल दुर्लभ है. इस बाबत नेहरू द्वारा स्थापित अंग्रेजी दैनिक ‘नेशनल हेराल्ड’ के तत्कालीन संपादक एम चेलपति राव की यह टिप्पणी काबिल-ए-गौर है : ‘आचार्य ने 1946 में नेशनल हेराल्ड के लिए पं नेहरू के व्यक्तित्व व कृतित्व पर एक सारगर्भित लेख लिखा था, लेकिन 1949 में पं नेहरू की जयंती पर फिर उनके लेख की जरूरत महसूस हुई, तो मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि वह लिखना स्वीकार भी करेंगे या नहीं, क्योंकि इस बीच उनके और कांग्रेस के बीच ‘बहुत कुछ’ हो चुका था. लेकिन आचार्य को मेरे संशय का पता चला, तो उन्होंने कहा, ‘ठीक है कि अब मैं नेहरू का आलोचक हूं, लेकिन हम अब भी मित्र हैं.
मैं उनका सम्मान करता हूं और हमारे बीच पत्र व्यवहार है. आप चाहें, तो उन पर मेरा लेख पुनर्प्रकाशित कर सकते हैं.’ साफ है कि ‘बहुत कुछ’ हो जाने के बाद भी आचार्य नेहरू के प्रति अपनी पुरानी राय पर कायम थे. और उनका कायम रहना अकारण नहीं था. पंडित नेहरू ने भरसक कोशिश की थी कि कांग्रेस फैजाबाद उपचुनाव में आचार्य के विरुद्ध प्रत्याशी न खड़ा करे. लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के चलते वह ऐसा नहीं कर पाये थे.
उससे कई साल पहले 1944 में 20 अगस्त को उनकी पुत्री इंदिरा गांधी पहली बार मां बनीं, तो उन्होंने नवजात शिशु का आचार्य से ही नामकरण कराया था. इंदिरा गांधी को दूसरा बेटा हुआ, तो उसका नामकरण भी आचार्य ने ही किया था. आचार्य के अनुसार, असहयोग आंदोलन ने नेहरू की जीवनचर्या को पूरी तरह बदल दिया था. उन्होंने सिगरेट पीना और पान खाना छोड़ दिया था और मेहमानों को उस झोले से इलायची निकाल कर पेश करने लगे थे, जिसे हमेशा वह अपने साथ रखते थे. नेहरू के सिलसिले में कोई उनकी सादगी का जिक्र नहीं करता. लेकिन बकौल आचार्य ‘वह बड़ी सादगी से रहते थे और चाहे व्यक्ति कितना ही छोटा या महत्वहीन क्यों न हो, उसके यहां जा सकते और ठहर सकते थे.’ अहमदनगर फोर्ट जेल में नेहरू ने आचार्य से कहा था कि अंततः ‘जेल जीवन ने मुझे इंसान बना दिया’ और आचार्य ने भी इसकी ताईद की थी : ‘असहयोग आंदोलन ने उनके जीवन को इतनी गहराई से न प्रभावित किया होता, तो उनका व्यक्तित्व इतने विकास और उच्चता के शिखर तक न पहुंच पाता’.
महात्मा गांधी व नेहरू के संबंधों के बारे में आचार्य ने जो कुछ लिखा था, उसका लब्बोलुआब यह है कि ‘गांधी जी जवाहरलाल जी का महत्व समझते थे और जवाहरलाल जी यह समझते थे कि यह गांधी युग है और उनके सहभागी बने बगैर कुछ भी उपलब्धि हासिल नहीं हो सकती. आचार्य के ही शब्दों में : कभी-कभी नेहरू दृढ़तापूर्वक बहस करने लगते और चिड़चिड़े भी हो जाते थे, लेकिन महात्मा उनकी बात प्रायः सहज भाव से सुनते और उनके कटु कथनों की उपेक्षा कर देते थे… कभी-कभी अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देते और इशारों में कह देते थे कि ऐसा नहीं हो सकता.
यहां यह भी गौरतलब है कि आचार्य ने अंतरंगता के कारण नेहरू के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन से परहेज नहीं किया था. उन्होंने यह लिखकर उनकी आलोचना भी की थी कि ‘वह (पंडित नेहरू) भारी भीड़ पसंद करते हैं और व्यक्तिगत लोकप्रियता का अर्थ यह समझते हैं कि लोग उनके प्रशासन से संतुष्ट हैं, जबकि ऐसा निष्कर्ष सदैव सही सिद्ध नहीं होता. तिस पर वह विशेषकर अपनी समीपी मित्रमंडली से प्रभावित रहते हैं. इस मंडली में भी यूरोप में शिक्षाप्राप्त व्यक्ति सम्मिलित हैं.’
दूसरी ओर 19 फरवरी, 1956 को आचार्य नहीं रहे, तो पंडित नेहरू ने उन्हें ‘अद्वितीय प्रतिभापुरुष’ करार देते हुए राज्यसभा में अपनी श्रद्धांजलि में जो कुछ कहा, वह जताता है कि वह भी आचार्य नरेंद्र देव के अंतिम दिन तक उतने ही आभारी थे, जितने जेल जीवन में ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ लिखते वक्त उनके सहयोग के लिए हुआ करते थे. उनकी श्रद्धांजलि यूं थी : आचार्य नरेंद्र देव एक दुर्लभ गुण संपन्न महत्वपूर्ण श्रेष्ठ पुरुष थे… असाधारण व्यक्तित्व के धनी इस मनीषी में दुर्लभ बुद्धि, दुर्लभ प्रतिभा, दुर्लभ सत्यनिष्ठा और कई अन्य बहुमूल्य गुण थे… चालीस वर्ष से भी अधिक का समय गुजरा, जब हम दोनों साथ हुए, स्वतंत्रता संग्राम की धूल और धूप में तथा जेल जीवन की लंबी नीरवता में, जहां हमने विभिन्न स्थानों पर चार या पांच साल, मुझे वास्तविक अवधि इस समय याद नहीं आ रही है, साथ बिताये. हम अगणित अनुभवों और अनुभूतियों के सहयोगी व सहभागी रहे और जैसा कि अवश्यंभावी था, हम दोनों एक-दूसरे को अंतरंग रूप से जानने और समझने लगे. इसलिए मन में कसक उठती है कि एक श्रेष्ठ गुणवान पुरुष हमारे बीच से उठ गया है और उस जैसा अब मिलना कठिन होगा’.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

