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क्षेत्रीय स्थिरता के लिए मुनीर खतरनाक

Asim Munir : 'सीडीएफ' का यह नया पद संपूर्ण थल, वायु और नौसेना पर समान रूप से अधिकार रखता है. आसिम मुनीर को इसी पद पर नियुक्त किया गया है और वे पूर्व की भांति सेना प्रमुख भी बने हुए हैं. यानी अब तीनों सेनाओं पर उनकी एकछत्र कमान स्थापित हो गयी है.

Asim Munir : पाकिस्तान में सैन्य सत्ता का नया उभार देश के राजनीतिक ढांचे में एक खतरनाक मोड़ लेकर आया है. सताइसवां संवैधानिक संशोधन मूल रूप से पाकिस्तान की सत्ता संरचना को इस तरह बदल देता है कि सेना प्रमुख फील्ड मार्शल आसिम मुनीर अब न केवल सेना, बल्कि पूरे राष्ट्र की राजनीतिक दिशा पर निर्णायक नियंत्रण रखते हैं. दशकों से पाकिस्तान को एक ‘हाइब्रिड व्यवस्था’ कहा जाता रहा है, जहां चुनी हुई सरकारें केवल उतनी ही अधिकार प्राप्त होती हैं, जितना सेना चाहती है.

लेकिन अब यह असमानता संवैधानिक रूप से पुख्ता कर दी गयी है, और देश को प्रत्यक्ष सैन्य शासन के और करीब धकेल दिया गया है. ऐसे में भारत के विरुद्ध आसिम मुनीर के हालिया बयान को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. विदित हो कि पाकिस्तान के पहले सीडीएफ (चीफ ऑफ डिफेंस फोर्सेस) नियुक्त होने के बाद तीनों सेनाओं की संयुक्त मीटिंग को संबोधित करते हुए मुनीर ने भारत को धमकाते हुए कहा कि ‘भारत किसी भ्रम में न रहे. अगली बार पाकिस्तान का जवाब और तेज तथा सख्त होगा.’


‘सीडीएफ’ का यह नया पद संपूर्ण थल, वायु और नौसेना पर समान रूप से अधिकार रखता है. आसिम मुनीर को इसी पद पर नियुक्त किया गया है और वे पूर्व की भांति सेना प्रमुख भी बने हुए हैं. यानी अब तीनों सेनाओं पर उनकी एकछत्र कमान स्थापित हो गयी है. इस बदलाव के साथ चेयरमैन ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमिटी का पद समाप्त हो गया, जो पहले कम-से-कम एक प्रतीकात्मक संतुलन बनाये रखता था कि रणनीतिक और परमाणु मामलों में नागरिक नेतृत्व की भी भूमिका है.

इस संशोधन की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सीधे-सीधे मुनीर की सत्ता को दीर्घकालिक बनाने के लिए तैयार किया गया प्रतीत होता है. सीडीएफ के रूप में उनकी नियुक्ति के साथ ही उनकी सेवा अवधि नये सिरे से पांच वर्षों के लिए तय हो गयी है. अब वे कम से कम 2030 तक सत्ता के शीर्ष पर बने रहेंगे और 2029 के आम चुनावों पर उनकी निर्णायक पकड़ बनी रहेगी. अधिक चिंता की बात यह है कि अब उनकी विदाई के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत अनिवार्य कर दिया गया है- जो प्रधानमंत्री को हटाने से भी अधिक कठिन है. इसके अलावा, उन्हें आजीवन कानूनी प्रतिरक्षा प्रदान की गयी है.


इस बदलाव का दूसरा गंभीर असर पाकिस्तान की परमाणु निर्णय प्रक्रिया पर पड़ा है. अब पाकिस्तान के स्ट्रेटेजिक प्लान्स डिविजन और नेशनल स्ट्रेटेजिक कमांड की सीधी जिम्मेदारी सीडीफ के हाथों में है. पहले परमाणु हथियारों और सैन्य रणनीति पर अंतिम निर्णय का अधिकार कम-से-कम सिद्धांततः, प्रधानमंत्री और नागरिक नेतृत्व के नियंत्रण में माना जाता था. अब यह संरचना सैन्य प्रमुख के एकाधिकार में जा चुकी है. ऐसे समय में, जब भारत और अफगानिस्तान से पाकिस्तान के रिश्ते लगातार तनावपूर्ण हैं, परमाणु निर्णय का केंद्रीकरण किसी एक व्यक्ति के हाथ में होना क्षेत्रीय स्थिरता के लिए भी खतरनाक है.

इस संवैधानिक संशोधन का अगला निशाना रहा है न्यायपालिका. संशोधन के तहत फेडरल कांस्टिट्यूशनल कोर्ट के नाम से एक नयी अदालत गठित कर दी गयी है, जिसके अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को भी पलटने तक पहुंच चुके हैं. न्यायाधीशों की नियुक्तियां अब एक ऐसी प्रक्रिया के माध्यम से होंगी, जहां न्यायपालिका की आवाज गौण कर दी गयी है. इन सबके पीछे राजनीतिक सौदेबाजी भी साफ दिखती है. पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) ने इस संशोधन को पारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. पाकिस्तान पहले से ही गंभीर आंतरिक चुनौतियों का सामना कर रहा है. बलूचिस्तान में अलगाववाद फिर तेज हो रहा है, खैबर पख्तूनख्वा में टीटीपी की गतिविधियां बढ़ चुकी हैं.

ऐसे संवेदनशील समय में जब जनता विश्वास और अधिकारों की कमी महसूस कर रही है, सेना को और अधिक शक्ति प्रदान करना उस असंतोष को और गहरा कर सकता है. बलूच और पश्तून क्षेत्रों में यह धारणा और मजबूत हो सकती है कि पाकिस्तान केवल एक सैन्य प्रशासित पंजाबी राज्य में बदलता जा रहा है. क्षेत्रीय स्तर पर भी यह परिवर्तन अस्थिरता को बढ़ा सकता है. मुनीर ने भारतीय सीमा पर हाल के तनावों के बाद स्वयं को राष्ट्रीय सुरक्षा के सबसे मजबूत संरक्षक के रूप में स्थापित किया है. संभव है कि जनता में अपनी लोकप्रियता बनाये रखने के लिए वे भारत के खिलाफ और अधिक आक्रामक रुख अपनायें. अफगानिस्तान के तालिबान शासन के साथ भी उनके संबंध तनावपूर्ण हो चुके हैं. ऐसे माहौल में कोई भी सैन्य गलतफहमी बड़े संघर्ष का रूप ले सकती है.


अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर पाकिस्तान ने सऊदी अरब के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाया है और अमेरिका के साथ भी संबंध सुधार के प्रयास तेज किये हैं. गाजा में मुस्लिम शांति सेना भेजने का प्रस्ताव पाकिस्तान की क्षेत्रीय महत्ता को फिर से उभारता है. इन कूटनीतिक पहलों की वजह से पश्चिमी देश पाकिस्तान की लोकतांत्रिक गिरावट को लेकर सक्रिय प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं. लेकिन इतिहास हमें बार-बार चेतावनी देता रहा है कि सैन्य शक्तिवाद का उभार कभी भी स्थिरता की गारंटी नहीं होता.

पाकिस्तान में पूर्व के सभी सैन्य शासन हिंसा, आर्थिक संकट, और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर के बाद ढहते रहे हैं. आज पाकिस्तान फिर उसी गलत रास्ते पर मुड़ चुका है. सताइसवां संशोधन सेना को संविधान से भी ऊपर ले जाकर खड़ा कर देता है. संसद और न्यायपालिका दोनों को कमजोर करके सेना अनियंत्रित शक्ति का केंद्र बन चुकी है. यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें नागरिक सरकार सिर्फ नक्शे पर होती है, फैसले कहीं और लिये जाते हैं. यह सत्ता की ऐसी संरचना है जो राष्ट्र को और अधिक विभाजित व अस्थिर बना सकती है.


इस संवैधानिक बदलाव को समर्थक ‘सुरक्षा सुधार’ का नाम दे सकते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह पाकिस्तान में सैन्य सत्ता का सीधा राजनीतिक अधिग्रहण है. यह मुनीर की व्यक्तिगत जीतभर नहीं है, बल्कि पाकिस्तान की सैन्य व्यवस्था की संस्थागत विजय है- लोकतंत्र पर, संविधान पर और जनता की आकांक्षाओं पर. इतिहास गवाह है कि जब किसी देश की सेना सर्वोच्च हो जाती है, तो राष्ट्र के भीतर भय बढ़ता है, सीमाओं पर तनाव बढ़ता है और भविष्य अनिश्चित हो जाता है. पाकिस्तान आज उसी अनिश्चितता के गर्त में प्रवेश कर चुका है. इस फैसले का दीर्घकालिक परिणाम न पाकिस्तान के लिए, न क्षेत्र के लिए और न ही लोकतांत्रिक मूल्य प्रणाली के लिए सकारात्मक होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

आनंद कुमार
आनंद कुमार
डॉ. आनंद कुमार नई दिल्ली स्थित मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (MP-IDSA) में एसोसिएट फेलो हैं। डॉ. कुमार अब तक चार पुस्तकें लिख चुके हैं और दो संपादित ग्रंथों का संपादन कर चुके हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक Strategic Rebalancing: China and US Engagement with South Asia है।

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