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माता-पिता का घर क्यों ना बेटियों के लिए हो सुरक्षित शरणस्थली?

Rohini Acharya : सरकार और समाज का यह प्रथम दायित्व होना चाहिए कि वह बेटियों के समान अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाए, खासकर सामाजिक और पारिवारिक उदासीनता के मद्देनजर बिहार में गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्तात्मक मानसिकता सामाजिक और राजनीतिक, दोनों क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता पैदा करती है.

Rohini Acharya : आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने हाल ही में बेटियों के मायके में अधिकार के मुद्दे पर ट्वीट कर सामाजिक व्यवस्था पर व्यापक बहस छेड़ दी है. उनका कहना है कि हर बेटी को यह भरोसा होना चाहिए कि माता-पिता का घर हमेशा उसके लिए सुरक्षित शरणस्थली है, जहां वह बिना किसी डर, शर्म या किसी को सफाई दिए वापस लौट सके.


रोहिणी आचार्य कहती हैं – लड़कियों को 10,000 रुपये देना या साइकिलें बांटना, भले ही नेक इरादे से किया गया हो, लेकिन ये भारत में महिलाओं के सशक्तिकरण में बाधा डालने वाले व्यवस्थागत मुद्दों को हल करने के मद्देनजर अपर्याप्त है. सरकार और समाज का यह प्रथम दायित्व होना चाहिए कि वह बेटियों के समान अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाए, खासकर सामाजिक और पारिवारिक उदासीनता के मद्देनजर बिहार में गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्तात्मक मानसिकता सामाजिक और राजनीतिक, दोनों क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता पैदा करती है.

हर बेटी को इस आश्वासन के साथ बड़े होने का अधिकार है कि उसका मायका एक ऐसा सुरक्षित स्थान है ,जहां वह बिना किसी डर, अपराधबोध, शर्म या किसी को कोई स्पष्टीकरण दिए बिना लौट सकती है. इस उपाय को लागू करना केवल एक प्रशासनिक दायित्व नहीं है, बल्कि अनगिनत महिलाओं को भविष्य में होने वाले शोषण और उत्पीड़न से बचाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा.


बिहार में गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्तात्मक मानसिकता


बिहार में गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्तात्मक मानसिकता सामाजिक और राजनीतिक, दोनों स्तरों पर व्यापक परिवर्तन की मांग करती है. प्रत्येक बेटी को यह आश्वासन मिलना चाहिए कि उसका मायका एक सुरक्षित शरणस्थली है, जहां वह बिना किसी डर, अपराधबोध, शर्म या स्पष्टीकरण के वापस लौट सकती है. इस अधिकार को लागू करना केवल एक प्रशासनिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि अनगिनत महिलाओं को भविष्य में शोषण और उत्पीड़न से बचाने की दिशा में एक निर्णायक कदम होगा.


कानून की कमी

हालांकि भारतीय कानून ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के माध्यम से बेटियों के आर्थिक अधिकारों का प्रगतिशील विस्तार किया है और घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत वैवाहिक घरों में महिलाओं के निवास के लिए मजबूत सुरक्षा प्रावधान स्थापित किए हैं, फिर भी एक गंभीर कमी बनी हुई है. कोई भी कानून अपने माता-पिता के जीवनकाल में बेटी को उनके मायके में निवास करने के बिना शर्त अधिकार की गारंटी नहीं देता. यह कानूनी चुप्पी विशेष रूप से चिंताजनक है क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या आश्रय और गरिमा के मौलिक अधिकार के रूप में की है; फिर भी, इन सुरक्षा उपायों को यह स्थापित करने के लिए विस्तारित नहीं किया गया है कि बेटियों का अपने पैतृक घरों पर स्थायी अधिकार है. कानून एक महिला के अपने पति के घर में निवास की सुरक्षा करता है, जबकि उसके मायके तक उसकी पहुंच को माता-पिता के विवेक पर छोड़ देता है. यह परोक्ष रूप से उस पितृसत्तात्मक धारणा को कानूनी मान्यता देता है कि एक महिला का असली घर उसके पति के साथ है और उसका मायका केवल एक अस्थायी पड़ाव है, ना कि निरंतर अपनेपन का स्थान.


पराया धन की अवधारणा

पराया धन की अवधारणा—बेटियों को दूसरे की संपत्ति मानना—उन्हें अस्थायी पारिवारिक सदस्यों के रूप में परिभाषित करती रहती है, ऐसी महिलाएं जिनका मायके में बिताया समय कहीं और वास्तविक घर के लिए तैयारी मात्र है. नकद हस्तांतरण और सरकारी योजनाओं को अपर्याप्त बताकर आचार्य एक महत्वपूर्ण सच्चाई सामने रखती है.पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कल्याणकारी योजनाओं से खत्म नहीं किया जा सकता. प्रशासनिक उपाय आर्थिक कठिनाइयों को कुछ हद तक कम कर सकते हैं, लेकिन उन सामाजिक और कानूनी परिस्थितियों को जड़ से नहीं बदल सकते जो बेटियों को अपने मायके में सुरक्षित अपनेपन की भावना से वंचित करती हैं. सरकारी योजनाएं समस्या की जड़ के बजाय केवल उसके लक्षणों का उपचार करती हैं—वे आर्थिक मदद तो देती हैं, लेकिन कानूनी धारणा या सामाजिक कलंक को नहीं बदलतीं. वास्तविक सुधार के लिए कानूनी और सांस्कृतिक परिवर्तन आवश्यक है, न कि केवल आर्थिक सहायता.


रोहिणी आचार्य की अपील एक ऐसे अधिकार की मांग को व्यक्त करती है जिसे केवल सरकारी योजनाओं से पूरा नहीं किया जा सकता. वो कहती हैं कि पैतृक घर को कानूनी और सामाजिक रूप से बेटियों के लिए स्थायी शरणस्थली के रूप में फिर से परिभाषित किया जाए, ना कि ऐसी जगह के रूप में जहां वे केवल माता-पिता की इच्छा पर या सामाजिक शर्म के साथ लौट सकें. रोहिणी की मांग है कि पैतृक घर को महिला के उत्पत्ति स्थल के रूप में देखने से हटकर उसे एक स्थायी शरणस्थली के रूप में मान्यता दी जाए, जो उसकी गरिमा और सुरक्षा को जीवन भर स्थिर रखे.

(लेखक पेशे से एडवोकेट हैं. साथ ही चेयरमैन — भारत उत्थान संघ, खाना चाहिए फाउंडेशन, महाराणा प्रताप फाउंडेशन भी हैं)

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