Deepfakes : तेजी से बदलते तकनीकी संसार में आज बड़ा प्रश्न सिर्फ यह नहीं है कि तकनीक के क्या फायदे हैं, बल्कि यह भी है कि इसके क्या नुकसान हैं. कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआइ) के विकास ने चिकित्सा, शिक्षा, शोध और शासन के क्षेत्र में चमत्कारिक संभावनाओं को जन्म दिया है, तो इसने एक ऐसा खतरा भी उत्पन्न किया है जो वास्तविकता और झूठ के बीच की दीवार को लगभग गिरा चुका है. यह खतरा है डीपफेक तकनीक.
इसी गंभीर चुनौती को ध्यान में रखते हुए पिछले दिनों लोकसभा में शिवसेना सांसद डॉ श्रीकांत शिंदे ने ऐतिहासिक विधेयक डीपफेक विनियमन बिल, 2024 पेश किया. यह प्रस्तावित कानून न केवल देश की डिजिटल संरचना को सुरक्षित बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि इसे विश्व स्तर पर डीपफेक नियंत्रण के नीति निर्माण की प्रक्रिया में भारत की मजबूत उपस्थिति के रूप में भी देखा जा रहा है.
डीपफेक तकनीक के तहत ऑडियो, वीडियो या फोटो के क्षेत्र में ऐसी सिंथेटिक सामग्री तैयार होती है, जिसे देखकर आम आदमी ही नहीं, विशेषज्ञ भी भ्रमित हो जाते हैं. इसमें व्यक्ति की आवाज, चेहरे के भाव और बोलने का तरीका- सब कुछ वास्तविक प्रतीत होता है. डीपफेक में सोशल मीडिया से व्यक्ति की तस्वीरें ली जाती हैं और जेनरेटिव एडवर्सेरियल नेटवर्क तकनीक से नकली सामग्री तैयार की जाती है. डीपफेसलैब, डीपस्वैप और जाओ जैसे कई सॉफ्टवेयर कुछ ही घंटों में आज डीपफेक वीडियो बना सकते हैं.
यह तकनीक फिल्म पुनर्निर्माण, शिक्षा और शोध में उपयोगी साबित हो सकती है, पर इसका दुरुपयोग खतरनाक है. मसलन, राजनीतिक प्रोपेगेंडा, अफवाह, मानहानि, साइबर अपराध, और महिलाओं के खिलाफ डिजिटल यौन हिंसा में इसका दुरुपयोग किया जाता है. चिंताजनक है कि 96 प्रतिशत डीपफेक वीडियो अश्लील सामग्री के होते हैं, और इनमें से अधिकांश में महिलाओं को निशाना बनाया जाता है. विदेशी शक्तियां प्रोपेगेंडा फैलाने और सामाजिक विभाजन बढ़ाने के लिए इसका दुरुपयोग कर सकती हैं.
संसद में जो डीपफेक विनियमन विधेयक पेश किया गया है, उसमें कई प्रावधान किये गये हैं, जैसे सहमति की अनिवार्यता-यानी किसी व्यक्ति की छवि, आवाज या वीडियो का उपयोग करने से पहले पूर्वलिखित अनुमति अनिवार्य होगी. डिजिटल वॉटरमार्क-एआइ से बनायी गयी सभी सामग्री पर अनिवार्य लेबलिंग होगी. वाटरमार्क कंटेंट के कम से कम 10 प्रतिशत हिस्से में दिखना चाहिए. राष्ट्रीय डीपफेक टास्क फोर्स-डीपफेक की पहचान, रोकथाम और नयी तकनीकें विकसित करने के लिए विशेष टास्क फोर्स के गठन की बात है. कठोर दंड- दुर्भावनापूर्ण इरादे से डीपफेक बनाने पर कठोर सजा होगी.
चुनाव के समय या महिलाओं के खिलाफ अश्लील डीपफेक बनाने पर विशेष रूप से सख्त कार्रवाई होगी. डिजिटल साक्षरता अभियान-व्यापक जन जागरूकता कार्यक्रम में नागरिकों को डीपफेक की पहचान करने के तरीके सिखाये जायेंगे. सोशल मीडिया की जिम्मेदारी-प्लेटफॉर्म्स को 36 घंटे में आपत्तिजनक डीपफेक हटाना होगा. गंभीर मामलों में यह समयसीमा 24 घंटे होगी. डीपफेक विनियमन बिल भारत की डिजिटल सुरक्षा यात्रा में मील का पत्थर साबित हो सकता है, लेकिन इसकी राह चुनौतियों से खाली नहीं है.
डीपफेक अपराधों की सबसे बड़ी जटिलता यह है कि इनमें से अधिकांश सामग्री सीमापार सर्वरों, विदेशी तकनीकी प्लेटफॉर्मों और डार्क वेब जैसे गुप्त नेटवर्कों के जरिये प्रसारित होती है, जहां पहचान छिपाना आसान और कार्रवाई करना लगभग असंभव जैसा हो जाता है. स्पष्ट तौर पर डीपफेक पहचान की तकनीक 100 प्रतिशत सटीक नहीं है. हजारों ज्ञात और अज्ञात प्लेटफॉर्म्स पर निगरानी रखना व्यावहारिक रूप से कठिन है. सोशल मीडिया कंपनियों को समय रहते अवैध कंटेंट हटाने, सत्यापन और रिपोर्टिंग के लिए प्रभावी तंत्र विकसित करना होगा, पर यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वैध रचनात्मक अभिव्यक्ति, व्यंग्य, कला, शोध, आलोचना और फिल्म निर्माण जैसे क्षेत्र अनजाने में सेंसरशिप के दायरे में न आने लगें.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय तेजी से डीपफेक से होने वाले नुकसान को रोकने के लिये कानून और नीतियों को मजबूत कर रहा है. यूरोपीय संघ ने एआइ एक्ट के तहत सख्त पारदर्शिता नियम, मशीन-पठनीय लेबलिंग और करोड़ों यूरो के दंड का प्रावधान किया है. ब्रिटेन ने ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट लागू कर अंतरंग डीपफेक पर सीधे आपराधिक मुकदमे की राह खोल दी है, जबकि अमेरिका में टेक इट डाउन एक्ट और राज्य स्तरीय कानून राजनीतिक, अश्लील और धोखाधड़ी आधारित डीपफेक को तत्काल हटाने और सजा की व्यवस्था लागू कर रहे हैं.
कनाडा जागरूकता अभियानों के साथ कानूनी ढांचा सुदृढ़ कर रहा है, वहीं डेनमार्क और चीन सहमति-आधारित उपयोग, पहचान सत्यापन और सोशल मीडिया जिम्मेदारी पर जोर देकर सुरक्षा को प्राथमिकता दे रहे हैं. पर केवल कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है. लोगों को डिजिटल दुनिया में सच और भ्रम के बीच का फर्क बताना होगा, इसी उद्देश्य से स्कूलों में डिजिटल साक्षरता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना, ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में स्थानीय भाषाओं में जागरूकता अभियान चलाना, महिलाओं के लिए विशेष सुरक्षा कार्यक्रम और चुनावी अवधि में संदेहास्पद सामग्री पहचानने के प्रशिक्षण जैसे कदम अनिवार्य हो जाते हैं. छात्रों, आम जनता और डिजिटल उपयोगकर्ताओं को यह सिखाना होगा कि डीपफेक की पहचान कभी-कभी छोटी-छोटी विसंगतियों, जैसे पलक झपकने के अप्राकृतिक पैटर्न, चेहरे के हावभाव और आवाज के मेल न खाने, या होंठों की गतियों में असंतुलन से भी की जा सकती है.
डीपफेक विनियमन बिल केवल एक विधेयक नहीं, डिजिटल भारत का नैतिक संविधान बन सकता है. यह आधुनिक तकनीक के लाभों को अपनाते हुए उसके दुरुपयोग पर प्रभावी नियंत्रण लगाने का प्रयास है. हमारा देश डिजिटल क्रांति के अगले चरण में प्रवेश कर चुका है, और विधेयक सुनिश्चित करेगा कि यह यात्रा सुरक्षित, पारदर्शी और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के साथ आगे बढ़े. नागरिकों को भी जिम्मेदार और जागरुक बनना होगा. संदिग्ध वीडियो को शेयर करने से पहले उसकी सत्यता की जांच करने, डीपफेक का पता चलते ही तुरंत रिपोर्ट करने और अपने परिवार व दोस्तों को शिक्षित करने की जरूरत है. डिजिटल युग में सत्य-असत्य के बीच की लड़ाई तेज हो गयी है. पर यदि हम जागरूक रहें, कानून का पालन और एक-दूसरे की मदद करें, तो इस चुनौती से निपट सकते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

