PM Modi : क्वालालंपुर स्थित कॉन्वेंशन सेंटर के जिस चमचमाते गलियारे में दक्षिण एशिया के नेता संवाद कर रहे थे, वहां एक खाली कुर्सी बहुत कुछ बता रही थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 47वें आसियान शिखर सम्मेलन और 22वें आसियान-भारत शिखर सम्मेलन को वर्चुअली संबोधित किया. सम्मेलन में उनकी सुनियोजित अनुपस्थिति ने कई चर्चाओं को जन्म दिया. क्या नयी दिल्ली डोनाल्ड ट्रंप से सार्वजनिक संपर्क बनाने से कतरा रही है? क्वालालंपुर में प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी को उनके व्यस्त रूटीन या कार्यक्रम से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. नयी दिल्ली की तरफ से उस वाशिंगटन से जानबूझकर दूरी बनायी गयी है, जो आतंक के सौदागरों को दोस्त के रूप में पेश करता है, और जहां मॉस्को के साथ आजमायी हुई दोस्ती को राजद्रोह बताया जाता है.
दुनिया के दो सबसे प्रभावशाली नेता- भारतीय प्रधानमंत्री मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक-दूसरे से कन्नी काटने के विचित्र कूटनीतिक दांव चल रहे हैं. दोनों अपने-अपने देश को लोकतंत्र के प्रणेता के रूप में चित्रित करते हैं, लेकिन इधर दोनों आमने-सामने खड़े होने से बच रहे हैं. क्वालालंपुर के सम्मेलन को, जहां ट्रंप ने आने का फैसला किया, और मोदी ने ऑनलाइन संबोधित करने का निर्णय लिया, दो ताकतवर लेकिन अविश्वासी नेताओं के असहज रिश्तों का नया प्रमाण बताया जा रहा है. मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम की मेजबानी में संपन्न हुए सम्मेलन में आसियान के दस सदस्य देशों- इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम, फिलीपींस, ब्रुनेई, कंबोडिया, लाओस और म्यांमार- की तो मौजूदगी थी ही, भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे संवाद साझेदारों की भी उपस्थिति थी.
सम्मेलन की थीम ‘कनेक्टिविटी और रीसिलिएंस’ थी, जो आर्थिक बेहतरी, सामुद्रिक सहयोग और हिंद-प्रशांत में डिजिटल समावेशन की आसियान की महत्वाकांक्षा को रेखांकित करती थी. भारत अपनी एक्ट ईस्ट पॉलिसी के जरिये लंबे अरसे से आसियान को अपने क्षेत्रीय विस्तार का केंद्रीय स्तंभ मानता रहा है. इसी कारण क्वालालंपुर के मंच पर मोदी की अनुपस्थिति को उनके कूटनीतिक तौर-तरीके में आये महत्वपूर्ण बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है. वर्ष 2014 से आसियान-भारत और पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी की नियमित उपस्थिति रही है. शारीरिक रूप से मौजूद न होने पर उन्होंने सम्मेलन को वर्चुअली संबोधित किया है. उन्होंने इन बैठकों और सम्मेलनों का इस्तेमाल दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ भारत की आर्थिक मजबूती और रणनीतिक साझेदारी को विस्तार देने के लिए तो किया ही, एक अनिश्चित भूगोल में उन्होंने चीन के वर्चस्ववादी रवैये और अमेरिका की अनिश्चित नीति के बीच नयी दिल्ली को एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में पेश किया.
क्वालालंपुर में मोदी की अनुपस्थिति के बारे में नयी दिल्ली की तरफ से आधिकारिक बयान में कहा गया कि बिहार चुनाव और दीपावली के बाद के औपचारिक आयोजनों के कारण प्रधानमंत्री बहुत व्यस्त हैं. पर यह कारण बहुत आश्वस्त नहीं करता. प्रधानमंत्री मोदी की अनुपस्थिति का बड़ा कारण यह रहा कि क्वालालंपुर में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मौजूदगी थी. इस साल की शुरुआत में वाशिंगटन में मोदी और ट्रंप की संक्षिप्त मुलाकात हुई थी. उस अवसर पर न तो कोई साझा बयान जारी हुआ था, न कोई ठोस समझौता हुआ था. तब से दोनों की आमने-सामने की मुलाकात नहीं हुई है. ट्रंप की अहंकारी टिप्पणियों ने भारत को लगातार परेशानी में डाला है. भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष रोकने के ट्रंप के सार्वजनिक दावे ने नयी दिल्ली को असहज किया है.
ट्रंप के इस दावे का, कि प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे रूसी तेल न खरीदने का वादा किया है, भारतीय अधिकारियों ने लगातार खंडन किया है. इससे भी दोनों देशों के बीच के तनाव का पता चलता है. डींग हांकने के अलावा ट्रंप की नीतियों से भारत को आर्थिक नुकसान पहुंचा है. अमेरिका ने भारतीय निर्यात पर भारी टैरिफ लगाया है. ऊर्जा क्षेत्र पर भी इस तनातनी का असर पड़ा है. रूसी कच्चे तेल पर भारत की निर्भरता भी ट्रंप की सख्त नीतियों से प्रभावित हुई है. रोजनेफ्ट और ल्यूकॉयल जैसी रूसी तेल कंपनियों पर अमेरिकी प्रतिबंध से भारतीय रिफाइनरी क्षेत्र में अनिश्चितता व्याप्त हो गयी है, इससे भुगतान और बीमा के मामले में जटिलता बनी है. ट्रंप बार-बार यह कह कर, कि रूस से तेल खरीदने वाले देश परोक्ष रूप से रूसी आक्रामकता की मदद कर रहे हैं, नयी दिल्ली को ही निशाना बना रहे हैं.
इस बीच दिल्ली और वाशिंगटन के बीच रिश्तों को सुधारने की कूटनीति का कोई नतीजा नहीं निकला है. दावों और वास्तविकता के बीच इतना अंतर है कि दोतरफा रिश्तों की गहरी खाई दिखाई देती है. ऐसे तनाव भरे माहौल में क्वालालंपुर में ट्रंप के साथ मोदी की मौजूदगी जोखिम भरी हो सकती थी. वहां ट्रंप की एक लापरवाह टिप्पणी दुनियाभर की सुर्खियां बटोर सकती थी, दूसरी ओर, व्यापार तथा ऊर्जा के मोर्चे पर भारत ने सावधानीपूर्वक अपनी जो स्थिति बना रखी है, वह खतरे में पड़ सकती थी. ऐसे में, क्वालालंपुर न जाकर प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को एक गैरजरूरी कूटनीतिक जोखिम से बचा लिया है. उनकी वर्चुअल मौजूदगी से क्वालालंपुर में भारत ने अपनी उपस्थिति बनाये रखी है.
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी को इसकी कीमत चुकानी पड़ी है. मोदी की राजनीतिक पहचान उनके आत्मविश्वास और वैश्विक मौजूदगी से बनी है. जिस सम्मेलन में मोदी की महत्वपूर्ण मौजूदगी रहती आयी है, वहां उनके न होने से भारत की कूटनीति पर सवाल उठे हैं. विदेश नीति में कई बार उपस्थिति की तुलना में अनुपस्थिति ज्यादा ध्यान खींचती है. इस कारण मोदी विपक्षी नेताओं के निशाने पर हैं. प्रधानमंत्री के क्वालालंपुर न जाने से महत्वपूर्ण दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ मजबूत साझेदारी बनाने का मौका भी भारत ने गंवा दिया. इससे भारत-अमेरिकी रिश्ते में आयी भरोसे की कमी का भी पता चलता है. ट्रंप के आर्थिक राष्ट्रवाद और लेन-देन की कूटनीति ने सहयोग को विवाद में बदल दिया है. जबकि मोदी संयम का परिचय दे रहे हैं. एक समय आयेगा, जब मोदी को कूटनीतिक खामोशी छोड़ कर ट्रंप की धमकाने वाली शैली का मुकाबला करना पड़ेगा. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत विश्व के सबसे धनी देश से डर कर नहीं रह सकता. नेतृत्व की सफलता को इससे नहीं आंका जाता कि आपने कितने शिखर सम्मेलन में भाग लिया, बल्कि सफलता इससे तय होती है कि अनिश्चित माहौल के बीच आपने कितने दृढ़ निश्चय का परिचय दिया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

