Kashmir weather : कश्मीर को धरती का स्वर्ग इसलिए कहते हैं कि जब यहां जमकर बर्फ पड़ती है, तब प्रकृति झूमकर नाचती है. वसंत में ट्यूलिप के साथ केसर, सेब और ढेर सारे फल-फूल प्रस्फुटित होने लगते हैं. पर बीते कुछ वर्षों में घाटी के मौसम में बदलाव यहां के नैसर्गिक वातावरण के लिए खतरा बन गया है. आमतौर पर 21 दिसंबर से 29 जनवरी तक कश्मीर घाटी में चिल्लई कलां के दौरान सबसे अधिक ठंड, अर्थात तापमान शून्य से नीचे और भारी बर्फबारी होती है. मौसम विज्ञानियों ने भविष्यवाणी की थी कि 2024-2025 में ला नीना प्रभाव के कारण इस क्षेत्र में अच्छी बरसात होगी, पर ऐसा हुआ नहीं- न बर्फ गिरी, न ही बरसात हुई. बीस दिवसीय चिल्ले खुर्द (कम तीव्रता वाली ठंड) 20 फरवरी को समाप्त हो गया, पर इस दौरान भी अपेक्षित बर्फ नहीं गिरी और मौसम सूखा ही रहा. इक्कीस फरवरी से 10 दिवसीय चिल्ले बाइच (बिल्कुल कम ठंड) पारी शुरू हो गयी और इसके साथ आम कश्मीरी की निराशा और चिंताएं भी बढ़ गयीं.
मौसम विभाग ने पहले ही कश्मीर घाटी में जनवरी के महीने में 81 प्रतिशत कम बारिश होने के चलते अलर्ट जारी किया है. बागवानी और खेती कश्मीर की बड़ी जनसंख्या के जीवकोपार्जन का जरिया है. जम्मू भी तापमान की मार से अछूता नहीं है. कठुआ में पिछले करीब तीन महीने के दौरान इस बार भी पर्याप्त वर्षा न होने से फसलें सूखने की कगार पर आ गयी हैं. सर्दियों में गर्मी की खेती-किसानी पर असर कई तरीके से होता है. एक तो तापमान बढ़ने से कीटों की सुप्तावस्था जल्दी समाप्त हो जाती है, जिससे उनके संक्रमण चक्र बढ़ जाते हैं.
जब फल के पेड़ों पर फूल आते हैं, तभी कीट का प्रकोप बढ़ने पर कीट नियंत्रण अधिक कठिन हो जाता है. पुष्पावस्था में कीटनाशकों का छिड़काव उपज और गुणवत्ता दोनों को प्रभावित करता है. सेब फल के पत्तों को खाने वाले कीट सक्रिय हो जाते हैं. इसके अतिरिक्त, पत्ता गोभी सहित अधिकांश सब्जियों के पौधों पर कीट हमला कर रहे हैं. उच्च तापमान से कुछ ऐसे एंजाइमों का उत्पादन होता है जो समशीतोष्ण फलों के पेड़ों के लिए हानिकारक होते हैं. आलूबुखारा, खुबानी, चेरी, नाशपाती और यहां तक कि सेब जैसी बागवानी वाली फसलों पर जल्दी फूल लगने से उनका उत्पादन चक्र गड़बड़ा रहा है और अनुकूल मौसम न होने के कारण या तो फूल फल में परिवर्तित नहीं हो पा रहे या फिर बहत कमजोर हो रहे हैं. तापमान का असर मधुमक्खी और भंवरे जैसे कीटों पर भी पड़ा है, जिससे परागण की नैसर्गिक प्रक्रिया प्रभावित हुई है. वैसे भी सेब की अच्छी फसल के लिए चालीस दिन के लिए कड़ाके की ठंड अनिवार्य होती है जो इस बार नहीं दिखी. अभी कुछ वर्ष पहले तक कश्मीर में सालाना 20 से 25 लाख मीट्रिक टन से अधिक सेब की पैदावार होती थी, जो अब घटकर 17 से 18 लाख मीट्रिक टन रह गयी है. जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित हुई है केसर की खेती. बेमौसम गर्मी के कारण न तो उसकी जड़ों का विस्तार हो पा रहा है, न ही पौधे की वृद्धि.
कम बर्फबारी का सबसे चिंताजनक प्रभाव है यहां की जल निधियों का अभी से सूखना. गांदरबल जिले की कई सरिताएं और छोटी नदियां सूख चुकी हैं. अनंतनाग जिले का मशहूर अचाबल तालाब की तली दिख रही है. कभी इससे 15 गांवों को पानी की आपूर्ति और कई सौ एकड़ धान के खेतों की सिंचाई होती थी. अनंतनाग जिले में वेरीनाग स्रोत में पानी का बहाव बहुत कम हो गया है. वेरीनाग से झेलम नदी निकलती है, जो घाटी के बीच से अनंतनाग, पुलवामा, श्रीनगर, गांदरबल, बांदीपोरा और बारामुला जिलों तक बहती है और फिर पाकिस्तान के मिथनकोट में सिंधु नदी में मिल जाती है. सिंधु में मिलने से पहले झेलम और रावी चेनाब नदी में मिलते हैं. झेलम की धार कमजोर होने का अर्थ है कश्मीर में भयानक जल संकट. इससे भी बड़ा संकट है जमीन और जंगलों के शुष्क होने का. यह जंगल की आग का बड़ा कारक होता है. वैसे भी, कश्मीर में जंगल वर्ष-दर-वर्ष कम हो रहे हैं.
ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के आंकड़ों के अनुसार, 2023 में, जम्मू और कश्मीर ने 112 हेक्टेयर प्राकृतिक वन को खो दिया. वर्ष 2020 में, इस क्षेत्र में 1.15 मिलियन हेक्टेयर प्राकृतिक वन था, जो इसके भूमि क्षेत्र का 11 प्रतिशत था. हालांकि इस क्षेत्र में जंगल में आग की घटनाओं में इजाफा हुआ है और इसका मूल कारण भी कम बर्फबारी से उत्पन्न शुष्क परिवेश है. कश्मीर के वन विभाग की 2021 की एक पुस्तिका के अनुसार, कश्मीर में चिनार के पेड़ों की संख्या में कमी आयी है. कुछ अनुमानों के अनुसार, 1970 के दशक में यह संख्या 42,000 थी. वर्तमान अनुमान 17,000 से 34,000 तक है. जंगल कम होने से कस्तूरी मृग और अन्य कई दुर्लभ जानवरों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है.
कश्मीर घाटी अपनी प्राकृतिक सुंदरता, झीलों, और हिमालयी परिदृश्यों के लिए प्रसिद्ध है. परंतु हाल के वर्षों में यहां बर्फबारी और बारिश में भारी कमी देखी जा रही है, जिससे कई गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं. यह केवल स्थानीय समस्या नहीं, बल्कि एक बड़े जलवायु संकट का संकेत है. सरकार और स्थानीय प्रशासन को जल संरक्षण, वनीकरण और जलवायु अनुकूलन रणनीतियों पर ध्यान देना होगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)