Indigo crisis : जो बाजार दो कंपनियों के अधिकार या एकाधिकार में बदल जाता है, वहां उपभोक्ता के संप्रभु भागीदार होने का दर्जा छिन जाता है और वह आपूर्ति पाने वाले में बदल जाता है, और इस तरह अपनी गरिमा और चुनने के अधिकार से वंचित हो जाता है. ऐसे में, उसके हिस्से में जो भी आता है, वह उसे लेने को मजबूर होता है. हवाई यात्रा में खुले चुनाव का भ्रम तो उसी दिन हवा हो गया था, जब राष्ट्रीय उड्डयन की शर्तें दो बड़े खिलाड़ी तय करने लगे थे. जब निजी वर्चस्व सार्वजनिक प्राधिकार की आभा धूमिल करता है, तब राज्य का दायरा सिकुड़ने लगता है.
पिछले सप्ताह भारत के नागरिक उड्डयन के परिदृश्य में यही देखने को मिला, जब एक एयरलाइन द्वारा ऑपरेशन की क्षमता ध्वस्त होते ही पूरा देश विभ्रम, उथल-पुथल और शोषण में गर्क हो गया. देश के विमानन क्षेत्र में 63 फीसदी की चौंकाने वाली हिस्सेदारी रखने वाली इंडिगो अपने ऑपरेशंस को लापरवाही के हद तक ले गयी. नतीजतन, तीन दिन में उसकी 2,000 से अधिक उड़ानें रद्द करनी पड़ीं और 10 लाख से अधिक यात्रियों के लिए जीवन जैसे एकाएक ठहर गया- शादियां रुक गयीं, अतिथिगण गंतव्य तक नहीं पहुंच सके और असंख्य परिवार अधर में लटक गये. हवाई अड्डे देखते-देखते भारी थकावट और असहनीय क्षोभ के केंद्र बन गये.
जब पूरा देश उबल उठा, तब सरकार ने प्रतिक्रिया दिखायी. दोषी उड्डयन दिग्गज से जवाबदेही मांगने के बजाय सरकार ने पायलटों को आराम देने से संबंधित अपने 18 महीने पुराने नियमों को फौरी तौर पर वापस ले लिया. रेगुलेशन से जुड़े निर्णायक कदम उठाने का समय राजनीतिक रूप से कदम खींचने का उदाहरण बन गया, जिससे यह संदेश गया कि ताकतवर सरकार ने एयरलाइन के अधिकार और उसकी आक्रामकता के आगे समर्पण कर दिया है. इसका नतीजा सिर्फ असुविधाजनक नहीं, बल्कि डरावना रहा. सिंगापुर के उच्चायुक्त अपने एक कर्मचारी की शादी में शामिल नहीं हो सके. उड़ानों के लगातार रद्द होने के बीच एक नये-नवेले जोड़े ने अपने ही रिसेप्शन में ऑनलाइन हिस्सेदारी की. और इन असुविधाओं के बदले उस एयरलाइन ने क्या दिया?
उसने कॉरपोरेट शब्दावली में सिर्फ बहाने बनाये. उसने तकनीकी परेशानियों, मौसम संबंधी दिक्कतों, हवाई अड्डों की भीड़ और एफटीडीएल- यानी पायलटों के आराम संबंधी नये नियमों को दोष दिया, जबकि एफटीडीएल नियम रातोंरात नहीं तय हुआ था, इसका फैसला महीनों पहले लिया गया था. एयरलाइंस के पास पायलटों और क्रू की नियुक्तियों के लिए और रोस्टर की नयी व्यवस्था बनाने के लिए पर्याप्त समय था, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया. उन्होंने सरकार को अपनी इच्छा के मुताबिक चालित करने के बारे में सोचा और इसमें कामयाब रहे. नागरिक उड्डयन मंत्री की प्रतिक्रिया ने इस बीमारी के बारे में ही बताया. हवाई अड्डों पर व्याप्त अराजकता पर जब लोगों का गुस्सा भड़का, तब भी वह निष्क्रिय थे. जब संसद में इस पर सवाल उठे, तब वह सामने आये.
वह इंडिगो को मामूली चेतावनी देते, निष्फल बैठकें करते और प्रतीकात्मक निरीक्षण करते दिखे. सरकार द्वारा पायलटों के आराम के लिए बनाये गये अपने ही नियम से पीछे हटना शक्तिहीनता और कॉरपोरेट दबाव के आगे झुकने का स्पष्ट उदाहरण था. इस बीच एयर इंडिया की कमजोरी भी सामने आयी. सुस्ती, पुराने पड़ चुके विमान और अपनी आंतरिक दुर्बलता के लिए कुख्यात एयर इंडिया ने भी इस दौरान अपनी उड़ानें रद्द कीं. विपक्ष ने यह मौका लपका और सरकार से कुछ असुविधाजनक सवाल पूछे. उसने केंद्र की भाजपा सरकार को उड्डयन क्षेत्र में एकाधिकार की स्थिति पैदा करने का जिम्मेदार बताया.
अलबत्ता मौजूदा संकट को देश की उड्डयन क्षमता की कमी से अलग करके नहीं देखा जा सकता. एक अरब चालीस करोड़ के देश में बमुश्किल आधा दर्जन एयरलाइंस हैं. कुल 839 रजिस्टर्ड विमानों में से 680 ही सक्रिय हैं. इनमें से आधे से अधिक का स्वामित्व इंडिगो के पास है. तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि घरेलू यात्रियों का आंकड़ा 2019 के 14 करोड़ से बढ़कर 2025 में 40 करोड़ हो चुका है. भारत को सालाना जितने पायलटों की जरूरत है, देश उसके आधे से भी कम पैदा करता है. ऐसे में, पायलटों का संकट तो एफटीडीएल के शुरू होने के पहले से ही था. इस संकट के लिए डीजीसीए भी उतना ही जिम्मेदार है. उसके द्वारा जारी सलाहों को एयरलाइंस खारिज करती आयी हैं. उड़ानें रद्द हो जाती हैं और यात्रियों के लिए भरपाई की व्यवस्था नहीं होती.
बिना समीक्षा के ही किराये बढ़ जाते हैं और रिफंड कभी समय पर नहीं मिलता. एयरलाइंस निडर हैं, क्योंकि डीजीसीए उनके बचाव में खड़ा रहता है. रेगुलेटर यानी विनियामक की इस विफलता की मानवीय कीमत बहुत अधिक है. हवाई अड्डों पर फंसे असहाय यात्रियों को महज आंकड़ों में नहीं मापा जा सकता. इसे परीक्षा देने से वंचित रह गये छात्रों की पीड़ा, मजदूरी से वंचित रह गये श्रमिकों के दर्द, समय पर इलाज न करा पाये मरीजों की व्यथा, और परिवार के बीच उपस्थित न हो सकने वाले माता-पिताओं के कष्ट के रूप में देखा जाना चाहिए. दुखद यह भी है कि कम वेतन पाने वाले और अपने नियोक्ताओं की मदद से वंचित हवाई अड्डों के कर्मचारीगण मुसाफिरों के गुस्से का निशाना बने.
भारत इस जोखिम भरे रास्ते पर यात्रा जारी नहीं रख सकता. नागरिक उड्डयन विलासिता से अब आर्थिक गतिविधियों, सामाजिक गतिशीलता और राष्ट्रीय एकीकरण की जीवनरेखा बन चुका है. लिहाजा, इसे आवश्यक ढांचागत प्रणाली के बजाय आकस्मिक व्यावसायिक क्षेत्र समझना तबाही को न्योता देना होगा. एक स्वायत्त उड्डयन प्राधिकरण का गठन भी समय की मांग है, जिसके पास जांच करने की स्वायत्तता, वित्तीय स्वतंत्रता और दंडित करने की क्षमता हो. विमानों के बेड़े में चरणबद्ध तरीके से वृद्धि करना और पायलटों के प्रशिक्षण को गति देने की आवश्यकता है. और सर्वोपरि, सरकार को सख्ती दिखानी होगी. एक अरब चालीस करोड़ की आबादी वाला देश उन दो निजी उड़ान कंपनियों का बंधक नहीं बन सकता, जिन्हें संकट के समय मुनाफा कमाने में महारत हासिल है. भारत के आसमान को कॉरपोरेट के सामने समर्पण की निशानी बनने नहीं दिया जा सकता. देश को स्पष्टता, साहस और दृढ़ विश्वास का परिचय देना होगा-अन्यथा उसे अपनी महत्वाकांक्षाओं को उन ताकतों द्वारा ध्वस्त होते देखना होगा, जिन पर इन्हें रफ्तार देने की जिम्मेदारी थी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

