Holi 2025 : होली भारत में किसी एक जाति, धर्म या क्षेत्र विशेष का पर्व नहीं है. इस पर्व की पहचान देश की संस्कृति के रूप में होती है. वसंत ऋतु जनजीवन में नयी चेतना का संचार कर रही होती है, फागुन की सुरमई हवाएं वातावरण को मस्त बनाती हैं. तभी होली के रंग हमारे लोकजीवन में घुल जाते हैं. इन्हीं दिनों नयी फसल भी तैयार होती है. किसानों के लिए यह उल्लास का समय होता है. तभी होली के बहाने नये अन्न की पूजा पूरे देश में की जाती है. दिलचस्प यह है कि दुनियाभर में अलग-अलग समय में होली की ही तरह के त्योहार मनाये जाते हैं, जिनका असल मकसद तनावों से दूर कुछ पल मौज-मस्ती के बिताना होता है. होली का अर्थ है-हो ली, यानी जो बीत गयी, सो बीत गयी, अब आगे की सुध लो. गिले-शिकवे मिटाओ, गलतियों को माफ करो और एक-दूसरे को रंगों में सराबोर कर दो.
लेकिन विडंबना यह है कि भारतीय संस्कृति की पहचान वाला यह पर्व आज नशाखोरी, रंग की जगह त्वचा को नुकसान पहुंचाने और आनंद की जगह भोंडे उधम के लिए कुख्यात हो गया है. इस पर्व में पानी की बर्बादी और पेड़ों के नुकसान ने हमारी आस्था और परंपरा की मूल आत्मा को ही जैसे नष्ट कर दिया है. होली का वास्तविक संदेश तो स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण ही है. यह दुखद है कि अब इस त्योहार ने अपना पारंपरिक रूप और उद्देश्य खो दिया है तथा इसकी छवि पेड़ व हानिकारक पदाथों को जला कर पर्यावरण को हानि पहुंचाने और रंगों के माध्यम से जहर बांटने की बनती जा रही है. हालांकि देश के कई शहरों और मुहल्लों में बीते एक दशक के दौरान होली को प्रकृति-मित्र के रूप में मनाने के अभिनव प्रयोग भी हो रहे हैं, जिसका स्वागत करना चाहिए. हमारा कोई भी संस्कार, उत्सव, उल्लास की आड़ में पर्यावरण को क्षति की अनुमति नहीं देता. होलिका दहन के साथ सबसे बड़ी कुरीति हरे पेड़ों को काट कर जलाने की है.
वास्तव में होली भी दीपावली की तरह खलिहान से घर के कोठार में फसल आने की खुशी व्यक्त करने का पर्व है. कुछ सदियों पहले तक ठंड के दिनों में भोज्य पदार्थ और मवेशियों के लिए चारा जैसी चीजें जमा कर रखने की परंपरा थी. ठंड के दिनों में कम रोशनी के कारण कई तरह का कूड़ा भी घर में ही रखा जाता था. होली में गोबर के बने उपले की माला अवश्य डाली जाती है. असल में ठंड के दिनों में जंगल जाकर जलावन लाने में डर रहता था, इसलिए घरों में उपलों को एकत्र कर रखने का रिवाज था. चूंकि घर में नया अनाज आने वाला है और कंडे-उपले की जरूरत नहीं पड़ने वाली, इसलिए उसे होलिका दहन में इस्तेमाल किया जाता है. उपले की आंच धीमी होती है, लपटें ऊंची नहीं जातीं, इसमें गेहूं की बाली या चने को भूना भी जा सकता है, इसलिए हमारे पूर्वजों ने होली में उपले के प्रयोग किये. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि अब लोग होली की लपटें आसमान से ऊंची दिखाने के लिए लकड़ी और कई बार प्लास्टिक जैसा जहरीला कूड़ा तक इस्तेमाल करते हैं. यह होली की परंपरा के अनुरूप तो कतई नहीं है.
गौर करने की बात है कि आदिवासी समाज में प्रत्येक कृषि उत्पाद के लिए ‘नवा खाई’ पर्व होता है- यानी जो भी नयी फसल आयी, उसके लिए प्रकृति का धन्यवाद. होली भी किसानों के लिए कुछ ऐसा ही पर्व है. होलिका पर्व का वास्तविक समापन शीतला अष्टमी के दिन होता है. इस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता और एक दिन पहले ही पक्की रसोई यानी पूड़ी-कचौड़ी, दही बड़े आदि बनाकर रख दिये जाते हैं. सुबह सूरज उगने से पहले होलिका दहन स्थल पर शीतला माता को भोग लगाया जाता है. मान्यता के अनुसार, इस व्रत को रखने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं और चेचक, खसरा, दाह, ज्वर, पीतज्वर, दुर्गंधयुक्त फोड़े और नेत्रों के रोग आदि दूर हो जाते हैं. संदेश यही है कि स्वच्छता रखेंगे, तो ये रोग नहीं हो सकते.
तनिक गौर करें, होली का प्रारंभ हुआ घर-खलिहान से कूड़ा-कचरा बुहार कर होली में जलाने से, पर्व में शरीर पर विभिन्न रंग लगाये गये, फिर उन्हें छुड़ाने के लिए रगड़-रगड़ कर स्नान किया गया. पुराने कपड़े फटे और नये वस्त्र धारण किये गये तथा होली के समापन पर स्वच्छता की देवी की पूजा-अर्चना की. इसके जरिये लोगों को अपने परिवेश और व्यक्तिगत सफाई का संदेश दिया. गली-मोहल्ले के चौराहों पर, होलिका दहन स्थल पर बसौड़ा का चढ़ावा चढ़ाया, जिसे समाज के उस वर्ग ने उठाकर खाया, जिसकी आर्थिक स्थिति उसे पौष्टिक आहार से वंचित रखती है. चूंकि यह भोजन दो-तीन दिन तक खराब नहीं होता, सो वे घर में रख कर भी इसे खा सकते हैं. और फिर यही लोग नयी उमंग-उत्साह के साथ फसल की कटाई से लेकर अगली फसल के लिए खेत तैयार करने का कार्य तपती धूप में भी लगन से करेंगे. इस तरह होली का उद्देश्य समाज में समरसता बनाये रखना, अपने परिवेश की रक्षा करना और जीवन में मनोविनोद बनाये रखना है. यही इसका मूल दर्शन है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)