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चिंताजनक है भोजन की बरबादी

जिस तरह हम हरित क्रांति लाये, उसी तरह भोजन की बरबादी रोकने के लिए क्रांति लाने की जरूरत है. यदि यह क्रांति होती है तो धरती, पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन, जैव-विविधता, वन भूमि, सभी को पहुंचने वाला नुकसान कम हो सकता है.

भोजन की बरबादी को लेकर संयुक्त राष्ट्र ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में प्रतिदिन लगभग एक अरब थालियां बरबाद होती हैं, यानी हर व्यक्ति एक वर्ष में औसतन 79 किलो खाना बर्बाद करता है. जो चिंता का विषय है. यह भी माना जाता है कि दुनिया में कुल पैदावार का लगभग 30 प्रतिशत बरबाद हो जाता है. अकेले अमेरिका में जितना भोजन बरबाद होता है, वह उप-सहारा अफ्रीका की भोजन की जरूरतों को पूरा कर सकता है. वहीं इटली में होने वाली बरबादी से इथियोपिया में भोजन की कमी पूरी हो सकती है. खाने की यह बरबादी कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में एक-तिहाई का योगदान देती है. रिपोर्ट में भोजन की बरबादी के कारण उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों का जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण और पोषण पर पड़ने वाले प्रभावों पर भी चर्चा है. यह अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है, क्योंकि खाद्य सुरक्षा के साथ पर्यावरण बचाने की बात भी हो रही है.

उपरोक्त चर्चा के साथ हमें दुनिया में खाद्य पदार्थों की उपलब्धता के बारे में भी जानने की आवश्यकता है. अभी दुनिया में करीब 7.8 अरब लोग हैं, जिनके 2050 तक नौ अरब तक पहुंचने का अनुमान है और दुनिया में जो पैदावार हो रही है, वह 14 अरब लोगों के लिए पर्याप्त है. इसका अर्थ हुआ कि आज हम अपनी जरूरत से दोगुना उत्पादन कर रहे हैं. यह अलग बात है कि समाज के एक हिस्से को इसकी अधिक मात्रा उपलब्ध है, जबकि दूसरा इसकी कमी से जूझ रहा है. जहां 30 प्रतिशत बच्चे मोटापे से ग्रस्त हैं, वहीं दुनिया की 12 प्रतिशत जनसंख्या के पास पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं है. इसे समझने के बाद हमें इस समस्या के समाधान के लिए दो तरह से प्रयास करने होंगे.

पहली, दुनिया के बिगड़ते पर्यावरण को देखते हुए हम पैदावार उपजाने पर कम जोर दें और दूसरी, भोजन की बरबादी रोकने का प्रयास करें. इससे हम दुनिया की जरूरत को तत्काल पूरा कर सकते हैं. इस प्रकार भोजन की बरबादी भी कम होगी और हमें जरूरत से अधिक पैदावार भी नहीं उपजाना पड़ेगा. यहां हरित क्रांति की तरह ही एक और क्रांति की जरूरत है. जिस तरह हम हरित क्रांति लाये, उसी तरह भोजन की बरबादी रोकने के लिए क्रांति लाने की जरूरत है. यदि यह क्रांति होती है तो धरती, पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन, जैव-विविधता, वन भूमि, सभी को पहुंचने वाला नुकसान कम हो सकता है. इस कार्य में सभी देशों को सहभागिता करनी होगी, विशेषकर विकासशील देशों को, क्योंकि यहां अधिक क्षति पहुंच रही है.

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भोजन की जो बरबादी होती है, उसमें 60 प्रतिशत घरेलू स्तर पर, 13 प्रतिशत आपूर्ति-शृंखला में होती है. सबसे कम बरबादी रिटेल, यानी दुकानों में होती है. ग्रामीण क्षेत्रों में भोजन की सबसे कम बर्बादी की बात भी रिपोर्ट में है. इसका कारण हमारा धर्म है, जो हमें बताता है कि हम अपने साथ-साथ पशु-पक्षियों के भी भोजन का ध्यान रखें. वास्तव में जब हम खाद्य सुरक्षा की बात करते हैं, तो इसमें मनुष्य के साथ पशु-पक्षी भी शामिल होते हैं. गांवों में लोग मनुष्यों के साथ गाय, कुत्ते, पक्षी आदि की खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित करते हैं. इतना ही नहीं, यहां खाद्य पदार्थों के न खाये जाने वाले भाग समेत बचा हुआ भाेजन भी बर्बाद नहीं होता, बल्कि उनका कंपोस्ट बना दिया जाता है. ऐसे में हमें भोजन की बरबादी रोकने के लिए ग्रामीण क्षेत्र से सीखने की आवश्यकता है.

शहरों की मानसिकता में पशु-पक्षियों को खिलाने की बात है ही नहीं. वास्तव में, गांवों में मनुष्य और पशु-पक्षियों के बीच का संबंध घनिष्ठ होता है. यह भी कहा जाता है कि खाने की बरबादी गरीब लोग करते हैं, जो सच नहीं है. बरबादी वो करते हैं, जो शहरों में रहते हैं, जो पढ़े-लिखे हैं. गरीब, ग्रामीण तो अपना बचा रहा है. रिपोर्ट में जी-20 के देश (ऑस्ट्रेलिया, जापान, यूके, अमेरिका) और यूरोपीय संघ द्वारा भोजन की बरबादी को घरेलू स्तर पर रोकने में सफलता प्राप्त करने की भी चर्चा है. कनाडा और सऊदी अरब ने भी इस मामले में अच्छी सफलता प्राप्त की है. बाकी के देशों को अभी इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाने की जरूरत है.

इन बातों के अलावा यहां कुछ और महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा जरूरी है. पहली बात, हमारे यहां कहा जाता है कि देश का 40 प्रतिशत भोजन बरबाद हो जाता है. तीस वर्ष पूर्व भी यही बात कही जाती थी और आज भी यही बात कही जा रही है. पर किसी को नहीं पता कि इस आकलन का आधार क्या है. लुधियाना स्थित आइसीएआर के संस्थान सीफेट (सीआइपीएचइटी) द्वारा भारत में भोजन की बर्बादी पर किये गये एक अध्ययन में सामने आया है कि खाद्यान्न के भंडारण में सबसे कम नुकसान धान और गेहूं का होता है. सबसे अधिक बरबादी फल और सब्जियों की होती है. इसमें भी कुछ फल, जैसे अमरूद का सबसे अधिक नुकसान होता है, क्योंकि उसे पक्षी बहुत खाते हैं.

इसी तरह टमाटर भी बहुत बरबाद होता है. इससे पता चलता है कि हमारे देश में 40 प्रतिशत का जो आंकड़ा है, वह गलत है. दूसरी बात, शहरों में बरबादी को रोकने के लिए जागरूकता बढ़ाने की ओर भी ध्यान देना होगा. इसमें मीडिया की भूमिका और सेलिब्रिटीज- विशेषकर फिल्म स्टार, क्रिकेटर- की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है. उन्हें समाज को जागरूक करना चाहिए कि भोजन को बरबाद होने से कैसे बचाया जाए. रही बात सरकार की, तो वह अपनी नीतियों में फूड वेस्टेज रोकने की बातें तो करती है, परंतु उसे दूसरी वेस्टेज की तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है. खाद्य पदार्थों की बर्बादी दो तरीके से होती है. एक जो भोजन खाने के बाद बर्बाद हुआ. दूसरी बरबादी आपूर्ति-शृंखला में होती है, उसे रोकने के लिए भी कदम उठाने की जरूरत है.

तीसरी बात, प्रोसेसिंग के समय खाद्य पदार्थों के बर्बाद होने से तो अपशिष्ट उत्पन्न होते ही हैं, जिस पैकेट में ये पदार्थ बिक्री के लिए रखे गये होते हैं, वे भी अपशिष्ट ही बनते हैं. जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता है. इन्हें कैसे रोका जाए, इसे लेकर अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है. कुल मिलाकर देखा जाए, तो संयुक्त राष्ट्र ने एकदम समय पर यह चेतावनी दी है. मुझे लगता है कि हमें अपनी नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए, विशेषकर पोषण सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन को लेकर. अंत में, हमें पैदावार बढ़ाने पर जोर देने की जरूरत नहीं है. आज हम जितनी फसल उपजा रहे हैं, अगर उसी को सहेज लें, तो दूसरी हरित क्रांति की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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