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अत्यधिक जल दोहन के कारण भूजल स्तर में गिरावट

Drinking Water Crisis : अत्यधिक जल दोहन तथा अकुशल प्रबंधन के कारण भूजल स्तर में निरंतर गिरावट आ रही है. जल संसाधन मंत्रालय के एकीकृत जल संसाधन विकास के लिए राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक जल की जरूरत 1,180 अरब घन मीटर होने की संभावना है. जबकि वर्तमान में देश में जल की उपलब्धता 1,137 अरब घन मीटर है. वर्ष 2030 तक देश की 40 फीसदी आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं होगा. जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है और लगभग 70 प्रतिशत जलस्रोत प्रदूषित हैं.

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Drinking Water Crisis : धरती पर पानी की जरूरत बरसात से पूरी होती है या ग्लेशियर से. इन दोनों जलस्रोतों का गणित अब डगमगा रहा है. पानी के लिए बरसात के भरोसे बैठना भी अब अनिश्चित-सा हो गया है. अभी से अधिकांश छोटी नदियां सूख गयी हैं और इसका सीधा असर तालाब-कुओं-बावड़ियों पर दिख रहा है. भारत में विश्व की कुल आबादी का करीब 18 फीसदी हिस्सा निवास करता है, जबकि पीने योग्य जल संसाधनों का मात्र चार फीसदी भाग ही उपलब्ध है.

अत्यधिक जल दोहन तथा अकुशल प्रबंधन के कारण भूजल स्तर में निरंतर गिरावट आ रही है. जल संसाधन मंत्रालय के एकीकृत जल संसाधन विकास के लिए राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक जल की जरूरत 1,180 अरब घन मीटर होने की संभावना है. जबकि वर्तमान में देश में जल की उपलब्धता 1,137 अरब घन मीटर है. वर्ष 2030 तक देश की 40 फीसदी आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं होगा. जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है और लगभग 70 प्रतिशत जलस्रोत प्रदूषित हैं.


भारी-भरकम बजट, राहत और नलकूप आदि जल संकट का निदान नहीं हैं. करोड़ों-अरबों की लागत से बने बांध सौ साल भी नहीं चलते, जबकि हमारे पारंपरिक ज्ञान से बनी जल संरचनाएं आज भी पानीदार हैं. न देश के बड़े हिस्से के लिए अल्प वर्षा नयी बात है, न वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना. पर बीते पांच दशक के दौरान आधुनिकता की आंधी में दफन हो गये हजारों चंदेल-बुंदेलकालीन तालाबों और पारंपरिक जल प्रणालियों के चलते ये हालात बने. मध्य प्रदेश के तीन लाख की आबादी वाले बुरहानपुर शहर में 18 लाख लीटर पानी रोज एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से वितरित होता है, जिसका निर्माण 1615 में किया गया था. यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी मिसाल है, जिसे ‘भंडारा’ कहा जाता है.

हमारे पुरखों ने देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बारिश को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं. घरों की जरूरत के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था. हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं. ये वर्षाजल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटे तालाब की मानिंद होते हैं. तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भू-स्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में लोकप्रिय रही है. एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘नाड़ा’ या ‘बंधा’ अब देखने को नहीं मिल रही है.

कुंड और बावड़ियां महज जल संरक्षण के साधन नहीं, हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं. आज ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाये जाने की जरूरत है. बीते दो सौ साल से लोग भूख या पानी के कारण पुश्तैनी घरों-पिंडों से पलायन कर गये. उसके पहले का समाज तो हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था. हमारे देखते-देखते घरों के आंगन, गांव के पनघट व कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएं गायब हुए हैं. बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ.


पहले का समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करने व उसे किफायत से खर्च करने को अपनी संस्कृति मानता था. राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे. कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल जैसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे, जो आधुनिकता की आंधी में गुम हो गये. गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे. हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाख में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है, जो शाम को बहता है. वहां के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है.


तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई-कई तालाबों की शृंखला में मोड़कर हर बूंद को बड़ी नदी व वहां से समुद्र में बेजा होने से रोकने की अनूठी परंपरा थी. उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिये इस प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं. पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुंदेलखंड में भी पहाड़ी के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाले जंगल और एक तालाब के ओने से नाली निकाल कर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने व ऐसे पांच-पांच तालाबों की कतार बनाने की परंपरा चंदेल राजाओं के काल से रही है. वहां तालाबों के आंतरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बंधान फोड़े गये, तालाबों पर कॉलोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गयी, पेड़ उजाड़ दिये गये. इसके कारण जब जल देवता रूठे, तो पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किये गये. सभी उपाय हताश रहे, तो आज फिर तालाबों की याद आ रही है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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