संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर संविधान के संरक्षक कहे जाने वाले जज अग्निपरीक्षा के दौर से गुजर रहे हैं. तमिलनाडु में सात रुपये का हिसाब नहीं देने पर भ्रष्टाचार मानते हुए रोडवेज बस के कंडक्टर को बर्खास्त कर दिया गया था. पर अब करोड़ों रुपये की नकदी के जलने और सबूतों को नष्ट करने के मामले में पुलिस, जज और सरकार के मौन से लोगों में बहुत आक्रोश है. जांच समिति के आदेश के बाद दिल्ली पुलिस के पांच अधिकारियों के फोन जब्त कर लिये गये हैं. लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय के जज यशवंत वर्मा, उनके परिवारजन, स्टाफ और अन्य लोगों के मोबाइल फोन जब्त करने के कोई समाचार नहीं हैं. जबकि संवैधानिक सुरक्षा और सम्मान हासिल करने वाले जजों की आम जनता से ज्यादा जवाबदेही होनी चाहिए. विदित हो कि जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास के एक स्टोर रूम में 14 मार्च को आग लगी थी. इस दौरान उनके घर से बड़ी मात्रा में कैश मिला था.
उधर पंचनामा नहीं बनने की वजह से अहम सबूत गायब हो गये, जिससे कई महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल पा रहे हैं. इस घटना का वीडियो किसने बनाया और एक सप्ताह तक पुलिस, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में चुप्पी क्यों साधी? आगजनी के बाद कमरे और परिसर को सील क्यों नहीं किया गया? अगले दिन किसके आदेश से अधजली बोरियों का मलबा हटाया गया? वीडियो के साथ सीसीटीवी फुटेज क्यों नहीं जारी किये गये? इस मामले से जुड़ी कई कानूनी पेचीदगियों पर भी बहस हो रही है. क्या जजों को आपराधिक मामलों में भी संवैधानिक सुरक्षा हासिल है? अगर कोई साजिश है, तो उसके खिलाफ जस्टिस वर्मा खुलकर शिकायत क्यों नहीं कर रहे? जांच रिपोर्ट से जज यदि दोषी पाये गये, तो उन्हें कब और कैसे दंडित किया जायेगा? संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्यकाल के दौरान उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो सकता? लेकिन जजों को पुरानी आइपीसी और नये बीएनएस कानून के तहत सीमित कानूनी सुरक्षा हासिल है. इसके अनुसार, न्यायिक कार्यों के मामले में जजों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो सकता. सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय से भी जजों को अतिरिक्त सुरक्षा कवर मिला हुआ है. इसीलिए चीफ जस्टिस की मंजूरी के बगैर जजों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं हो सकती. इस सुरक्षा कवच में चीफ जस्टिस की मंजूरी नहीं मिलने से भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में रिटायरमेंट के बाद भी जजों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो पाता.
भ्रष्टाचार के बढ़ते कैंसर से निपटने के लिए अन्ना आंदोलन के बाद लोकपाल कानून बनाया गया था. लोकपाल के निर्णय के अनुसार, हाईकोर्ट के जजों को लोक सेवक मानते हुए भ्रष्टाचार के मामलों की प्राथमिक जांच हो सकती है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए लोकपाल के उस आदेश पर रोक लगा दी है. संविधान में महाभियोग की प्रक्रिया इतनी कठिन है कि संविधान लागू होने के 75 वर्ष बाद भी अभी तक किसी जज को महाभियोग के अनुसार नहीं हटाया गया है. इसमें भी पेंच लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय दिया कि महाभियोग के पहले जज के खिलाफ आंतरिक जांच जरूरी है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के ही दो जजों को आंतरिक जांच में भ्रष्टाचार के लिए दोषी पाया गया था. लेकिन उनके खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई नहीं हुई और उन्होंने त्यागपत्र भी नहीं दिया.
उधर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने सीबीआइ और इडी जांच के साथ जज के पुराने फैसलों के रिव्यू की मांग की है. लेकिन बार अध्यक्ष ने जो जस्टिस वर्मा के घर से 15 करोड़ की रकम मिलने का दावा किया है, उसके स्रोत और विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं. जस्टिस वर्मा ने मामले को साजिश बताते हुए यह सफाई दी है कि जिस स्टोर रूम में आग लगी, वह उनके आवास का हिस्सा नहीं था. जस्टिस वर्मा के अनुसार, तीन महीने पहले भी सीबीआइ के पुराने मामले में उनकी छवि खराब करने के लिए सोशल मीडिया में प्रयास हुए थे. जस्टिस वर्मा के खिलाफ चीफ जस्टिस की मंजूरी के बगैर एफआइआर दर्ज नहीं हो सकती. लेकिन उनके खिलाफ यदि कोई साजिश हुई है, तो उन्हें पुलिस में शिकायत दर्ज करा जांच की मांग करनी चाहिए. यदि बाहरी लोगों ने जज के स्टोर रूम में पैसा रखा है, तो चीफ जस्टिस सीबीआइ और इडी को जांच की मंजूरी भी दे सकते हैं. यह एक उलझन भरा जटिल मामला बन गया है. पुलिस में अभी तक कोई एफआइआर दर्ज नहीं होने के बावजूद सीडीआर, सीसीटीवी अन्य दूसरे बिंदुओं पर आंतरिक जांच समिति की मदद कर रहे हैं. ऐसे में यह आंतरिक जांच की बजाय तीन जजों के सुपरविजन में पुलिस और दूसरी एजेंसियों की एसआइटी जांच जैसी मानी जा सकती है.
तीन वर्ष पहले कानून मंत्री ने संसद में जानकारी दी थी कि जजों और न्यायपालिका के खिलाफ 1,631 से अधिक शिकायतें दर्ज हुई हैं. देश में जजों के भ्रष्टाचार या गैर-कानूनी कार्यों की जांच के लिए कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है. संविधान में जजों की नियुक्ति के मामले में कॉलेजियम का जिक्र नहीं है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों से कॉलेजियम सर्वोपरि बन गया. इस बीच उपराष्ट्रपति धनखड़ की पहल के बाद एनजेएसी कानून को नये तरीके से लागू करने की मांग पर पक्ष-विपक्ष की सियासत भी शुरू हो रही है. जजों की नियुक्ति, ट्रांसफर, प्रमोशन, अनुशासनात्मक कार्रवाई आदि के बारे में स्पष्ट विधिक प्रावधान होना जरूरी है. क्योंकि इस विवाद से न्यायपालिका और जजों की छवि को बड़ा धक्का लगा है. उसके लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) में जरूरी बदलाव तुरंत होने चाहिए. वर्ष 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने संकल्प लिया था कि सभी जज अपनी संपत्ति को सार्वजनिक तौर पर घोषित करेंगे. लेकिन अभी तक सर्वोच्च न्यायालय के सभी जज और 18 उच्च न्यायालय के जजों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं किया है. देश में 25 उच्च न्यायालय के कुल 763 जजों में से केवल 57 ने ही अपनी संपत्ति का ब्यौरा दिया है. सात वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों ने प्रेस कांफ्रेंस कर न्यायिक व्यवस्था की सड़ांध को उजागर किया था. लेकिन उसके बाद भी सिस्टम में कोई संस्थागत बदलाव नहीं हुआ. न्याय के तराजू पर सभी को तौलने वाले जजों को खुद भी पारदर्शिता के साथ न्यायिक अनुशासन की कसौटी पर खरा उतरने की जरूरत है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)