Congress Party : कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. लगातार तीन लोकसभा चुनावों में सीटों के आंकड़े को 100 पार भी ले जाने में विफल रहने के अलावा उसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी हार का सामना करना पड़ा है. वैचारिक स्तर पर भी पार्टी ऊहापोह की स्थिति में है कि दलितों और मुस्लिमों के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को किस तरह साधा जाये. वैसे कांग्रेस अतीत में भी वैचारिक अप्रोच से ज्यादा चमत्कारी चेहरों पर निर्भर रही है, फिर वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी हों या राजीव गांधी. आज के बदतर हालात में कांग्रेस को एक और चमत्कारी चेहरे की तलाश है और उसकी यह तलाश प्रियंका गांधी वाड्रा पर आकर खत्म हो सकती है. लेकिन अहमदाबाद में हो रहे पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में प्रियंका गांधी की अनुपस्थिति पार्टी के कार्यकर्ताओं, समर्थकों के लिए निराशाजनक और आश्चर्यजनक होने के साथ रहस्यमयी भी रही. बताया गया है कि प्रियंका की तबीयत ठीक नहीं है और वह अमेरिका गयी हैं. इसे रहस्यमयी इसीलिए माना जा रहा है, क्योंकि गांधी परिवार की त्रयी (सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा) के बीच हमेशा से एक मजबूत बॉन्डिंग रही है. अगर परिवार के किसी सदस्य की तबीयत इतनी खराब है कि उसे अमेरिका जाना पड़े, तो सोनिया और राहुल गांधी पूरे दो दिन के अधिवेशन में कैसे हिस्सा ले सकते हैं, यह उन्हें करीब से जानने वालों के लिए अचरज की बात है.
अधिवेशन वैसे तो सिर्फ दो दिन का था, लेकिन इसकी तैयारियों में काफी वक्त देना पड़ता है. कुछ लोग इसके पीछे राजनीतिक पहलू भी तलाश रहे हैं. यह मामला रहस्यपूर्ण इसलिए भी है कि न तो कांग्रेस की तरफ और न खुद प्रियंका की ओर से कोई ऐसा बयान जारी हुआ है, जो उनकी गैर मौजूदगी की वजह को साफ कर सके. पार्टी में यह मामला इसलिए जोर पकड़ रहा है, क्योंकि काफी लंबे अरसे से देखने में आया है कि प्रियंका कांग्रेस की महासचिव तो हैं, लेकिन उनकी कोई भूमिका स्पष्ट नहीं की गयी है. वह केरल के वायनाड से सांसद भी हैं, पर वक्फ संशोधन बिल पर चर्चा के दौरान भी वह संसद में मौजूद नहीं थीं. इसे यूडीएफ में शामिल इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आइयूएमएल) ने मुद्दा भी बनाया था. पिछले छह-सात महीने से कांग्रेस की महासचिव होने के बावजूद प्रियंका को अब तक कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं दी गयी है.
उन्हें न तो किसी राज्य का प्रभारी बनाया गया है और न ही संगठन में कोई बड़ा काम सौंपा गया है. कांग्रेस में कई सहायक संगठन हैं, जैसे यूथ कांग्रेस, महिला कांग्रेस, सेवादल आदि. संगठन में और भी अनेक महत्वपूर्ण कार्य होते हैं. हर महासचिव के नाम के आगे एक निश्चित भूमिका परिभाषित होती है. लेकिन प्रियंका के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है. जब कांग्रेस अपनी सियासी मौजूदगी दर्ज करवाने के लिए पहले से भी ज्यादा संघर्षशील है, तब उसे ऐसे नेता की दरकार है, जो प्रभावशाली हो, जनता से सीधे संवाद कर सकता हो और सबसे बड़ी बात जो गांधी परिवार से हो. प्रियंका में ये सभी चीजें हैं, इसके बावजूद संगठन में उनकी सेवाएं न लेना न केवल आश्चर्यजनक है, बल्कि कांग्रेस नेतृत्व की अक्षमता को भी दर्शाता है. कांग्रेस के भीतर अनेक लोगों का मानना रहा है कि पार्टी में एक ऐसा इलेक्शन मैनेजमेंट सिस्टम हो, जो साल के 365 दिन, चौबीसों घंटे काम करे और इसकी जिम्मेदारी प्रियंका वाड्रा को सौंपी जाये.
राज्यों में चुनाव हो या लोकसभा के चुनाव, सारी तैयारियां इसी मैनेजमेंट सिस्टम के तहत की जाएं. कुछ महीने बाद बिहार में सबसे महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव हैं. उसके बाद केरल, असम और पश्चिम बंगाल के चुनाव होंगे. तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के चुनाव भी काफी अहम रहेंगे. वैसे कांग्रेस में सवाल तो राहुल गांधी की भूमिका को लेकर भी है. भारत यात्रा के बाद से उनका ज्यादातर वक्त महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक्स पर ट्वीट करने और समय-समय पर किसी कॉन्फ्रेंस वगैरह में भाषण देने में बीता है. फिर मल्लिकार्जुन खरगे को कैसे एक ‘अध्यक्ष की तरह’ की भूमिका निभानी चाहिए, इस पर भी विस्मयादिबोधक चिह्न लगते रहे हैं.
अधिवेशन में राहुल गांधी का यह कहना चौंकाता है कि दलितों और मुसलमानों को साथ लेकर चलने की वजह से कांग्रेस अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को नजरअंदाज कर रही है. सच यह है कि कांगेस का दलितों-आदिवासियों और मुसलमानों के साथ रिश्ता पिछड़े वर्ग की कीमत पर नहीं था. एक लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में, जहां हर वोट मायने रखता है, आप एक समुदाय को दूसरे समुदाय के साथ मुकाबले में नहीं रख सकते. सबको साथ लेकर चलना होता है. राहुल गांधी ने महिलाओं का समर्थन हासिल करने की बात जरूर कही है, लेकिन आज की राजनीति में इसका मतलब केवल महिलाओं के बैंक खातों में कैश ट्रांसफर करना ही माना जाने लगा है. कांग्रेस इससे आगे क्या कर सकती है, इस पर पार्टी को अपना नजरिया पूरी तरह स्पष्ट करना चाहिए.
कांग्रेस का गुजरात में अधिवेशन 64 साल के बाद हुआ है. लेकिन कांग्रेस के साथ समस्या यह है कि उसके पास गुजराती मूल का ऐसा कोई भी नेता नहीं है, जो मुख्यमंत्री पद का सशक्त दावेदार हो. वर्ष 2018 में गुजरात में हुए चुनावों में कांटे का मुकाबला रहा था. लेकिन अगले पांच साल के दौरान कांगेस वहां अपना प्रभाव बनाये रखने में विफल रही और 2023 के विधानसभा चुनाव में उसे बुरी तरह मात खानी पड़ी. ऐसे में राहुल गांधी को शतरंज के उस खेल को याद रखने की जरूरत है कि अगर आप राजा को घेर लेते हैं, तो जीत आपकी हो जाती है.
पारंपरिक लड़ाइयों में भी ऐसा होता था कि राजा या सेनापति के हारते ही पूरी सेना समर्पण कर देती थी और युद्ध खत्म हो जाता था. क्या कांग्रेस या राहुल अपनी लड़ाई को गुजरात में फोकस कर ‘राजा’ को घेरने का प्रयास करेंगे? और क्या यह अधिवेशन इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है? पर सवाल यह है कि अधिवेशन में पारित प्रस्ताव में वल्लभभाई पटेल ‘हमारे सरदार’ हैं, कहने भर से क्या पार्टी फिर से गुजरात में उनकी विरासत पर अधिकार जमा सकेगी? यह सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस अपना ‘पॉलिटिकल एक्टिविज्म’ किस हद तक बना कर रखती है, और इस पर भी कि सियासत की बिसात पर वह व्यावहारिक चुनावी राजनीति की अपनी गोटियां कितनी कुशलता से चल पाती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)