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मीडिया की आजादी और अंकुश

जरूरत इस बात की है कि सरकार, संसद, न्यायपालिका व मीडिया नयी आचार संहिता तैयार करें. नया मीडिया आयोग या परिषद बने.

आलोक मेहता

वरिष्ठ पत्रकार

alokmehta7@hotmail.com

एक बार फिर गंभीर विवाद. प्रिंट, टीवी चैनल, सीरियल, फिल्म व सोशल मीडिया को कितनी आजादी और कितना नियंत्रण? नियम-कानून, आचार संहिताओं, निर्देशों के बावजूद समस्याएं बढ़ रही हैं. आधुनिकतम टेक्नोलॉजी ने नियंत्रण कठिन कर दिया है. सत्ता व्यवस्था ही नहीं, अपराधी, माफिया, आतंकी समूह से भी दबाव, विदेशी ताकतों का प्रलोभन और प्रभाव पूरे देश के लिए खतरनाक बन रहा है. इन परिस्थितियों में विश्वसनीयता तथा भविष्य की चिंता स्वाभाविक है.

मुंबई उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों मीडिया को लेकर ऐतिहासिक फैसला दिया है, जिस पर स्वयं मीडिया ने प्रमुखता से नहीं बोला, दिखाया और छापा. अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की घटना से संबंधित दो टीवी चैनलों के कवरेज पर दायर जनहित याचिका पर आये इस अहम फैसले की सबसे अच्छी बात यह है कि मीडिया कवरेज पर कई आपत्तियों को रेखांकित करने के बावजूद उन्होंने स्वतंत्रता पर प्रहार कर कोई सजा नहीं दी. उन्होंने मीडिया की स्वतंत्रता और सीमाओं की विस्तार से व्याख्या कर कुछ मार्गदर्शी नियम भी सुझाये हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि सुशांत सिंह प्रकरण में मीडिया के व्यापक कवरेज से सीबीआइ जांच संभव हुई. पुलिस के कामकाज और नेताओं की विश्वसनीयता कम होने से परिवार और समाज ऐसे मामलों में विस्तार से जांच चाहता है. पिछले दशकों में जेसिका लाल और प्रियदर्शिनी हत्याकांड में मीडिया कवरेज से अपराधियों को दंडित कराने में सहायता मिली.

आरुषि तलवार की हत्या को भी मीडिया ने बहुत जोर से उठाया, लेकिन मीडिया के एक वर्ग ने जांच एजेंसी और अदालत से पहले निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी भी कर दी. ऐसा ही भ्रष्टाचार के कुछ मामलों में लगातार हो रहा है. समुचित प्रमाणों के बिना सीधे किसी नेता, अधिकारी अथवा व्यक्ति और संस्था को दोषी बताना अदालत कैसे उचित मानेगी?

हाल के वर्षों में सत्ताधारियों द्वारा कुछ खास लोगों, पूंजीपतियों और कंपनियों को लाभ पहुंचाने के कई गंभीर आरोप सामने आये. संभव है कुछ सही भी हों. पर्याप्त प्रमाण अदालत तक पहुंचने पर दोषियों को दंड भी दिया गया है, अन्यथा लालू यादव, ओमप्रकाश चौटाला जैसे नेता जेल में नहीं होते. इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर राफेल विमान खरीद से लेकर संसद से पारित कृषि कानूनों के आधार पर केवल चार-पांच पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने तथा हर निर्माण में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को निरंतर कुप्रचारित कर जनता के साथ दुनियाभर में भारतीय व्यवस्था को बदनाम किया जा रहा है.

केवल प्रतिपक्ष के बयान कहकर क्या मीडिया अपनी मर्यादा और आचार संहिता के पालन से बच सकता है? यह वैसा ही है, जैसे कोई डॉक्टर किसी नेता के बयान या सलाह के आधार पर इलाज करने लगे अथवा अदालतें प्रमाण के बिना सजा सुनाने लगे. जिन आरोपों के प्रमाण उपलब्ध हों, उन्हें रिपोर्ट की तरह पेश कर कार्रवाई का काम अदालत पर ही छोड़ा जाना चाहिए.

मीडिया की समस्या बढ़ने का एक कारण यह भी है कि तथ्य व खबर को आरोपात्मक टिप्पणियों के घालमेल के साथ पाठक और दर्शकों के सामने रख दिया जाता है. दूसरा, गंभीर मुद्दे को अधिक प्रसार के लोभ में सनसनीखेज ढंग से उछाला जाता है. अमेरिका अथवा यूरोप में खोजी खबर के लिए महीनों तक दस्तावेजों को जुटाकर कानूनी राय लेकर प्रस्तुत किया जाता है.

अपने देश में अधिकांश सूचनाएं किसी पक्ष या व्यक्ति विशेष के अपने निहित उद्देश्य से मिली होती हैं अथवा जांच-पड़ताल के लिए समय और धन खर्च नहीं किया जाता है. यही कारण है कि सुशांत सिंह मामले में न्यायाधीशों ने मृत व्यक्ति के चरित्र हनन जैसे आरोपों के प्रसारण को अनुचित बताया. उनका यह निर्देश सही है कि ऐसे मामलों में तथ्य सार्वजनिक किये जा सकते है, लेकिन उन पर लोगों को बैठाकर टीवी बहस व आरोपबाजी अनुचित है.

उन्होंने यह भी ध्यान दिलाया कि ब्रिटेन में केबल टीवी एक्ट का प्राधिकरण है. भारत में जब तक ऐसी नियामक संस्था नहीं हो, तब तक भारतीय प्रेस परिषद द्वारा निर्धारित नियमों, आचार संहिता का पालन टीवी व डिजिटल मीडिया में भी किया जाये. संभवतः माननीय अदालत को यह जानकारी नहीं होगी कि फिलहाल प्रिंट मीडिया का प्रभावशाली वर्ग ही प्रेस परिषद के नियमों की परवाह नहीं कर रहा है क्योंकि उसके पास दंड देने का कोई अधिकार नहीं है, जबकि प्रेस परिषद के अध्यक्ष सेवानिवृत्त वरिष्ठ न्यायाधीश ही होते हैं.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार हर नागरिक के लिए है. पत्रकार उसी अधिकार का उपयोग करते हैं. नागरिक के लिए मनुष्यता, नैतिकता, सच्चाई और ईमानदारी के साथ कर्तव्य के सामान्य सिद्धांत लागू होते हैं. वे पत्रकारों पर भी लागू होने चाहिए. सरकार से नियंत्रित कतई नहीं हो, लेकिन संसद, न्यायपालिका और पत्रकार बिरादरी द्वारा बनायी गयी पंचायत यानी मीडिया परिषद जैसी संस्था की लक्ष्मण रेखा का पालन तो हो.

न्यायपालिका के सामने मानहानि कानून के दुरुपयोग का मुद्दा उठाया जाता रहा है. इससे ईमानदार मीडियाकर्मी को नेता, अधिकारी या अपराधी तंग करते हैं. अदालतों में मामले वर्षों तक लंबित रहते हैं. इसलिए जरूरत इस बात की है कि सरकार, संसद, न्यायपालिका व मीडिया नयी आचार संहिता तैयार करें. नया मीडिया आयोग या परिषद बने. गोपनीयता व मानहानि के कानूनों की समीक्षा हो. तभी तो सही अर्थों में भारतीय गणतंत्र को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ साबित किया जा सकेगा.

Posted By : Sameer Oraon

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