Bihar Assembly Elections 2025 : बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों के एलान के साथ ही राज्य में सियासी रणभूमि सज गयी है. राज्य में मतदान दो चरणों में- छह और 11 नवंबर को होने वाले हैं, जबकि 14 नवंबर को नतीजे आ जायेंगे. गौरतलब है कि 243 सदस्यीय राज्य विधानसभा का कार्यकाल 22 नवंबर को समाप्त हो रहा है. हालांकि राज्य में पिछले विधानसभा चुनाव में मतदान तीन चरणों में हुए थे और कुल मतदान 56.93 प्रतिशत रहा था.
चूंकि बिहार में सत्ता की लड़ाई का शंखनाद हो चुका है, ऐसे में, दोनों प्रमुख गठबंधनों- राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और महागठबंधन के योद्धाओं ने कमर कस ली है. हालांकि इस बार निगाहें प्रशांत किशोर और उनके नये राजनीतिक दल ‘जन सुराज पार्टी’ पर भी टिकी हुई हैं. सवाल यह है कि क्या यह पार्टी बिहार की पारंपरिक जातिगत राजनीति में सेंध लगाकर किंगमेकर बन सकेगी या अन्य नवोदित राजनीतिक दलों की तरह भीड़ में गुम हो जायेगी? जहां एनडीए ऑपरेशन सिंदूर और अवैध घुसपैठ जैसे भावनात्मक मुद्दों के साथ बिहार के चुनाव मैदान में उतरा है, वहीं विपक्षी महागठबंधन मतदाता सूचियों में कथित ‘वोट चोरी’ के मुद्दे को लेकर आक्रामक है.
वोट चोरी का यह कथित मामला काफी संवेदनशील है, क्योंकि लोकतंत्र में वोट ही मतदाताओं का सबसे बड़ा अधिकार और सबसे अहम हथियार होता है. अगर वैध मतदाता मतदान से वंचित रह जायें, तो यह केवल एक प्रशासनिक त्रुटि नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गहरा प्रश्नचिह्न भी है. कई रिपोर्टों में यह कहा गया है कि जिन हजारों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब हैं, उनमें से अधिकांश मुस्लिम बहुल इलाकों से हैं. यह स्थिति महागठबंधन के लिए चिंता का विषय है. ऐसा इसलिए, क्योंकि यही इलाके उसके पारंपरिक वोट बैंक माने जाते रहे हैं.
कथित वोट चोरी का मसला कांग्रेस, खासकर राहुल गांधी के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई भी है, क्योंकि अगर बिहार में एनडीए को बहुमत मिल जाता है, तो वोट चोरी का यह कथित मसला स्वाभाविक रूप से ओझल हो जायेगा, क्योंकि लोकतंत्र में ‘जो जीता वही सिकंदर’ होता है. फिर आने वाले महीनों में पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु और केरल जैसे जिन राज्यों में चुनाव होंगे, वहां भी इस मुद्दे का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा. लेकिन अगर बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे इसके उलट रहे, तो फिर यह मुद्दा निश्चित रूप से राष्ट्रीय बहस का केंद्र बन सकता है और इसका सियासी फायदा अन्य राज्यों के चुनावों में भी कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को मिल सकता है.
विगत कुछ वर्षों से राज्य विधानसभाओं के चुनावों में रेवड़ियां बांटना और खासकर महिलाओं को फोकस में रखकर योजनाओं की घोषणा और क्रियान्वयन करना एक तरह की राजनीतिक परंपरा ही बन गया है और इसके निर्वाह में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी पीछे नहीं हैं. यशवंत देशमुख और अमिताभ तिवारी जैसे चुनाव सर्वेक्षकों का मानना है कि इसके बलबूते नीतीश कुमार फिर से राज्य में बढ़त हासिल कर सकते हैं. लेकिन प्रशांत किशोर इस धारणा को चुनौती दे रहे हैं. उनका कहना है कि आंध्र प्रदेश और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्रियों, क्रमश: जगन मोहन रेड्डी और अशोक गहलोत ने भी इस तरह की चुनावी रेवड़ियां बांटी थीं, उसके बावजूद चुनावी नतीजे उनकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं रहे थे. यही स्थिति ओडिशा में नवीन पटनायक की भी रही, जबकि वह तो काफी लोकप्रिय भी थे. प्रशांत किशोर का मानना है कि महज लुभावनी घोषणाओं से चुनाव नहीं जीते जाते, बल्कि अब जनता राजनीतिक दलों और सरकारों की विश्वसनीयता भी देखती है.
इसका एक अर्थ यह भी है कि नीतीश कुमार की पार्टी जदयू का प्रदर्शन यह तय करेगा कि राज्य में सरकार एनडीए की बनेगी या महागठबंधन की. प्रशांत किशोर कई बार यह कह चुके हैं कि अगर नीतीश कुमार की पार्टी को इस विधानसभा चुनाव में 25 से ज्यादा सीटें मिल गयीं, तो वह राजनीति से संन्यास ले लेंगे. चूंकि जदयू और भाजपा, दोनों कुल विधानसभा सीटों के करीब आधे-आधे पर चुनाव लड़ेंगे, ऐसे में, प्रशांत किशोर की भविष्यवाणी अगर सही साबित होती है, तो इसका मतलब होगा कि एनडीए सत्ता से बाहर हो जायेगा. जहां तक स्वयं प्रशांत किशोर की ‘जन सुराज पार्टी’ का सवाल है, तो यह चुनाव उसके लिए पहली अग्नि परीक्षा होगी. इससे पहले हमने कई राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान तीसरे राजनीतिक दल की भूमिका देखी है.
जैसे, दिल्ली में आम आदमी पार्टी हो या आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव की तेलुगू देशम पार्टी, ये मुख्य दलों के इतर तीसरी शक्ति के रूप में इतनी तेजी से उभरीं कि अपने-अपने राज्यों में सत्ता के शिखर तक भी पहुंच गयीं. लेकिन बिहार में किसी नये राजनीतिक दल ने रातोंरात कोई कामयाबी हासिल की हो, इस तरह का कोई इतिहास नहीं रहा है. बिहार की राजनीति में एक और फैक्टर मुस्लिम मतदाताओं का है. राज्य में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या काफी अधिक- यानी कुल मतदाताओं का लगभग 17 प्रतिशत है. प्रश्न यह है कि क्या इस चुनाव में बिहार के मतदाता ‘जन सुराज पार्टी’ की ओर रुख करेंगे?
प्रशांत किशोर युवाओं, शिक्षित व सवर्ण वर्गों और शहरी मतदाताओं को आकर्षित करने में लगे हुए हैं. लेकिन सच्चाई यह भी है कि मुस्लिम मतदाता पारंपरिक रूप से महागठबंधन के साथ रहे हैं. पिछली बार के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने सीमांचल में दम-खम दिखाया था और उसके कारण महागठबंधन को काफी नुकसान झेलना पड़ा था. बल्कि कहना चाहिए कि ओवैसी की वजह से ही तब बिहार में महागठबंधन की सरकार नहीं बन पायी थी. तो ऐसे में, क्या मुस्लिम मतदाता एक ऐसी राजनीतिक पार्टी पर भरोसा करके वोटों में विभाजन की ओर जायेंगे, जिसका कोई ठोस अतीत नहीं है? लेकिन इन सबके बावजूद अगर प्रशांत किशोर अपनी ‘जन सुराज पार्टी’ को एक प्रभावशाली ताकत बना पाये, तो बिहार की राजनीति में एक नये अध्याय की शुरुआत हो सकती है.
भारत में जनमत संग्रह की परंपरा नहीं रही है, लेकिन बिहार में होने जा रहा विधानसभा चुनाव किसी जनमत संग्रह जैसा ही माना जा रहा है, विशेष रूप से, कथित वोट चोरी के आरोपों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति तथा हालिया ऑपरेशन सिंदूर की पृष्ठभूमि में. हालांकि इस संदर्भ में यह याद रखा जाना चाहिए कि इससे पहले बिहार के चुनाव केवल स्थानीय मुद्दों तक सीमित नहीं रहे, बल्कि राष्ट्रीय विमर्श की उनमें बड़ी भूमिका रही है. यह भी याद रखने की जरूरत है कि बिहार का चुनावी नतीजा राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

