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भरे पेट की दुनिया में भूखे बच्चे
डॉ सय्यद मुबीन जेहरा शिक्षाविद् भूख इंसान को कितना मजबूर करती है, यह तो वही जानते हैं जो एक वक्त की रोटी के लिए मारे-मारे फिरते हैं. पेट की यह आग इंसान से क्या कुछ नहीं करवाती है. हम सब दिन रात मेहनत करते हैं और जिंदगी की गाड़ी को खींचते हुए आगे बढ़ते हैं. […]
डॉ सय्यद मुबीन जेहरा
शिक्षाविद्
भूख इंसान को कितना मजबूर करती है, यह तो वही जानते हैं जो एक वक्त की रोटी के लिए मारे-मारे फिरते हैं. पेट की यह आग इंसान से क्या कुछ नहीं करवाती है. हम सब दिन रात मेहनत करते हैं और जिंदगी की गाड़ी को खींचते हुए आगे बढ़ते हैं. हमारे समाज में कुछ लोग अपनी मरजी के अनुसार जो कुछ खाना चाहते हैं, वे न सिर्फ खाते हैं, बल्कि बरबाद करने से भी नहीं चूकते. मगर क्या हम ऐसा करते हुए एक पल को भी सोचते हैं कि हमारी दुनिया में लाखों-करोड़ों ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो खाने की लज्जत तो छोड़िये, एक वक्त के खाने को भी तरसते हैं? ऐसे बच्चे भी हैं, जिनको यह भी नहीं मालूम कि भरपेट खाना क्या होता है. जिन्हें यह तक नहीं खबर है कि दुनिया में अलग-अलग तरह के बेशुमार पकवान होते हैं. ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने भूख और प्यास दोनों को बहुत पास से देखा ही नहीं, बल्कि उनके साथ जीवन भी जिया है.
यह उस दुनिया की कहानी है, जहां खाने को लेकर न जाने कितने टीवी चैनल हैं, जहां विज्ञापनों में एक से बढ़ कर एक खाने और मसाले के स्वाद को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है.
अफसोस की बात तो यह है कि न सिर्फ इंसानों के खाने को खूब दिखाया जाता है, बल्कि जानवर के खानों को भी इस तरह पेश किया जाता है कि अचंभा होता है कि क्या हम किसी संवेदनशील दुनिया का अंग हैं भी या नहीं! या यह दुनिया उन असंवेदनशील लोगों की दुनिया है, जिसके बारे में साहिर लुधियानवी ने कहा था कि ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है!
कुछ दिनों पहले आयी एक रिपोर्ट में भूखे बच्चों की व्यथा बतायी गयी है. इससे पता चलता है कि हमारी दुनिया में कुछ लोगों को बहुत कुछ मिल गया है, वे हर तरह का विकास कर चुके हैं, लेकिन वहीं कुछ लोग आज भी दाने-दाने के लिए भटक रहे हैं. यह रिपोर्ट इसी पर निशाना साधती है कि इस प्रगति ने मानवता को बहुत पीछे छोड़ दिया है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट यह बताती है कि भारत में पांच साल से कम उम्र के 58 प्रतिशत बच्चे एनेमिक हैं. इसका यह मतलब है कि इन बच्चों के खून में हीमोग्लोबिन की कमी है और इसके नतीजे में ये बच्चे थकान, इन्फेक्शन और कई बिमारियों से जूझ रहे हैं.
इस सर्वे में करीब 38 लाख घरों के बच्चों को शामिल किया गया है. यह सर्वे बताता है कि तकरीबन 38 प्रतिशत बच्चे स्टंटेड यानी शारीरिक विकास की कमी के शिकार हैं. यानी ये बच्चे इतने कमजोर हैं कि किसी भी तरह से उनका शरीर बढ़ नहीं पा रहा है. इस रिपोर्ट के अनुसार, इस समस्या से तकरीबन उत्तर प्रदेश, झारखंड तथा बिहार के करीब 50 प्रतिशत बच्चे पीड़ित हैं.
यह पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों का आंकड़ा है. इसका अर्थ है देश का एक तिहाई बचपन अपनी जवानी तक नहीं पहुंच पा रहा है. इस में से 36 प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के अनुसार जितने वजन के होने चाहिए, उतने नहीं हैं.
इससे पता चलता है कि हमारे मुल्क का 50 प्रतिशत से अधिक बचपन अपने अधिकार की रोटी, सब्जी, दाल, चावल, फल, खीर और मिठाई तक से बहुत दूर है. खीर और मिठाई का हवाला इसलिए, क्योंकि त्योहारों में तो बच्चों की मिठाई की आशा तो जरूर पूरी होनी चाहिए. लेकिन, इस सर्वे से यह पता चलता है कि मिठाई की क्या बात की जाये कि जब ढंग से दो वक्त की रोटी भी इनके नसीब में नहीं हो पाती है.
जब बच्चों में पोषण की कमी का सर्वे किया गया, तो वहां कुछ सुधार तो नजर आया, लेकिन जब इन बच्चों में पायी जानेवाली पोषण की कमी के कारणों को खोजा गया, तो पता चला कि गरीबी ही इसका सबसे बड़ा कारण है.
विश्व स्वस्थ संगठन का कहना है कि इसकी बुनियाद में शक्तिहीन सामाजिक और आर्थिक हालात हैं. इसी वजह से भरपेट खाना नसीब नहीं होता है और मासूम बच्चे सेहत से दूर होते चले जाते हैं. इसका अर्थ यह है कि समाज और सरकारें अपनी जिम्मेवारियां निभाने में नाकाम हैं. अगर खुल कर कहें, तो बच्चों में पोषण की कमी का मतलब है कि समाज एक-दूसरे के बारे में बिल्कुल नहीं सोच रहा है. पहले के समय में अगर कोई बच्चा किसी पंसारी की दूकान पर थोड़े पैसों का कोई सामान लेने जाता था, तो दुकानदार यह समझ जाता था कि इसके घर में कुछ खाने को नहीं है.
वह बच्चे को अपने पास बिठा कर कुछ खिलाता भी था और फिर उसे इतना सामान देकर भेजता था कि उसके घर में एक वक्त को कुछ बन जाये. मगर अब तो कैशलेश और पेटीएम का जमाना है. अगर रकम है, तो सामान मिलेगा, वरना कौन देख रहा है कि किसी ने कब से कुछ नहीं खाया है. इसलिए भूखे लोगों का पेट भरने की कोई नहीं सोच रहा है. भूख स्वयं ही कूड़े में फेंके गये खाने में से अपने लिए कुछ चुन ले तो ठीक है, वरना खाना बरबाद करनेवालों को कहां किसी की इतनी फिक्र है.
अभी जो पांच राज्यों में चुनाव हुए हैं, क्या किसी राजनीतिक दल ने आप से इस पर बात की?
कब्रस्तान, ईद, दिवाली की बात हुई, गधों तक पर बात हुई, मगर हमारे असल मुद्दों पर किसी भी नेता या पार्टी को सोचने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई कि वे ऐसी रिपोर्टों पर नजर डालें और अपने राज्य के बच्चों के स्वास्थ का भी कुछ ध्यान रखें. जुमलों और एक-दूसरे पर बेवजह के हमलों से सभी दल सियासी रोटी सेंकने की कोशिश तो करते रहे, लेकिन किसी भूखे के घर में रोटी परोसने से वे बचते रहे.
एक बात तो स्पष्ट है कि देश में जो भी नीतियां भूख को मिटाने के लिए बनायी जा रही हैं, वे या तो बेअसर हैं या फिर नीतियां बनानेवालों की नजर से यह समस्या गुजरी ही नहीं है.
सवाल सिर्फ सरकार से नहीं है. सवाल तो उनसे भी है, जो अपने आसपास कमजोर बचपन को जवान होने से पहले बूढ़ा होते देख कर भी नहीं देखते हैं. क्या हमारा सिर उस वक्त शर्म से नहीं झुकना चाहिए, जब हमें यह पता चलता है कि इस भारत मां के 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे खून की कमी के कारण से कमजोरी और बीमारी का शिकार हैं?
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