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दक्षिण में भाजपा का बड़ा दावं
आर राजगोपालन राजनीतिक विश्लेषक भाजपा क्या साल 2019 के लोकसभा चुनाव में दक्षिण भारतीय राज्यों में अपनी जगह बना सकेगी? इस प्रयास में पार्टी ने उस हिस्से में सक्रिय क्षेत्रीय दलों के अध्ययन के लिए एक आंतरिक वैचारिक समूह का गठन किया है. उसका लक्ष्य दक्षिण भारत की 130 सीटों में से 50-60 पर जीत […]
आर राजगोपालन
राजनीतिक विश्लेषक
भाजपा क्या साल 2019 के लोकसभा चुनाव में दक्षिण भारतीय राज्यों में अपनी जगह बना सकेगी? इस प्रयास में पार्टी ने उस हिस्से में सक्रिय क्षेत्रीय दलों के अध्ययन के लिए एक आंतरिक वैचारिक समूह का गठन किया है. उसका लक्ष्य दक्षिण भारत की 130 सीटों में से 50-60 पर जीत हासिल करना है. तमिलनाडु में 39, आंध्र प्रदेश में 25, तेलंगाना में 17, केरल में 20 तथा कर्नाटक में 28 लोकसभा की सीटें हैं. इस लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा वैचारिक समूह स्थापित करना एक दिलचस्प प्रकरण है.
दक्षिण भारत में 15 क्षेत्रीय पार्टियां हैं. या तो अमित शाह इनसे मित्रता बनायेंगे या फिर उनमें बंटवारा करा देंगे, ताकि दोनों पक्षों की निर्भरता राष्ट्रीय पार्टी पर बनी रहेगी. भाजपा नेताओं की मानें, तो एक ही राष्ट्रीय पार्टी है- भाजपा. यह दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 2014 में ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के नारे का उद्घोष करने से दो दशक पहले ही दक्षिणी राज्यों ने कांग्रेस को उखाड़ फेंका है. विशेष रूप से तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में किसी राष्ट्रीय पार्टी का खास वजूद नहीं है.
भाजपा अध्यक्ष ने अरुण जेटली, राजनाथ सिंह जैसे बड़े नेताओं को दक्षिणी राज्यों पर ध्यान देने की जिम्मेवारी दी है. हर महीने वरिष्ठ नेताओं को किसी राज्य की राजधानी और उसके दो शहरों की यात्रा करनी है. यह अमित शाह का निर्देश है. इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि दक्षिण भारत में सक्रिय किसी भी पार्टी, चाहे वह कांग्रेस हो, द्रमुक हो, तेलुगु देशम हो या तेलंगाना राज्य समिति हो, के युवा नेताओं में प्रधानमंत्री मोदी के प्रति आकर्षण है. मसलन, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के पुत्र रामा राव, मोदी का अनुसरण करते हैं.
वे राज्य के सूचना तकनीक मंत्री भी हैं. इसी तरह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के बेटे एन लोकेश भी मोदी के बड़े प्रशंसक हैं. लोकेश को हाल ही में राज्य मंत्रिमंडल में जगह मिली है.
अब हर राज्य का बारी-बारी से जायजा लेते हैं. तमिलनाडु में चार बड़ी राज्य-स्तरीय पार्टियां हैं- अन्ना द्रमुक, द्रमुक, पीएमके और डीएमडीके. यह बताने की जरूरत नहीं है कि भाजपा या कांग्रेस अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि वे इनमें से किसी भी पार्टी के साथ अपनी शर्तों के साथ जुड़ जायें. अब सवाल यह है कि क्या दोनों द्रविड़ पार्टियों से समान दूरी रखने की 2014 की मोदी की रणनीति आगे भी चलेगी? मोदी युवा मतदाताओं पर ध्यान देते हैं. तमिलनाडु में मोदी के पास 15 फीसदी वोट हैं. इसमें भाजपा का ठोस हिस्सा 10 फीसदी है, जबकि मोदी की विकास की राजनीति पर जोर देने के कारण अलग से पांच फीसदी वोट जुड़ते हैं. उनके प्रदर्शन का भी सकारात्मक असर है. भाजपा सरकार के ऊपर बड़े घोटालों का दाग नहीं है. यह भावना तमिलनाडु में बहुत प्रभावी है.
जयललिता की मृत्यु के बाद राज्य में पकड़ बनाने के लिए भाजपा की बेताबी बढ़ी है. दरअसल, जयललिता के अन्ना द्रमुक के पास 75 फीसदी हिंदुत्व वोट बैंक है. वे द्रविड़ राजनीति को हिंदू मतों के ऊपर रखती थीं. निश्चित ही अन्ना द्रमुक के वोटों का एक हिस्सा भाजपा के खाते में जायेगा. लेकिन इसकी मात्रा और ताकत का निर्णय लोकसभा चुनाव के समय ही हो सकेगा.
यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि कर्नाटक से भाजपा को बड़ी बढ़त मिलेगी. वहां भाजपा को 23-25 फीसदी मत मिलते रहे हैं. वहां विधानसभा के चुनाव भी अगले साल के शुरू में होंगे, जिसमें अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग जरूर गुल खिलायेगी. राज्य से पार्टी के पास अभी 17 सांसद हैं. इसे पार्टी का राज्य नेतृत्व 20 तक ले जाना चाहता है. कर्नाटक के विभिन्न सामाजिक समुदायों से समर्थन हासिल करने के इरादे से ही अमित शाह एसएम कृष्णा, एमवी चंद्रशेखर मूर्ति, सीके जाफर शरीफ जैसे कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं को पार्टी में शामिल करने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं. वोक्कालिंगा और लिंगायत समुदाय काफी मजबूत हैं और इनमें पकड़ बनाने की कवायद में पार्टी लगी हुई है.
बीते चुनाव में केरल में भाजपा के वोट बढ़े हैं, पर उसके लिए मुश्किल यह है कि यहां माकपा जैसी वामपंथी पार्टियों का मुख्य जनाधार हिंदू समुदाय में है. इस राज्य से भाजपा को दो या तीन सीटें मिल सकती हैं. अमित शाह इस संख्या को पांच तक ले जाने की इच्छा रखते हैं. जहां तक आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की बात है, तो इन दोनों राज्यों से कुल 42 लोकसभा सदस्य चुन कर आते हैं. भाजपा का लक्ष्य 10 सीटों का है और वह कम-से-कम सात-आठ सीटें जीतना चाहेगी. यदि तेलुगु देशम और भाजपा का मौजूदा संबंध बरकरार रहता है, तो इसकी पूरी संभावना है कि दोनों ही लाभ की स्थिति में रहेंगे. इसका कारण बहुत सीधा है. कांग्रेस की स्थिति कमजोर है, लेकिन वाइएसआर कांग्रेस का आंध्र प्रदेश में जनाधार है. तेलंगाना में भाजपा सत्तारूढ़ टीआरएस को नजदीक लाने की कोशिश में है. लेकिन, अल्पसंख्यक वोटों के छिटकने की आशंका के चलते टीआरएस का भाजपा के साथ गंठबंधन बनाना मुमकिन नहीं लगता है. लेकिन चुनाव के बाद इस बात की पूरी संभावना है कि दोनों दल एक-साथ आ जायें. इस राज्य में भी एक जाति के ऊपर दूसरी जाति को तरजीह देने का अमित शाह के स्टाइल का सोशल इंजीनियरिंग काम में लाया जायेगा. ऐसा लगता है कि भाजपा तेलंगाना से अधिक ध्यान आंध्र प्रदेश पर देगी.
भाजपा के लिए दक्षिणी राज्यों से बड़ा समर्थन हासिल करने के अमित शाह के इस सपने की परीक्षा राष्ट्रपति चुनाव में होगी. विशेष रूप से नरेंद्र मोदी क्या रणनीति अपनाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा. अपने दक्षिण भारत के अभियान के क्रम में विचार समूह बनाने की बात से यह संकेत मिलता है कि भाजपा राष्ट्रपति चुनाव के लिए भी कारगर रणनीति पर काम कर रही है.
बहरहाल, चतुर रणनीतिकार अमित शाह को अपनी चाल को सावधानी से चलना होगा. भाजपा के लिए दक्षिण भारत खतरों से भरी चुनौती है.
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