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खतरे में मानवाधिकार

आप्रवासियों, शरणार्थियों और जातीय अल्पसंख्यक समूहों के खिलाफ पनपते आक्रोश की वजह सेयूरोपीय समूह की संरचना बदल रही है, चीन में वकीलों और मानवाधिकारों की हिमायत करनेवालों पर कार्रवाई की कवायद आम है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी के लिए अब रूसी कानून भी मौजूद है. खुद को लोकतांत्रिक मूल्यों का सबसे बड़ा संरक्षक बतानेवाले […]

आप्रवासियों, शरणार्थियों और जातीय अल्पसंख्यक समूहों के खिलाफ पनपते आक्रोश की वजह सेयूरोपीय समूह की संरचना बदल रही है, चीन में वकीलों और मानवाधिकारों की हिमायत करनेवालों पर कार्रवाई की कवायद आम है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी के लिए अब रूसी कानून भी मौजूद है. खुद को लोकतांत्रिक मूल्यों का सबसे बड़ा संरक्षक बतानेवाले अमेरिका के मुखिया जजों और पत्रकारों को खुलेआम धमका रहे हैं. ‘वापस जाओ’ चीखते हुए भारतीय और अन्य समुदाय के लोगों पर जानलेवा हमला अमेरिकी सत्ता के बदले मिजाज के अपरोक्ष संरक्षण का ही परिणाम है. फिलीपींस, सीरिया, दक्षिण सूडान, यमन, इराक आदि देशों में जारी हिंसा विकसित सभ्यताओं पर गंभीर प्रश्न तो है ही, लेकिन अमेरिका समेत दुनिया के जिम्मेवार राष्ट्रों में जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ पनपती घृणा बड़ी आशंकाओं और बुरे भविष्य की आहट है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त जाइद रैद अल हुसैन ने वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए दुनियाभर में मानवाधिकार पर बढ़ते खतरों पर चिंता जाहिर की है. यह विकसित राष्ट्रों के लिए एक चुनौती है. जाइद ने कहा है कि ऐसी समस्याओं के विकराल होने से पहले प्रभावशाली नेतृत्व को आगे आना होगा. ट्रंप प्रशासन की नयी आव्रजन नीतियां और छह मुसलिम देशों के नागरिकों पर प्रतिबंध के फैसले चिंताजनक हैं.
ट्रंप प्रशासन उच्च शिक्षा और कौशल प्राप्त पेशेवरों की वरीयता देने की बात करता है, लेकिन कम कुशल पेशेवरों के लिए उनका दुर्भावनापूर्ण रवैया अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है. छह देशों के नागरिकों पर प्रतिबंध, वीजा नियमों में बदलाव, सीमा पर नियंत्रण, पर्यटकों को धमकाना और प्रवासियों की हत्या और उन पर हमले जैसे मामले न केवल अमेरिकी समाज व अर्थव्यवस्था के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए बेचैनी का सबब हैं. विभिन्न देशों के नागरिकों के खिलाफ अभियान और आप्रवासियों को वापस भेजने की धमकी अंतरराष्ट्रीय नियमों का खुला उल्लंघन है.
आतंकवाद, भेदभाव और आर्थिक हितों का मुद्दा अक्रामकता के साथ उठा कर बहुसंख्यकवाद और संरक्षणवाद की राजनीति करनेवाले राजनेताओं को मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता दिखानी चाहिए, अन्यथा विश्व व्यवस्था अशांति और परस्पर द्वंद्व के अंधकारमय रास्ते का रुख कर सकती है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी ऐसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध आवाज उठाना चाहिए, क्योंकि वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में कुछ देश अपनी मनमानी को मनमर्जी से नहीं थोप सकते हैं.

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