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साग तो एक बहाना है
मिथिलेश कुमार राय युवा रचनाकार गांव से लेकर शहर तक सरदी का यह सीजन साग का सीजन है. थाली में एक साग न हो, तो भोजन प्रेमियों का मन नहीं मानता. शहरों में तो अब मंडी चले जाइये, जो चाहे वही साग उपलब्ध होता है, मगर गांव में साग हासिल करने के लिए खेत-खेत भटकना […]
मिथिलेश कुमार राय
युवा रचनाकार
गांव से लेकर शहर तक सरदी का यह सीजन साग का सीजन है. थाली में एक साग न हो, तो भोजन प्रेमियों का मन नहीं मानता. शहरों में तो अब मंडी चले जाइये, जो चाहे वही साग उपलब्ध होता है, मगर गांव में साग हासिल करने के लिए खेत-खेत भटकना पड़ता है.
साग का प्रेम सबसे अधिक महिलाओं को होता है, खास तौर पर नवयुवतियों को. साग पाने के लिए वे इस मौसम में गांवों में आस-पास के खेतों में भटकती रहती हैं. इससे उन्हें साग तो मिल ही जाता है, लड़कियों की रंग-बिरंगी पोशाकें और उन्मुक्त हंसी की वजह से गांवों में बेमौसम बसंत आ जाता है. कई बार तो मुझे यह भी लगता है कि साग सिर्फ साग भर नहीं है, बल्कि यह एक तरह की स्वतंत्रता का पर्याय भी है. स्वाद तो है ही, साग एक बहाना भी है.
इन दिनों स्कूलों में छुट्टी के बाद खेतों में लड़कियों का राज हो जाता है. सब्जियों के इस मौसम में गेहूं के खेतों में उगे बथुआ के साग और उसके बगल के खेतों में लहलहाते खेसारी साग, सरसों साग उन्हें खूब-खूब आकर्षित करती हैं.
स्कूल से आने के बाद लड़कियां खेतों के बीहड़ में उतरने के लिए हड़बड़ाई रहती हैं. कभी-कभी इस झुंड में कोई नवविवाहिता या फिर बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल हो जाती हैं. लेकिन, जिस दिन ऐसा होता है, उस दिन लड़कियों की मस्ती पर असर पड़ जाता है. पैरों में रस्सी जैसा कुछ उलझ जाता है. क्योंकि वे इन्हें नहर के उस पार नहीं जाने देतीं. चौकीदार बन जाती हैं और आंखें तरेरने लगती हैं. गांव की भी पाबंदी है- साग ही तो तोड़ने जाना है. इन खेतों में क्या साग की कमी है कि नहर के पार जायेगी, खबरदार! नहर से इधर ही तोड़ कर वापस घर आ जाओ.
वहीं दूसरी ओर लड़कियां अपने पैरों की रस्सी खोल खूब कुलांचे भरना चाहती हैं. नहर के उस पार तक. उस पार जहां, तक नजरें जाती हैं, जहां तक सिर्फ हरियाली ही हरियाली नजर आती है. हरियाली से आंखों को खूब सकून मिलता है. मन को कितनी शांति मिलती है. जोर-जोर से हंसो. खूब चिल्लाओ. कोई टोकनेवाला नहीं. अब तो सरसों में भी फूल आने लगे हैं. कितना अच्छा लगता है.
आजकल गेहूं के खेतों में दर्जन-के-दर्जन लड़कियां उतर कर बथुआ का साग खोंटने लगी हैं. तभी किसी ने कुछ ऐसा कहा कि हंसी ने बांध तोड़ दी. वातावरण खिलखिलाने लगा. लेकिन, तभी बुढ़िया माई ने टोक दिया, तो ठहाकों पर लगाम लग गयी. यही नहीं सुहाता बस!
बथुआ खोटते-खोटते लड़कियां इधर-उधर देखती हैं और बगल के खेसारी के खेत में छलांग लगा देती हैं. हाथ बढ़ा कर थोड़ी सी धनिया नोच लेती हैं. सरसों का पत्ता भी एक-आध मुट्ठी तोड़ लेती हैं. लेकिन, तभी दूर से एक आवाज आती है. यह खेत मालिक की आवाज है. जिसे सुन कर लड़कियां दौड़ कर फिर बथुआ खोंटने बैठ जाती हैं. बथुआ एकदम फ्री है. खेसारी, धनिया, सरसों पर टैक्स लगा है जैसे! लेकिन, आंख बचा कर खोटने से उन्हें कौन रोक सकता है भला! खोंइछा में नीचे खेसारी और ऊपर बथुआ. पकड़े जाने पर दूर से खोंइछा में पड़ा बथुआ दिखा कर खिलखिलाती हुई घर की ओर दुलक पड़ती हैं.
बथुआ के साग को चंगेरा में डाल कर घर के छप्पर पर रात भर शीत में और खेसारी पका कर सुबह तक बासी होने के लिए छोड़ दिया गया है. बासी खेसारी और अदरकवाले बथुआ के साग का कोई जवाब ही नहीं है. ऊपर से धनिया की चटनी. फिर उसके साथ भात हो या रोटी, उससे पेट तो भर जाता है, लेकिन मन नहीं भरता!
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