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नेहरू को बिसराना भूल होगी
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार पिछले साल जब सरकार ने योजना आयोग की जगह ‘नेशनल इंस्टिट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया’ (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान) यानी ‘नीति’ आयोग बनाने की घोषणा की थी, तब कुछ लोगों ने इसे छह दशक से चले आ रहे नेहरूवादी समाजवाद की समाप्ति के रूप में लिया. यह तय करने की जरूरत है […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
पिछले साल जब सरकार ने योजना आयोग की जगह ‘नेशनल इंस्टिट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया’ (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान) यानी ‘नीति’ आयोग बनाने की घोषणा की थी, तब कुछ लोगों ने इसे छह दशक से चले आ रहे नेहरूवादी समाजवाद की समाप्ति के रूप में लिया. यह तय करने की जरूरत है कि वह राजनीतिक प्रतिशोध था या भारतीय रूपांतरण के नये फॉर्मूले की खोज. वह एक संस्था की समाप्ति जरूर थी, पर क्या योजना की जरूरत खत्म हो गयी? नेहरू का हो या मोदी का ‘विजन’ या दृष्टि की जरूरत हमें तब भी थी और आज भी है.
भाजपा और कांग्रेस के राजनीतिक संग्राम में हम नेहरू- एक व्यक्ति, राजनेता, आर्थिक विचारक और श्रेष्ठ लेखक को भूल जाते हैं. आर्थिक दृष्टि से वर्ष 1991 में भारत ने जो रास्ता पकड़ा वह नेहरू के रास्ते से अलग था. बावजूद इसके कि पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह दोनों नेहरू की विरासत वाली पार्टी के नेता थे. यह बदलाव इंदिरा गांधी के दौर में ही शुरू हो गया था. पिछले साल नवंबर में नेहरू की 125वीं जयंती के अवसर पर देश ने इस विषय पर विमर्श के मौके को गंवा दिया.
नेहरू की विरासत के रूप में चार बातें आज भी सार्थक हैं. एक- मिश्रित अर्थव्यवस्था, दो- योजना यानी ‘दृष्टि’, तीन- विदेश नीति, चार- कौशल या ज्ञान. इसके साथ बहुजातीय, बहुधर्मी भारत की परिकल्पना में भी उनका योगदान है. सबसे बड़ा योगदान है लोकतांत्रिक आजादी को कायम करने का. उदारीकरण के 25 साल के बाद भी हम मिश्रित अर्थव्यवस्था से बाहर नहीं आ पाये हैं. वर्ष 2007-2008 की मंदी के वक्त भारत के राष्ट्रीयकृत बैंकों की उपादेयता साबित हुई थी.
निजीकरण को प्राथमिकता मिलने के बावजूद इंफ्रास्ट्रक्चर में सार्वजनिक क्षेत्र का दबदबा कायम है. अंतरिक्ष अनुसंधान और आणविक ऊर्जा में निजी क्षेत्र का प्रवेश नहीं हुआ है. रक्षा उद्योग में निजी क्षेत्र की भागीदारी अब शुरू हो रही है. बिजली और इस्पात में सार्वजनिक क्षेत्र का ही बोलबाला है. लेकिन, देश ने नेहरू के रास्ते से हट कर चलना शुरू किया है.
नेहरू ऐसे दौर में प्रधानमंत्री रहे, जब देश परिभाषित हो रहा था. उनका जोर औद्योगीकरण पर था. उन्हें मालूम था कि देश में निजी पूंजी का विकास नहीं हो पाया है. इसलिए सार्वजनिक उद्यमों की जरूरत थी. नेहरू-महालनबीस रणनीति प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने पर केंद्रित थी. तब अर्थव्यवस्था की संवृद्धि शून्य के आसपास थी. नेहरूवादी व्यवस्था ने देश को 4 फीसदी के आसपास की गति दी, जो वैश्विक औसत के आसपास थी. इस लिहाज से यह गति चीन जैसे देश से बेहतर थी, जिसने अपनी विकास यात्रा हमारी आजादी के दो साल बाद शुरू की थी.
भारत के पास नेहरू थे और चीन के पास माओ और चाऊ एन लाई. दोनों देशों की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया. बावजूद इसके कि गति बेहतर थी. नेहरू के नेतृत्व ने मध्यवर्ग को तैयार करने पर जोर दिया, जबकि चीन ने बुनियादी विकास पर. शिक्षा और स्वास्थ्य में चीन ने हमें काफी पीछे छोड़ दिया.
आज भारत सॉफ्टवेयर, फार्मास्युटिकल्स या चिकित्सा के क्षेत्र में आगे है, तो इसके पीछे आजादी के पहले दो दशकों की नीतियां हैं. पर, नेहरू ने प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा की. वर्ष 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा, भारत समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न करने की कीमत चुका रहा है. नेहरू ने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना, जिससे आइआइटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए. पर, प्राइमरी शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा.
नेहरू को देश के एकीकरण का श्रेय जाता है. भारत जैसे बिखरे राष्ट्र राज्य को एक धागे से बांधना आसान काम नहीं था. राज्य पुनर्गठन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी, जिसे उन्होंने निभाया. नेहरू का जोर आर्थिक पुनर्गठन पर था. आलोचक मानते हैं कि यदि उनका समाजवाद पर अतिशय जोर नहीं होता और निजी क्षेत्र को बढ़ने का मौका दिया गया होता, तो आज स्थितियां बेहतर होतीं. उन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता पर जितना जोर दिया, उतना आर्थिक स्वतंत्रता पर नहीं दिया.
नेहरू की बड़ी देन उनकी विदेश नीति है, जो बावजूद तमाम उतार-चढ़ाव के उस खांचे से बाहर नहीं आयी है. गुटनिरपेक्ष आंदोलन निष्प्राण है, पर भारतीय विदेश नीति उस धारणा से जुड़ी है. अमेरिका के साथ रिश्तों में बेहतरी के बावजूद. उनके जीवन के अंतिम दो साल चीनी हमले से पैदा हुई उदासी के बीच गुजरे थे. उसके लिए नेहरू को धिक्कारा गया. नेहरू की कोशिश थी कि किसी किस्म का समझौता हो जाये. विचार आज भी वही है. बहरहाल कश्मीर और चीन नेहरू की दो बड़ी विफलताएं हैं.
देश के लिए वे प्रासंगिक नहीं, तो अप्रासंगिक भी नहीं हैं. उनकी मूल अवधारणा के सहारे आधुनिक भारत के सपने बुने गये. आप उनसे लाख असहमत हों, पर इसमें दो राय नहीं कि श्रेष्ठ विचारक, करिश्माई राजनेता और बेहतरीन लेखक के रूप में नेहरू अपनी जगह अद्वितीय थे.
नेहरू की जरूरत इस वक्त सबसे ज्यादा कांग्रेस को है. उनके बाद से ही कांग्रेस पार्टी का पराभव शुरू हुआ. वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी का उदय नेहरूवादी परंपरा में नहीं था. 1962 के हमले के बाद वे व्यक्तिगत रूप से व्यथित थे. बीमार भी रहने लगे. पार्टी में उनकी जगह लेनेवालों की मनोकामनाएं उजागर हो रही थीं. नेहरू के व्यक्तिगत करिश्मे से कांग्रेस तीन चुनाव जीत चुकी थी, पर लगभग हर राज्य में बड़े नेताओं के बीच रस्साकसी चलने लगी थी. सरकारी कुर्सी पर सबकी निगाहें थीं.
कामराज प्लान नेहरू जी की मंजूरी से आया, जिसके तहत छह केंद्रीय मंत्रियों और छह राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफे दिये. बावजूद इसके कांग्रेस कमजोर होती गयी. नेहरू के दौर में कांग्रेस के पास प्रदेश स्तर पर ऊंचे कद वाले नेता थे. तब से अब तक पार्टी में काफी फर्क आया है. अब पार्टी केंद्र संचालित है. नेहरू की कांग्रेस में आम राय बनाने का एक मैकेनिज्म था, जिसमें छोटा कार्यकर्ता भी शामिल था. अब वह नहीं है. नेहरू को आप बिसरा दें, पर नेहरू-दृष्टि को बिसराना भूल होगी.
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