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भोपाल : ‘मुठभेड़’ पर उठते सवाल

भोपाल के सेंट्रल जेल से आठ आरोपित आतंकियों के भागने और कुछ घंटों बाद कथित मुठभेड़ में मारे जाने की घटना पर उठ रहे सवालों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता. मध्य प्रदेश सरकार और पुलिस अधिकारियों की ओर से मीडिया में आ रहे विरोधाभासी बयानों तथा घटनास्थल के कुछ वीडियो से कुछ […]

भोपाल के सेंट्रल जेल से आठ आरोपित आतंकियों के भागने और कुछ घंटों बाद कथित मुठभेड़ में मारे जाने की घटना पर उठ रहे सवालों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता. मध्य प्रदेश सरकार और पुलिस अधिकारियों की ओर से मीडिया में आ रहे विरोधाभासी बयानों तथा घटनास्थल के कुछ वीडियो से कुछ सवालों पर संदेह और गहरा रहे हैं.
पहला सवाल तो यही है कि एक अति सुरक्षित जेल से इतने कैदी भागने में सफल कैसे हो गये और एक सुरक्षाकर्मी की हत्या के बाद भी अन्य प्रहरियों को इसकी भनक क्यों नहीं लगी? क्लोज सर्किट टीवी, 32 फीट ऊंची दीवार और बिजली के तारों के रहते उनका आसानी से फरार हो जाना न सिर्फ जेल की लचर सुरक्षा व्यवस्था का प्रमाण है, बल्कि एक बड़े षड्यंत्र का संदेह भी पैदा करता है, जिसमें कुछ कर्मचारियों की मिलीभगत हो सकती है.
कैदियों के हाथ तालों की चाबी लगने और अलग-अलग बैरकों से निकल कर इकट्ठा होने से भी जेल प्रशासन की लापरवाही साबित होती है. इस दौरान जेल में मौजूद दो हजार से अधिक कैदियों और अन्य सुरक्षाकर्मियों की ओर से कोई सुगबुगाहट न होने को भी समझ पाना मुश्किल है. पुलिस महानिरीक्षक उन कैदियों के पास पिस्तौल और चाकू होने की बात कह रहे हैं, जबकि राज्य के गृह मंत्री ने पहले कहा था कि उन्होंने बर्तनों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. वीडियो की बात करें, तो किसी पुलिसकर्मी या नागरिक द्वारा इतने करीब से मुठभेड़ को मोबाइल में लाइव रिकॉर्ड करना भी हैरान करता है.
आखिर यह कैसी पेशेवर गंभीरता है? इन वीडियो से तो कतई नहीं लगता है कि भागे कैदी पुलिसकर्मियों पर गोली चला रहे थे. मृतकों की तलाशी के दौरान दस्ताने पहनने जैसी सावधानियां तक नहीं बरती गयीं. सवाल यह भी है कि यदि मृतकों को जेल से निकलने के बाद किसी ने कपड़े, घड़ियां और जूते उपलब्ध कराये, तो फिर उन्हें भागने के लिए वाहन क्यों नहीं मिले और वे घंटों बाद भी एक साथ ही क्यों थे? ऐसे सवालों के सही जवाब कैदियों के जेल से भागने से लेकर मारे जाने तक के पूरे घटनाक्रम की व्यापक और निष्पक्ष जांच से ही सामने आ सकेंगे. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 1997 में कहा था कि हर मुठभेड़ की न्यायिक जांच जरूरी है.
2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐसे मामलों में मानवाधिकार आयोग के तहत निष्पक्ष जांच कराने का सुझाव दिया था. फिलहाल सबकी नजरें एनआइए के जांच दल पर हैं, जिसे इस प्रकरण की जांच का जिम्मा सौंपा गया है. उम्मीद करनी चाहिए कि जांच से संदेह के बादल छंटेंगे.

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