17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

हिंदी का फील गुड

प्रभात रंजन कथाकार हिंदी महोत्सव, हिंदी पखवाड़े का मौसम है. माहौल हिंदीमय है. ऐसे में एक प्राध्यापक मित्र ने हाल में ही चुटकी लेते हुए कहा, ‘हिंदी वाले इस बात के ऊपर क्यों ध्यान नहीं देते कि बच्चों को जो हिंदी पढ़ाई जाती है, उसका उनके जीवन से अधिक लेना-देना नहीं होता. हिंदी पढ़ानेवाले बच्चों […]

प्रभात रंजन
कथाकार
हिंदी महोत्सव, हिंदी पखवाड़े का मौसम है. माहौल हिंदीमय है. ऐसे में एक प्राध्यापक मित्र ने हाल में ही चुटकी लेते हुए कहा, ‘हिंदी वाले इस बात के ऊपर क्यों ध्यान नहीं देते कि बच्चों को जो हिंदी पढ़ाई जाती है, उसका उनके जीवन से अधिक लेना-देना नहीं होता. हिंदी पढ़ानेवाले बच्चों को बचपन से हिंदी से जोड़ने की शिक्षा क्यों नहीं देते? वे ऐसी भाषा में शिक्षा क्यों नहीं देते, जिस भाषा से वे अपनापन महसूस कर सकें.’ उसकी बात चुटकी लेने जैसी बात थी, लेकिन सोचने पर यह बात बड़ी बुनियादी लगी.
हिंदी दिवस के आसपास अखबारों में इस तरह के समाचार खूब पढ़ने को मिले कि हिंदी खूब फल-फूल रही है. सोशल मीडिया पर हिंदी के उपयोगकर्ता बढ़े हैं. आभासी दुनिया में हिंदी संवाद की बड़ी भाषा बन कर उभरी है. हिंदी में रोजगार के अवसर बढ़े हैं. सबसे बड़ी बात यह कि हिंदी मीडिया की धमक के कारण कुछ खास पेशों में काम करनेवाले हिंदी वालों की सामाजिक हैसियत भी बढ़ी है. साहित्य में यह नया ट्रेंड है कि अलग-अलग व्हाॅइट कॉलर पेशों से जुड़े युवा हिंदी में लिख रहे हैं. कहने का अर्थ है कि ऊपर की दुनिया में हिंदी का ग्लैमर बढ़ रहा है.
जबकि स्कूलों में जो हिंदी पढ़ायी जा रही है, उसकी भाषा आज भी बहुत औपचारिक है. आज भी वहां पाठ्यक्रमों में हिंदी भाषा के उस रूप को प्रधानता दी जाती है, जैसी हिंदी आम तौर पर बोली-लिखी नहीं जाती है.
सोशल मीडिया, सामाजिक आदान-प्रदान के बदले तौर-तरीकों ने हिंदी के भाषिक रूपों को बदल दिया है, लेकिन पढ़ने में हिंदी को लेकर अभी भी आदर्शवादी रवैया अपनाया जाता है. हिंदी शिक्षण को लेकर अभी भी आरंभ से वह व्यावहारिक रवैया नहीं अपनाया जाता है. इसके कारण हिंदी पढ़नेवाले बच्चों को अपनेपन की भाषा नहीं लगती है, बल्कि पढ़नेवालों को वह एक परायी भाषा लगने लगती है. एक ऐसी भाषा, जो अपने जीवन से जुड़ी हुई नहीं लगती है उसको.
आज बड़े पैमाने पर हिंदी में ऐसा लेखन हो रहा है, जो ‘अपमार्केट’ के लिए है. लेकिन जैसा पाठक वर्ग हिंदी का होना चाहिए, वैसा अब भी तैयार नहीं हो पाया है. इसका कारण मुझे यही लगता है कि आधार में हिंदी को लेकर आत्मविश्वास पैदा नहीं किया जा रहा है. हिंदी आज भी ज्यादातर स्कूलों में अलग-थलग विषय की तरह बन कर रह गयी है. जब बच्चा आरंभ से ही हिंदी से जुड़ा नहीं महसूस करेगा, तो वह आगे चल कर उस भाषा को अपने पेशे की भाषा के रूप में अपनाने के बारे में नहीं सोचेगा. ऐसे में वह बच्चा उस भाषा का उपभोक्ता किस प्रकार बनेगा? यही वह सवाल है, जिसका स्कूलों में हिंदी शिक्षण के दौरान ध्यान में नहीं रखा जाता है.
बजाय हिंदी को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करने के, यह कहने के कि वह हमारी राष्ट्रभाषा है, सरकार को उसके उत्थान के लिए कुछ करना चाहिए. हमें यह सोचना चाहिए कि किस तरह से हिंदी का पठन-पाठन इस प्रकार से किया जाये कि बच्चा आरंभ से ही हिंदी से अपना जुड़ाव महसूस कर पाये. यह सच्चाई है कि हिंदी इस समय बाजार में रोजगार की एक प्रमुख भाषा के रूप में उभर कर आयी है, लेकिन इस बात की समझ बच्चों में बहुत देर से आती है.
हिंदी को लेकर अगर सच में कुछ करना है, तो हिंदी शिक्षण की इस प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन किये जाने की जरूरत है. इस दिशा में ठोस कदम उठाये जाने की जरूरत है. बच्चों को हिंदी की शिक्षा इस तरह से दिये जाने की जरूरत है कि वे उसके ऊपर गर्व करना सीखें, शेम-शेम करना नहीं!

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें