प्रभात रंजन
कथाकार
हिंदी पखवाड़ा शुरू हो चुका है. इस दौरान केंद्र सरकार के उपक्रमों में राजभाषा में काम करने, उसको बढ़ावा देने का संकल्प लिया जायेगा. फिर एक साल के लिए हिंदी को भुला दिया जायेगा. यह एक रस्म की तरह हो गया है. हम लाख आंकड़े रखें कि हिंदी अब मजबूत भाषा बन चुकी है और विश्व स्तर पर रोजगार की भाषा के रूप में अपनी उपयोगिता साबित कर चुकी है. सूचना-तकनीक क्रांति ने हिंदी को लेकर सभी भ्रांतियों को दूर कर दिया है. यह पहली बार हो रहा है कि हिंदी में पिछले वर्षों में अलग-अलग पेशों से, मसलन, इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट से जुड़े लेखक न सिर्फ किताबें लिख रहे हैं, बल्कि उनकी किताबें पढ़ी भी जा रही हैं. लेकिन ऐसा लगता है हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़ा मनानेवाले राजभाषा विभागों को हिंदी की इस प्रगति से कोई लेना-देना नहीं है. वे हर साल इस पखवाड़े को हिंदी स्यापा पखवाड़ा के रूप में मनाते हैं.
तीन साल पहले केंद्र सरकार के एक उपक्रम में मुझे हिंदी पखवाड़े के उद्घाटन के लिए बुलाया गया. मैंने वहां हिंदी के विकास पर आंकड़ों के साथ व्याख्यान दिया. यह बताया कि इसके बावजूद कि हिंदीवालों ने 80 के दशक में कंप्यूटर तकनीक का सबसे अधिक विरोध किया था, लेकिन तकनीकी विकास ने हिंदी को सबसे अधिक फायदा पहुंचाया. तकनीक के कारण न केवल इसके उपयोगकर्ता बढ़े, बल्कि रोजी-रोजगार की भाषा के रूप में भी यह मजबूत हुई.
अब समय आ गया है कि हिंदी के पिछड़ेपन का रोना न रोया जाये, बल्कि निरंतर प्रगति का गान गाया जाये. जब कार्यक्रम समाप्त हुआ, तो आयोजक हिंदी अधिकारी महोदय ने मुझे पत्रम्-पुष्पम् देने के बाद अकेले में ले जाकर कहा कि आप बोले तो बहुत बढ़िया, लेकिन आपका व्याख्यान हिंदी पखवाड़े के उद्घाटन के अनुकूल नहीं रहा.
आज के दिन तो आपको कुछ उदबोधनात्मक बोलना चाहिए था. यह कहना चाहिए था कि हिंदी को भविष्य में और बेहतर बनाने के लिए क्या करना चाहिए था. हिंदी को उसका मुकाम दिलाने के लिए क्या प्रयास किये जाने चाहिए? मैंने कहा- लेकिन वह मुकाम तो हिंदी को मिलता जा रहा है. उन्होंने कुछ कहा तो नहीं, उसके बाद अपने सालाना कार्यक्रम में बुलाना बंद कर दिया. उससे पहले वे श्रोता के रूप में भी हर साल आने का आमंत्रण देते थे. उस दिन के बाद से सब बंद.
लब्बोलुआब यह कि हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़ा अपने आप में बहुत बड़ा रोजगार बन चुका है. हजारों-लाखों हिंदी अधिकारियों, राजभाषा अधिकारियों, राजभाषा विभाग इन सबकी यह मजबूरी है कि हर साल हिंदी का रोना रोते रहें. हर साल सरकार से यह मांग करते रहें कि वह हिंदी के विकास के लिए कुछ करे. सरकार हर साल हिंदी के विकास के नाम पर और फंड जारी करती रहे. हिंदी के नाम पर यह रोजगार चलता रहे. उनकी मुश्किल यह है कि अगर उन्होंने यह मान लिया कि हिंदी विकसित हो चुकी है, अगर उन्होंने यह मान लिया कि हिंदी मजबूत हो रही है, तो उनके रोजगार पर तलवार लटकने का खतरा हो सकता है.
इसलिए हिंदी सेवियों नहीं, बल्कि ऐसे राजभाषा सेवियों के हित में हिंदी का रोना रोया जाना बहुत आवश्यक है. इसीलिए साल में एक बार देश भर में फैले सरकारी उपक्रमों में हिंदी का रोना रोया जाता है. हिंदी की एक दयनीय छवि दिखाई जाती रहती है. जबकि सच्चाई यह है कि इन राजभाषा विभागों से बाहर हिंदी मजबूत होकर अपने पैरों पर शान से खड़ी हो चुकी है. हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़े में इस स्यापे से बाहर निकल कर भी हिंदी को देखे जाने की जरूरत है!