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कावेरी जल पर बवाल
जब मॉनसून कमजोर हो, तो खेत से जुड़े लोगों में पानी को लेकर चिंता बढ़ना स्वाभाविक है. इसका एकमात्र समाधान यह है कि सभी संबद्ध पक्ष संकट में संयम के साथ एक-दूसरे का सहयोग करें. सहयोग और भरोसे की कमी हो, तो भावनाओं के ज्वार में तार्किकता और विवेकपूर्ण समाधान की संभावनाएं क्षीण होने लगती […]
जब मॉनसून कमजोर हो, तो खेत से जुड़े लोगों में पानी को लेकर चिंता बढ़ना स्वाभाविक है. इसका एकमात्र समाधान यह है कि सभी संबद्ध पक्ष संकट में संयम के साथ एक-दूसरे का सहयोग करें.
सहयोग और भरोसे की कमी हो, तो भावनाओं के ज्वार में तार्किकता और विवेकपूर्ण समाधान की संभावनाएं क्षीण होने लगती है. कावेरी नदी के जल पर दावेदारी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शनों के साथ भड़की आग ऐसी ही परिस्थितियों का परिणाम है. तमिलनाडु का मानना है कि कर्नाटक जरूरतों से अधिक पानी रोके हुए है, जिससे तंजौर के किसान तबाह हो सकते हैं, तो कर्नाटक को आशंका है कि यदि पानी जाने दिया गया, तो उसे अभाव से जूझना पड़ेगा और मांड्या क्षेत्र के किसानों को भारी नुकसान होगा. इन मान्यताओं के चलते हालात और तथ्यों पर विचार करने की राह बाधित है.
पांच सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक को अंतरिम आदेश दिया कि वह प्रतिदिन 15 हजार क्यूसेक पानी तमिलनाडु को दे. कर्नाटक सरकार, किसानों और कन्नडिगा-समर्थक संगठनों ने इसके विरोध में नौ सितंबर को बंद का आह्वान किया. फिर 12 सितंबर को अदालत ने आदेश में संशोधन कर उसे प्रतिदिन 12 हजार क्यूसेक कर दिया.
अब तमिलनाडु के किसानों को लग रहा है कि उनके साथ अन्याय हुआ है. करीब एक सदी से चल रहे कावेरी जल-विवाद को निबटाने के लिए बने ट्रिब्यूनल ने संवैधानिक प्रावधानों की रोशनी में पानी के समुचित बंटवारे की व्यवस्था की थी, लेकिन मौजूदा तनाव से यही संकेत मिलता है कि दोनों राज्यों के कुछ राजनीतिक और सामाजिक संगठनों की दिलचस्पी विवाद के समाधान में है ही नहीं. उन्हें तो बस क्षेत्रीयता की भावना भड़का कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी है. ऐसे राजनेताओं और वर्चस्व स्थापित करने की ताक में सक्रिय संगठनों की बयानबाजी से स्पष्ट है कि वे मौजूदा स्थिति का फायदा अपनी छवि चमकाने के लिए कर रहे हैं.
मौजूदा अशांति से न सिर्फ आर्थिक और व्यवस्थागत नुकसान हो रहा है, बल्कि अविश्वास की दरार भी बढ़ रही है. हिंसा और तनाव का यह माहौल जितना लंबा खिंचेगा, शांतिपूर्ण समाधान की राह उतनी ही दूर होती जायेगी. देश के कई अन्य हिस्सों में भी नदी-जल के बंटवारे को लेकर खींचतान है. दक्षिण की इस हिंसा का नकारात्मक असर उन क्षेत्रों में भी पड़ सकता है. ऐसे में जरूरी यह है कि दोनों पक्ष खुले मन से स्थायी समाधान की ओर प्रयासरत हों.
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