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विज्ञापनों की मायावी दुनिया
गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान एक ब्लॉग है- ‘बेटियों का ब्लॉग’, यहां एक पोस्ट है- ‘तिन्नी का तमाचा’. इसे लिखा है ‘कस्बावाले’ रवीश कुमार ने. पोस्ट की पंक्तियों पर जरा गौर करें- ‘बच्चे अपने बचपन में मां-बाप की खूब पिटाई करते हैं. मरता क्या न करता, इस पिटाई पर अपमानित होने के बजाय भावुक […]
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
एक ब्लॉग है- ‘बेटियों का ब्लॉग’, यहां एक पोस्ट है- ‘तिन्नी का तमाचा’. इसे लिखा है ‘कस्बावाले’ रवीश कुमार ने. पोस्ट की पंक्तियों पर जरा गौर करें- ‘बच्चे अपने बचपन में मां-बाप की खूब पिटाई करते हैं. मरता क्या न करता, इस पिटाई पर अपमानित होने के बजाय भावुक हो जाता है. सुबह-सुबह तिन्नी बाजार जाने के लिए जिद करने लगी.
मुझे भी कुछ खरीदना है. अंडा ब्रेड के साथ उसने सेंटर फ्रेश और मेंटोस भी खरीदे. घर आकर सोचता रहा कि सेंटर फ्रेश खाने की आदत कहां से पड़ गई. तभी तिन्नी आयी और कस कर एक तमाचा रसीद कर दिया. इससे पहले कि झुंझलाहट पितृतुल्य वात्सल्य में बदलती, तिन्नी ने ही जाहिर कर दिया. देखा बाबा, मेंटोस खाते ही मैं किसी को भी तमाचा मार सकती हूं. मेंटोस में शक्ति है. जरूर ये विज्ञापन का असर होगा. विज्ञापन में शक्ति प्राप्त करने की ऐसी महत्वाकांक्षा तिन्नी में भर दी कि खामियाजा मुझे उठाना पड़ा.
विज्ञापनों की ओर खींचाव की कहानी हर कोई सुना सकता है, क्योंकि हर दिन हम-आप इससे रू-ब-रू होते हैं. विज्ञापन की दुनिया मिनटों में एक ऐसी सतरंगी कहानी गढ़ती दुनिया, जिससे शायद हर कोई अपनापा महसूस करता हो.
याद कीजिये, शुभारंभ शृंखला के विज्ञापनों को. चॉकलेट के बहाने सोशल मैसेज का इससे बेहतर उदाहरण बहुत कम ही मिलता है. सुबह जूते पहन कर घर से निकलने का संदेश भी अब कंपनियां देने लगी हैं. विज्ञापनों में बच्चों की जुबां का सबसे बेहतर इस्तेमाल हो रहा है. इसका उदाहरण इंश्योरेंस कंपनी का एक विज्ञापन है, जिसमें बच्चा पूछता है- ‘मेरे फ्यूचर के बारे में सोचा है क्या?’ यह दो लोगों की बातचीत से उठायी गयी लाइन है. पिता-बेटे की यह बातचीत जब खत्म होती है, तभी एक इंश्योरेंस कंपनी का एक आदमी प्रभावशाली पंच लाइन ‘कभी आपने बड़े होने के बाद भी अपने मां-बाप से ऐसे सवाल किये हैं?’ के साथ हाजिर होता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मेरे एक भोजपुरी भाषी मित्र अक्सर एक कहावत दोहराते थे- ‘सुनी सबकी, करी मन की (सभी की बात सुनो, लेकिन करो वही जो मन करे). अभी यह कहावत एक विज्ञापन में याद आ रही है, जिसकी पंचलाइन है-आजकल के बच्चे कैरियर नहीं, पैशन खोजते हैं.
इस शृंखला में कई विज्ञापन हैं. मेरा सबसे पसंदीदा है, जिसमें लड़की पिता को खाना खिलाती है और कहती है कि आपकी इच्छा थी कि मैं टीचर बनूं. मैंने जिद कर कुकिंग का प्रशिक्षण लिया. आज आपको मुर्गा खिला रही हूं, टीचर बनती तो ‘मुर्गा’ (स्कूल में दिया गया दंड) बनाती. दरअसल, यही है सोशल मैसेज देते विज्ञापनों की हसीन दुनिया.
निजी तौर पर मैं कुछ विज्ञापनों को जादू का पिटारा मानता हूं. एक्सिस बैंक के एक विज्ञापन में एक बच्चा पिता से कहता है कि अरे, घर में एसी भी नहीं है, केबल भी नहीं है…, तभी पिता के मोबाइल पर एसएमएस आता है कि बैंक या किसी म्यूचल फंड का सहारा लें जनाब.
इन विज्ञापनों की सबसे बड़ी खासियत यही होती है कि यह दर्शकों के नब्ज को समझता है. आप लाख चाहें, लेकिन इन विज्ञापनों को एक बार देखने की कोशिश जरूर ही करेंगे और बाद में यही आपको लालची बनने के लिए मजबूर करता है. ये विज्ञापन कहते हैं कि खूब खर्च करो, पैसे लुटाओ, सामानों से घर को भर डालो…लेकिन इसी बीच यह हमें सीख भी देता रहता है कि अपने से बड़ों का सम्मान भी करो.
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