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गांधी, नेहरू और संदीप

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार बड़े आदमी को बड़े होते ही इस बात का पता ही नहीं होता कि कब वे बड़ा काम कर डालते हैं. इसका पता कुछ अन्य, थोड़े कम बड़े आदमियों को चलता है कि उन बड़े आदमियों ने यह जो काम किया है, यह असल में कोई छोटा काम नहीं, बल्कि […]

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

बड़े आदमी को बड़े होते ही इस बात का पता ही नहीं होता कि कब वे बड़ा काम कर डालते हैं. इसका पता कुछ अन्य, थोड़े कम बड़े आदमियों को चलता है कि उन बड़े आदमियों ने यह जो काम किया है, यह असल में कोई छोटा काम नहीं, बल्कि बहुत बड़ा काम है.

ये थोड़े कम बड़े आदमी, खुद भी पूरे बड़े आदमी बनने की चाह में, हर वक्त यह देखने में लगे रहते हैं कि वे बड़े आदमी कौन-कौन से काम कर रहे हैं और कि उनमें से कौन-सा काम बड़ा है या हो सकता है या न होने पर भी बताया जा सकता है. अपना सारा काम-धंधा छोड़ कर वे यह काम करते हैं और अंतत: यही काम उनका धंधा बन जाता है.

राजनीतिक पार्टियां उनकी इस प्रतिभा को पहचान कर उन्हें अपना प्रवक्ता बना लेती हैं, जहां उनकी प्रतिभा और भी ज्यादा निखर कर सामने आती है. प्रवक्ता बनते ही बंदा काफी हद तक बड़ा आदमी बन जाता है और बड़ी-बड़ी बातें करने लगता है.

बड़े आदमियों का बड़प्पन इस बात में भी होता है कि वे बड़े काम भी बहुत क्षुद्रतापूर्वक करते हैं.

इसके पीछे उनका यह सोच काम करता हो सकता है कि अगर उनके द्वारा किया गया कोई क्षुद्र काम क्षुद्र ही रह गया, तो इसके लिए कोई उन पर उंगली न उठा पाये. फिर भी उन पर अगर कोई उंगली उठा ही दे, क्योंकि कुछ लोगों की आदत होती है उंगली उठाने या करने की, जिसके लिए वे अपनी उंगली-विशेष को बहुत संभाल कर रखते हैं, यहां तक कि उसका बीमा तक करवा लेते हैं, तो ऐसे उंगली-उठाईगीरों के उंगली उठाने पर यह सफाई दी जा सकती है कि हमने कब कहा था कि हमने कोई बड़ा काम किया है.

रहीम ने ऐसे ही लोगों की तारीफ में कहा है कि ‘बड़े बड़ाई ना लहैं, बड़े न बोलैं बोल.’ यानी बड़े आदमी अपनी बड़ाई खुद नहीं हांकते, इसके लिए प्रवक्ता रखते हैं. वे बड़े बोल भी नहीं बोलते, यह काम भी उनकी ओर से प्रवक्ता और विज्ञापन-एजेंसियां मिल कर करती हैं.

इससे बचनेवाले समय का सदुपयोग बड़े आदमी यह बताने में लगाते हैं कि हमने जो कहा, वह किया, और जो नहीं किया, वह दूसरों ने करने नहीं दिया.

आम आदमी पार्टी के नेता संदीप कुमार को भी पता नहीं होगा कि वे अनजाने में ही इतना बड़ा काम कर डालेंगे कि एक झटके में गांधी-नेहरू के समकक्ष खड़े कर दिये जायेंगे. वे तो महज एक जरूरतमंद महिला के साथ, बेशक उसकी सहमति से ही, उसका राशनकार्ड बनवाने की पूर्वक्रिया संपन्न कर रहे थे और लगे-हाथ खुद ही इसका स्टिंग-ऑपरेशन भी करते जा रहे थे, ताकि महिला बाद में यह न कह सके कि नेताजी ने उसके लिए कुछ नहीं किया.

वह तो भला हो उनके पार्टी-प्रवक्ता आशुतोष का, जिसने बताया कि यह कोई निम्न कोटि का काम नहीं है, और अगर है भी, तो बहुत उच्च कोटि का निम्न काम है और ऐसे ही कामों के बल पर तो नेहरू, नेहरू बने और गांधी, गांधी बने. यहां तक कि आशुतोष ने लोहिया और वाजपेयी की महानता के पीछे भी ऐसे ही कार्यों का योगदान बताया.

कभी सुना था कि कोई महिला जब किसी जोर-जुल्म की शिकायत दर्ज कराने के लिए थाने गयी, तो वहां सबने उसकी स्टेटमेंट ली और आखिर में जब थानेदार ने भी उससे स्टेटमेंट देने के लिए कहा, तो उसे अफसोस के साथ कहना पड़ा कि वह अब और स्टेटमेंट नहीं दे सकती, क्योंकि स्टेटमेंट तो सूज गयी है. संदीप कुमार जैसे नेताओं के संदर्भ में शायद उसे उतने ही अफसोस के साथ कहना पड़े कि राशनकार्ड तो बनने से पहले ही फट गया है.

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