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अधकचरे ज्ञान के विभाग

प्रभात रंजन कथाकार हाल के वर्षों में हिंदी विभागों का विस्तार हुआ है. पहले जिन विभागों में आदि काल, मध्य काल, आधुनिक काल का साहित्य पढ़ाया जाता था, आज विश्वविद्यालयों के उन हिंदी विभागों में पत्रकारिता, सिनेमा, विज्ञापन, अनुवाद आदि पढ़ाये जाने लगे हैं. यह बदलाव ऊपरी तौर पर बहुत अच्छा लगता है कि अब […]

प्रभात रंजन

कथाकार

हाल के वर्षों में हिंदी विभागों का विस्तार हुआ है. पहले जिन विभागों में आदि काल, मध्य काल, आधुनिक काल का साहित्य पढ़ाया जाता था, आज विश्वविद्यालयों के उन हिंदी विभागों में पत्रकारिता, सिनेमा, विज्ञापन, अनुवाद आदि पढ़ाये जाने लगे हैं. यह बदलाव ऊपरी तौर पर बहुत अच्छा लगता है कि अब विभागों में व्यावहारिक शिक्षा का समावेश हुआ है. माना जा रहा है कि बढ़ते बाजार और उस बाजार में हिंदी के नाम पर बढ़ते रोजगार के दबाव के कारण हिंदी विभागों का यह हृदय परिवर्तन हुआ है.

लेकिन, यह ऊपरी तौर पर ही स्वागतयोग्य लगता है. इसके अंदर के सच को देखें, तो बहुत अफसोसनाक माहौल है.चाहे पत्रकारिता हो, सिनेमा लेखन हो, विज्ञापन हो या रचनात्मक लेखन, ये सभी पेशेवर ढंग से पढ़ाये जाने की मांग करते हैं, जिससे आगे चल कर विद्यार्थी इन विधाओं में अपनी बेहतर पेशेवर पहचान बना सकें. रोजगार पा सकें. व्यावसायिक शिक्षा की उपयोगिता, सार्थकता तभी है, जब वह पढ़नेवालों को सक्षम बना सके, शिक्षा को लेकर आत्मविश्वास बने.

दुर्भाग्य से ऐसे विषयों को पढ़ाने के लिए ऐसे अध्यापकों की किसी भी रूप में न्यूनतम सेवाएं ली जाती हैं, जिनकी इन विषयों में योग्यता प्रमाणित होती है. आम तौर पर जो अध्यापक कल तक सूर, तुलसी की कविताओं में प्रगतिशीलता ढूंढते रहते थे, वे आज विज्ञापन की रचनात्मकता पढ़ा रहे हैं, अनुवाद की बारीकियां समझा रहे हैं, पत्रकारिता की चुनौतियों के बारे में शिक्षा दे रहे हैं.

आम तौर ऐसे ही अध्यापक सालभर विद्यार्थियों के ऊपर अपने अधकचरे ज्ञान को थोपते हैं. साल में एक या दो बार उस विषय से जुड़े किसी जाने-माने चेहरे या पेशेवर विशेषज्ञ को बुला लिया जाता है और खानापूरी हो जाती है.

बात सिर्फ पढने-पढ़ाने की ही नहीं है. आज देश के लगभग सभी हिंदी विभागों में पत्रकारिता एक स्थापित विषय बन चुका है, लेकिन आज भी पत्रकारिता की ऐसी कोई मानक पुस्तक नहीं है, जिसके आधार पर पत्रकारिता से जुड़े सभी पहलुओं की शिक्षा दी जा सके. दुखद यह भी है कि आज पत्रकारिता का मतलब टीवी पत्रकारिता ही मान लिया गया है.

प्रिंट पत्रकारिता कितनी मशक्कत की मांग करती है, डेस्क पर काम करने की क्या चुनौतियां होती हैं, पत्रकारिता के अलग-अलग विषयों की तैयारी किस तरह की जानी चाहिए- इन बातों को पठन-पाठन में अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है. यह बात कितनी गंभीर है, यह इससे समझा जा सकता है कि ऐसे अधकचरे ज्ञान के आधार पर बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से पत्रकारिता का डिग्री-डिप्लोमा हासिल कर बड़ी तादाद में विद्यार्थी रोजगार के बाजार में आ रहे हैं.

विश्वविद्यालयों का उद्देश्य किसी भी विषय की गहराई से शिक्षा देना होता है. किसी विश्वविद्यालय और पेशेवर विषयों के कोर्स चलानेवाले व्यावसायिक संस्थानों में यही अंतर होता है कि उन संस्थानों में झटपट शिक्षा दी जाती है, जबकि विश्वविद्यालयों में किसी भी विषय की शिक्षा विस्तार से दी जाती है. हिंदी के विद्वान आज भी विद्यार्थियों के हित में पाठ्य पुस्तकें लिखने को कमतर काम समझते हैं. न तो अच्छे माने जानेवाले लेखक विद्यार्थी हित में पुस्तकें लिखते हैं, न ही बड़े माने जानेवाले प्रकाशक ऐसी किताबों को छापने में रुचि दिखाते हैं.

जरूरी है कि हिंदी विभागों में पेशेवर शिक्षा देने का यह काम एक मिशन-भाव से हो, तभी इन विषयों को पढ़ाये जाने की सार्थकता समझी जा सकती है. नहीं तो अधकचरे ज्ञान का ही प्रसार होता रहेगा!

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