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हम भी आदी हो गये हैं!
वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार आज किसी भी प्रदेश की राजधानी को झेलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. आये दिन प्रदेश के दूर-दूर कोनों से आये हजारों मजदूर और कर्मचारी चीख रहे हैं- अभी तो यह अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है… जब तक भूखा इनसान रहेगा, धरती पे तूफान रहेगा…… हर जोर जुल्म की टक्कर […]
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
आज किसी भी प्रदेश की राजधानी को झेलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. आये दिन प्रदेश के दूर-दूर कोनों से आये हजारों मजदूर और कर्मचारी चीख रहे हैं- अभी तो यह अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है…
जब तक भूखा इनसान रहेगा, धरती पे तूफान रहेगा…… हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है… इंकलाब जिंदाबाद… इंकलाब जिंदाबाद… मगर इनकी न कोई सुननेवाला है और न समझनेवाला है. भीड़ बेकाबू हो गयी, पुलिस गुस्सा हो गयी… और लाठी चार्ज.
नतीजा घंटो का जाम. हमारे शहर का ट्रैफिक जुगराफिया भी कुछ इस किस्म का है कि एक जगह जाम लगा नहीं कि इसका साइड इफेक्ट गली-गली तक पहुंच गया. ऊपर से बिजली की आवाजाही, पीने के पानी की किल्लत, अस्पतालों में नाकाफी स्वास्थ्य सुविधाएं, बजबजाती गलीकी नालियां, उफनाते सीवर, जगह-जगह फैली गंदगी और चारों ओर अवैध कब्जे. आम आदमी की जिंदगी पूरी तरह बदहाल और नरक बन गयी.
भरी दोपहरिया में स्कूल से लौटते हुए मासूम बच्चे बिलबिला उठते हैं. एक नहीं कई एंबुलेंस भीड़ में फंस गयीं. नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित कई बंदे बीच रास्ते में दम तोड़ गये. प्रसूता बीच सड़क पर बच्चे को जन्म देने को विवश हो गयी. अंतिम यात्रा पर निकले मुर्दे भी कराह उठे- अमां, यहीं किनारे कहीं फूंक दो. जाना तो एक ही जगह है. अब इंतजार बरदाश्त से बाहर हो रहा है.
निर्दयी प्रदर्शनकारी आजू-बाजू से निकलने की कोशिश कर रहे गरीब रिक्शेवालों के पहियों की हवा निकाल देते हैं. स्कूटियों और बाइकर्स की चाबियां निकाल लीं उन्होंने. किसी की ट्रेन छूटी, तो किसी की बस और किसी का प्लेन छूट गया. कोई परीक्षा देने जा रहा है, तो कोई इंटरव्यू देने जा रहा है.
किसी को शादी में जाना है और किसी को गमी में जाना है. बार-बार न कोई जीता है और न मरता है. छूट गया न ‘वंस इन लाइफटाइम’ का मौका. अब सर के बाल नोचो और सरकार को भद्दी गालियां दो. इसके सिवा कोई कर भी क्या सकता है?
प्रशासन के सीने में भी दिल नहीं है. न नेता और न मंत्री, स्थिति को सुलझाने में कोई रुचि लेते ही नहीं दिख रहा है. सब मांगें नाजायज हैं. मुख्यमंत्री से मिलो या प्रधानमंत्री से. बराक ओबामा तक पहुंच जाओ. सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाओ. दंगा करो या जाम लगाओ या आत्मदाह करो. मेरी बला से. कहीं कोई सुनवाई नहीं है.
प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधि भी खुश हैं. वे यही तो चाहते हैं. समस्या को भेजो तेल लेने. अगर सब ठीक हो जाये, तो नेतागिरी कैसे चमकेगी? इसी बहाने पर्दे के पीछे कुछ फ्लैट और कांप्लैक्स बन जायेंगे. बच्चों का भविष्य उज्ज्वल रहेगा.
और प्रदर्शकारियों का भी क्या जाता है? प्रदेश के कोने-कोने से बसों और ट्रेनों में भर कर आये हैं. अपनी जेब से उनको किराया देना नहीं है, खाना-पीना और ठहरना भी फ्री में है. इसी बहाने आउटिंग के साथ-साथ उनका राजधानी घूमना भी हो गया है. अगर प्रदर्शकारियों की वजह से ट्रेनों और बसों में अन्य यात्रियों को कोई तकलीफ हुई है, तो उनकी बला से.पहले से पंगु जन सुविधाएं बिलकुल ठप्प हो गयी हैं, तो उनकी जूती से.
कुल मिला कर ऐसी पंगु स्थिति पैदा करने और फिर उससे छुटकारा पाने में किसी की रुचि नहीं है. भुक्तभोगी हैं शहर वाले. एक साहब अभी-अभी बता कर गये हैं कि अब तो हम भी आदी हो गये हैं. हड़ताल करो या जाम लगाओ, हमारे ठेंगे से!
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