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घूस लेने का अधिकार
डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार सड़क-रोष यानी रोड-रेज, सेल्फी के शौक के बाद आज पढ़े-लिखे आदमी का सबसे पसंदीदा शौक है. फर्क सिर्फ यह है कि रोड-रेज में वह दूसरे की जान लेने को तैयार रहता है, जबकि सेल्फी में अपनी जान देने को. अलबत्ता दोनों में जान कॉमन है, जिसे लिये-दिये बिना उसका शौक […]
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
सड़क-रोष यानी रोड-रेज, सेल्फी के शौक के बाद आज पढ़े-लिखे आदमी का सबसे पसंदीदा शौक है. फर्क सिर्फ यह है कि रोड-रेज में वह दूसरे की जान लेने को तैयार रहता है, जबकि सेल्फी में अपनी जान देने को. अलबत्ता दोनों में जान कॉमन है, जिसे लिये-दिये बिना उसका शौक पूरा नहीं होता.
ठीक भी है, मुश्किल से प्राप्त इस जीवन को व्यर्थ क्यों गंवाया जाये? संतों ने भी चेताया है कि हीरा जनम अमोल है, कौड़ी बदले जाये. उसे या तो सेल्फी या फिर रोड-रेज को समर्पित किया जाये, तो समझो, कुछ सदुपयोग हुआ उसका.
वैसे तो शराब पीकर गाड़ी चलाने से होनेवाली दुर्घटनाएं भी जान लेने-देने का अच्छा अवसर उपलब्ध कराती हैं, पर उसमें वह गौरव कहां, जो रोड-रेज में होनेवाली तूतू-मैंमैं के बाद जान लेने-देने में है. ऊपर जाने पर ऊपरवाला पूछ बैठा कि मैंने तुझे जो दुर्लभ मानव-जीवन दिया था, उसका तूने क्या उपयोग किया? तो शायर के शब्दों में यह कहने की नौबत तो नहीं आयेगी कि- मैंने जब शर्म से महशर में झुका ली गरदन, बख्शवाने को मुझे मेरी खताएं आयीं.
इसी रोड-रेज में एक नया अध्याय तब जुड़ा, जब रेड लाइट, माफ कीजिये रेड सिग्नल, क्योंकि मुंबई में लोग रेड लाइट का दूसरा अर्थ लगाते हैं और उसे सुन कर मन ही मन रेड लाइट एरिया में पहुंच जाते हैं. उसी तरह से, जैसे वे ‘बाई’ शब्द को तो महिलाओं के लिए सम्मानजनक समझते हैं, पर ‘बाई जी’ को नहीं और उससे वही रेड लाइट वाली बाई का अर्थ लेते हैं.
इसलिए रेड लाइट नहीं, बल्कि रेड सिग्नल पार करने के कारण मांगी गयी घूस न देने पर जब ट्रैफिक-पुलिस के एक सिपाही ने एक महिला को ईंट मार कर घायल कर दिया, तो रोड-रेज में एक नया अध्याय जुड़ गया. या शायद घायल होना महिला ने खुद पसंद किया हो, सिपाही ने तो उसे मार ही डालना चाहा होगा.
अभी तक वाहन-चालक ही अपने वाहनों के लड़-भिड़ जाने पर या उसकी आशंका मात्र से आपस में लड़-भिड़ कर रोड-रेज की वृद्धि में योगदान किया करते थे. ट्रैफिक-पुलिस के सिपाही या तो उन्हें रोकने जैसे दुष्कर कर्म में लगे रहते थे या फिर निष्क्रिय बन चुपचाप जो हो रहा है, उसे होते देखते रहते थे और गीता के इस उपदेश पर अमल करते रहते थे कि जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है और जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा.
इसलिए वे भूत का पश्चाताप न कर, जबकि उन्हें घूस नहीं मिली थी या मिली तो खैर कैसे नहीं थी, पर अपेक्षित मात्रा में नहीं मिली थी, और भविष्य में भी घूस न मिलने की चिंता न करके ‘यही वक्त है कर ले तू भी (घूस की) आरजू’ स्टाइल में वर्तमान पर ध्यान केंद्रित रखते थे.
लेकिन शायद वर्तमान को तेजी से निकलता देख हमारे इस ट्रैफिक-पुलिस के सूरमा ने निष्क्रियता छोड़ कर पहले तो उस महिला को घूस देने की अनिवार्यता समझायी कि किस तरह उसने रेड सिग्नल पार कर लिया था और चाहे नहीं भी किया था, पर अब ट्रैफिक-पुलिस की इतनी-सी बात तो उसे माननी ही पड़ेगी, आदि. लेकिन जब वह महिला नहीं मानी, तो सिपाही ने उस पर ईंट-प्रहार कर दिया. इससे ईंट के एक नये प्रयोग की संभावना का द्वार भी खुला.
अभी तक उस ईंट के बहुत सीमित प्रयोग ही थे, जैसे कि ईंट से ईंट बजाने या ईंट का जवाब पत्थर से देने जैसे प्रयोग. हां, कुछ लोग उसका प्रयोग मकान बनाने जैसे परंपरागत कामों में भी कर लिया करते हैं. बहरहाल, इस ईंट-कांड का सबक यह है कि घूस लेना पुलिस वालों का प्रसिद्ध अधिकार है और वे उसे लेकर ही रहेंगे.
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