-हरिवंश-
दो युवा साथियों की अलग-अलग पुस्तकें आयी हैं. दोनों युवा मित्र प्रभात खबर से जुड़े रहे हैं पत्रकारिता को अर्थपूर्ण बनाने और अपने समय की चुनौतियों के संदर्भ में सोचने-नया करने में दोनों की भूमिका उल्लेखनीय है. एक पुस्तक दो माह पहले आयी. दूसरी नवंबर के अंत में. दोनों के विषय अलग-अलग हैं. आकर्षक छपाई और कवर है.
पहली पुस्तक है, ‘समाज, संस्कृति और समय’, लेखक कृपाशंकर चौबे. प्रकाशक है, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली. कीमत 500 रुपये. दूसरी पुस्तक है, ‘ जीना सिखा दिया’. श्रीश्री रविशंकर की जीवनी. इस पुस्तक को लिखा है, स्वयं प्रकाश ने. पुस्तक के प्रकाशक हैं, मंजुल पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली. साथ में प्रमुख समाचार पत्र दैनिक भास्कर भी.
नवंबर के अंत में ‘जीना सिखा दिया’ का लोकार्पण हुआ. दिल्ली में. एक न भूलनेवाले आयोजन में. आर्ट ऑफ लिविंग के तत्वावधान में 1000 सितारधारकों का कार्यक्रम था. बिहार बाढ़ राहत के उद्देश्य से. जानेमाने संगीत के बड़े नाम इसमें उपस्थित थे. भव्य आयोजन. वहीं इस पुस्तक का लोकार्पण हुआ. उल्लेखनीय बात है कि इस पुस्तक के युवा लेखक (1973 जून में जन्मे) ने इस पुस्तक से प्राप्त समस्त रायल्टी आर्ट ऑफ लिविंग के सेवा प्रकल्पों को समर्पित कर दिया है.
यह पुस्तक आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री रविशंकर की जीवनी है. कम लोग जीते जी ‘फिनामिना या लीजेंड’ (सशक्त धारा या नायक) बनते हैं. श्री रविशंकर जी उनमें से हैं. देश और दुनिया में आर्ट ऑफ लिविंग का जादू है. जो अध्यात्म से परहेज करते है, वे भी मानेंगे कि इतने कम समय में, इतना बड़ा संगठन बन जाना और इसके कार्यक्रमों में अपार जनसमूह की उपस्थिति असाधारण उपलब्धि है. जीवनी लिखना एक कला है. महान लोगों की जीवनी लिखनेवाले लेखक खुद एक ‘शैली (स्टाइल) और मिथ’ के रूप में भी हुए.
क्योंकि यह काम असाधारण धैर्य, शोध और सृजन का है. लीन होकर वही जीवन जीने और रचने की प्रक्रिया से गुजरना. हिंदी संसार में आर्ट ऑफ लिविंग के अनुयायी भारी तादाद में हैं, पर इसके इसके संस्थापक की कोई प्रामाणिक जीवनी हिंदी में उपलब्ध नहीं थी. पत्रकार स्वयं प्रकाश दैनिक भास्कर से जुड़े हैं. उन्होंने अवकाश लिया. जीवनी लिखने के लिए कई निजी गंभीर समस्याओं से घिरे होने के बावजूद, स्वयं प्रकाश इस काम में डूबा. घूमा. पूरे देश में जहां-जहां आर्ट ऑफ लिविंग के अनोखे काम चल रहे हैं, वहां-वहां जाकर रहा. निरखा-परखा, गुना और लिखा. रोचक और बांधनेवाली शैली में. पुस्तक में कुल 15 अध्याय हैं.
स्वयं प्रकाश की पृष्ठभूमि राजनीतिक चेतना से जुड़ी रही है. उसके पिता समाजवादी विचारों के प्रहरी रहे. जागरुक और अपनी छाप छोड़नेवाले प्राचार्य. वह पंडित रामनंदन मिश्र के प्रभाव में पला-बढ़ा है. जेपी के सचिव रहे जगदीश बाबू के आत्मीय युवाओं में रहा, स्वयं प्रकाश. पुस्तक के आरंभ में ‘अपनी बात’ अध्याय में खुद स्वयं प्रकाश ने लिखा भी है. ऐसे विषयों पर जब वह काम करने-लिखने का मानस बनाने लगा, तो कैसी टिप्पणियां सुनने को मिलीं? एक साथी ने कहा, साम्यवादी व समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होने के बावजूद मैं पथभ्रष्ट कैसे हो गया?
ऐसे सवालों के जवाब खुद स्वयं प्रकाश ने इसी अध्याय के आरंभ में दिया है. लुई पाश्चर की टिप्पणी को कोट कर. ‘ मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि आपकी जाति क्या है, मजहब क्या है, आपका दीन, ईमान क्या है? मुझे सिर्फ और सिर्फ इस बात से मतलब है कि आपकी तकलीफ क्या है? श्री रविशंकर हमारे समय के ऐसे शिखर पुरुषों में हैं, जो समाज या व्यक्ति की दुनिया से पीड़ा, तनाव, अकेलापन, दुख दर्द कम करने या दूर करने में लगे हैं.
आर्ट ऑफ लिविंग के रजत जयंती उत्सव में श्रीश्री के इस प्रयास से स्वयं प्रकाश का दरस-परस हुआ और उसके मन में संकल्प पैदा हुआ. जीवनी लिखने का. यह पुस्तक उसी सुंदर संकल्प का परिणाम है. एक माह भी नहीं हुए और उसके दो संस्करण निकल गये. यह इसकी लोकप्रियता का मापदंड और सूचक है.
1964 में जन्मे कृपाशंकर ने अब तक नौ पुस्तकें लिखी हैं. पांच पुस्तकों का संपादन किया है. कई पुरस्कारों से वह सम्मानित हैं. जानेमाने पत्रकार हैं. प्रभात खबर के शुरुआती दिनों के संघर्ष के साथी. ऊर्जा और रचनात्मकता उनमें भरी है. साथ काम करने की स्मृति है. हमेशा कुछ नया करने, सोचने और लीक छोड़ कर चलनेवाले. अत्यंत ऊर्जावान और कल्पनाशील. अपने समय के बड़े-बड़े रचनाकारों से निजी और आत्मीय संबंध. हिंदी, बांग्ला या उर्दू या अन्य भाषाओं के शिखर लेखकों से लगातार सृजनात्मक संवाद. इस पीढ़ी के शायद ही किसी अन्य पत्रकार का इस रचना संसार से ऐसा गहरा सरोकार और ताल्लुक है. मेरे आदरणीय कृष्ण बिहारी जी शायद इसी प्रेमवश या स्नेह के कारण कृपाशंकर को बलिया विभूति भी कहते हैं.
384 पेजों की इस पुस्तक में निबंध, लेख और टिप्पणियां हैं. समाज, संस्कृति और समय से जुड़ी. पुस्तक के आरंभ में ही कृपाशंकर बताते हैं, ‘ यह पुस्तक बीसवीं शताब्दी के आखिरी दो दशकों और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक सात वर्षों के परिदृश्य पर एकाग्र निबंधों, लेखों व टिप्पणियों का संग्रह है.
देश, काल और परिस्थितियां (उदारीकरण जैसे प्रसंग) कैसे हमारे आसपास या संसार को गढ़, बदल या प्रभावित कर रही हैं, यह समझना-जानना आसान नहीं है. एक संवेदनशील, समझदार या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रचा, बसा मन ही यह पर पीड़ा समझ सकता है. समाज अध्याय में 31 टिप्पणियां, लेख या निबंध हैं. बंगाल के दलित, कलकत्ता के चीनी मूल के बाशिंदे, बाबा आम्टे के आनंदवन से लेकर अंडमान के लुप्त होते जारवाओं (लुप्त होती आदिम जनजाति)पर. विषयों की विविधता से भरा अध्याय.
‘संस्कृति’ खंड में 65 रचनाएं हैं. इस खंड के आरंभ में चार लेख सीधे पुस्तकों के संसार से जुड़े हैं. अत्यंत रोचक, सूचनासंपन्न और पठनीय. कोलकाता के मशहूर पुस्तक मेला, जानेमाने संस्थान नेशनल लाइब्रेरी, मशहूर कॉलेज स्ट्रीट के ‘पुस्तक बाजार’ पर कृपा को पढ़ते हुए नयी चीजें जानने को मिलीं. इसी अध्याय में व्यक्तिपरक निबंध भी हैं. मसलन ‘ वह जो एक विद्रोही औरत है सुशील गुप्ता’. कलकत्ता प्रवास से ही सुशील जी को जानता था, पर यह लेख पढ़ने के बाद, कह सकता हूं,पूरा जाना.
‘समय’ खंड में 21 टिप्पणियां हैं. पूर्वोत्तर भारत के सवालों से लेकर बंगाल और कोलकाता से जुड़े प्रसंगों पर नक्सल आंदोलन का मूल्यांकन है. बंगाल में घुसपैठ के सवाल पर विचार है. उत्तर बंगाल के सुलगते सवालों की जांच-पड़ताल है. पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृषण गांधी के रोचक व्यक्तित्व की झलक है.
इस संकलन को पढ़ते हुए गुजरे तीन दशकों के यक्ष सवालों से पाठक रू-ब-रू होते हैं. भविष्य को गढ़ने के लिए अतीत की धाराओं को जानना-समझना जरूरी है. इस दृष्टि से जो लोग अपने समय के सवालों को समझना-जानना चाहते हैं, उनके लिए कृपाशंकर की यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है. इससे लेखक निजी सरोकार के अनेक विविध आयाम भी सामने आते हैं.
प्रभात खबर की पत्रकारिता को सजाने, संवारने और आगे ले जाने में कृपाशंकर चौबे और स्वयं प्रकाश की महत्वपूर्ण भूमिकाएं रही हैं. दोनों लेखकों ने अलग-अलग क्षेत्रों में उल्लेखनीय काम किया है. इसलिए दोनों को बधाई! भविष्य में इन दोनों से काफी उम्मीदें हैं.