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भारत के ब्रांड एंबैस्डर मोदी

राजीव रंजन झा संपादक, शेयर मंथन मोबाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम (एमटीसीआर) के समूह में भारत के प्रवेश का रास्ता साफ हो गया है, जो आगे न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में भारत के प्रवेश को सुगम बनायेगा. परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भी छह संयंत्रों के लिए बात आगे बढ़ गयी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने […]

राजीव रंजन झा
संपादक, शेयर मंथन
मोबाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम (एमटीसीआर) के समूह में भारत के प्रवेश का रास्ता साफ हो गया है, जो आगे न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में भारत के प्रवेश को सुगम बनायेगा. परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भी छह संयंत्रों के लिए बात आगे बढ़ गयी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी ताजा अमेरिका यात्रा में एक मार्केटिंग गुरु का काम किया है.
उन्होंने अमेरिकी संसद के सामने भारत के विचार को परोस दिया है. अब इसका लाभ उठाना न केवल भारत सरकार के तमाम विभागों का काम है, बल्कि निजी उद्योगों का भी है. मोदी ने अमेरिका में भारत के ब्रांड की मार्केटिंग का एक सफल अभियान पूरा किया है. आगे इसे सेल्स यानी बिक्री में तब्दील करना एक अनवरत प्रक्रिया है, जिसे किसी एक दौरे में हुई घोषणाओं से मापा नहीं जा सकता. मीडिया की सुर्खियां सेल्स पर केंद्रित रहा करती हैं- मतलब कि प्रधानमंत्री के किसी विदेशी दौरे में या किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष के भारत दौरे में कुल कितनी राशि के समझौते हुए. लेकिन, इन दौरों को मार्केटिंग अभियान के रूप में देखना चाहिए. सेल्स लगातार चलनेवाली प्रक्रिया है.
प्रधानमंत्री मोदी की इस अमेरिका यात्रा के कूटनीतिक परिणाम ज्यादा हैं. इस दौरे ने भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकी को उजागर किया है.
यदि ओबामा और मोदी के बीच एक प्रगाढ़ संबंध बनता दिखा, तो इसका मतलब यही है कि व्हाॅइट हाउस भारत को अपने आर्थिक-कूटनीतिक हितों की दृष्टि से पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण मानने लगा है. भारत और अमेरिका की यह नजदीकी भारत के बढ़ते हुए आर्थिक महत्व का नतीजा है. यह अपने-आप में जाहिर है कि अमेरिका भारत में आर्थिक हितों को साधना चाहता है, मगर यह सौदा इकतरफा नहीं होता. अगर अमेरिका को भारत में बाजार मिलता है, तो भारत की भी तकनीक और निवेश संबंधी जरूरतें पूरी होती हैं.
एक वह भी दौर था, जब अमेरिका में हर नये राष्ट्रपति के आने पर भारत को नये प्रशासन के साथ अपना तालमेल बनाने और उसे अपने मुद्दे समझाने में ही काफी अरसा लग जाता था. भारत उसके लिए एक ऐसा देश था, जो विश्व राजनय में दूसरे धुर पर मौजूद रूस के ज्यादा करीब दिखता था. दूसरी ओर भारत के अहम मुद्दे पाकिस्तान के साथ हैं, जो अमेरिका का सामरिक सहयोगी रहा है. ऐसे में हर नये अमेरिकी राष्ट्रपति के प्रशासन को अपने हितों की ओर मोड़ना और पाकिस्तान से विमुख करना एक लगातार चलनेवाली कठिन प्रक्रिया थी.
ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी का अमेरिकी कांग्रेस (अमेरिकी संसद के दोनों सदन) को संबोधन अपने-आप में ऐतिहासिक है. यह इस बात का परिचायक है कि अमेरिका में अब एक राष्ट्रपति के हट जाने और उसके साथ पूरा प्रशासनिक अमला बदल जाने से वहां भारत की बात अटक नहीं जायेगी. अब भारत पूरे अमेरिका के सामने अपनी बात रख पा रहा है, जिसमें वहां के राष्ट्रपति से लेकर पूरी संसद तक सभी शामिल हैं.
अब कुछ लोग पूछेंगे कि क्या मोदी के इस अमेरिकी दौरे के बाद पाकिस्तान को मिलनेवाली अमेरिकी मदद बंद हो जायेगी? ऐसे सवालों का कोई जवाब नहीं होता. अमेरिकी कांग्रेस में मोदी के भाषण का क्या मतलब है, यह शायद पाकिस्तान के लोगों की बातें सुन कर बेहतर समझ में आयेगा. पाकिस्तान पहले से ही रो रहा है कि मोदी सरकार उसे अलग-थलग करती जा रही है.
प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी संसद को आगाह किया है कि विश्व में आतंक का पालन-पोषण भारत के पड़ोस में हो रहा है. उन्हें उपकृत करने से इनकार करना उन्हें उनके कामों के लिए जिम्मेवार ठहराने की दिशा में पहला कदम है. यह संदेश अमेरिकी संसद के सभी विधि-निर्माताओं तक पहुंचा है.
अमेरिकी सांसदों ने मोदी की बात पूरे उत्साह के साथ सुना है, बार-बार तालियां बजायी हैं और कई बार सामूहिक रूप से खड़े होकर उनकी बातों पर अभिवादन किया है. इससे यह माना जा सकता है कि उनका संदेश सभी सांसदों तक ठीक से पहुंचा होगा. इसलिए चाहे अगला अमेरिकी राष्ट्रपति जो भी बने, और उसकी पाकिस्तान-नीति जो भी हो, पर पाकिस्तान को लाभ पहुंचानेवाले किसी निर्णय पर अगर अमेरिकी संसद की मंजूरी जरूरी होगी, तो वह पहले जितनी आसान नहीं होगी.
हाल ही में एक खबर आयी थी कि अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान देने से मना कर दिया. पाकिस्तान को 70 करोड़ डॉलर में अमेरिका से आठ एफ-16 विमान लेने थे, मगर इसके लिए धन की व्यवस्था को लेकर मामला अटक गया. अगर पुराना समय रहा होता, तो धन की व्यवस्था का सवाल बहुत छोटा हो जाता. कुछ लोग इस बात पर भी भौंहें टेढ़ी कर सकते हैं कि भारत अमेरिका के साथ इतनी नजदीकी क्यों बढ़ा रहा है. सवाल उठाये जा रहे हैं कि क्या भारत तटस्थता की नीति छोड़ कर अमेरिका का सहयोगी देश बनने की ओर बढ़ रहा है? लेकिन ऐसे सवाल उठानेवाले वर्तमान विश्व राजनय की हकीकतों के बदले संभवतः 1950 और 1970 के दशक की गुटबंदियों और विचारधारा में ही अटके हुए हैं.
यदि भारत को अमेरिका के गुट का सदस्य बनना होता, तो प्रधानमंत्री मोदी के इस दौरे में भारत और अमेरिका के संयुक्त वक्तव्य में से दक्षिण चीन सागर का जिक्र हटाया नहीं जाता. मोदी-ओबामा की पिछली दो मुलाकातों के बाद जारी दोनों संयुक्त वक्तव्यों में दक्षिण चीन सागर का जिक्र था.
गौरतलब है कि दक्षिण चीन सागर में चीन और अमेरिका एवं जापान के हित फंसे हुए हैं न कि भारत के. इसीलिए ताजा संयुक्त बयान में इसका जिक्र न होने का स्वागत चीनी मीडिया में हुआ है, यह कहते हुए कि भारत ने दक्षिण चीन सागर पर चीन के पक्ष का अनुमोदन कर दिया है. अप्रैल में ही भारत, रूस और चीन की त्रिपक्षीय सहमति बनी है, जिसमें कहा गया कि सामुद्रिक सीमा विवादों को संबंधित पक्षों को ही आपस में सुलझाना चाहिए.
स्पष्ट है कि मोदी सरकार ने अमेरिका, रूस, चीन और जापान जैसे प्रमुख देशों में से सबके साथ पारस्परिक संबंधों को बढ़ाते हुए एक बारीक संतुलन बनाने की रणनीति अपनायी है. एक तरफ यह सरकार दक्षिण चीन सागर पर चीन को खुश करती है, तो दूसरी ओर चीन की आपत्ति को दरकिनार करते हुए वियतनाम को ब्रह्मोस मिसाइल बेचने का भी फैसला करती है.

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