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एक प्रयोग की साहसभरी कथा !

-हरिवंश- पत्रिका ‘सिविल सोसाइटी’ का नया अंक सामने है. पांचवें वर्ष पर निकला वार्षिकांक. यह पत्रिका मिसाल है, उत्कृष्ट पत्रकारिता की. समर्पण की पत्रकारिता की. दृष्टि की पत्रकारिता की. साफसुथरे, पारदर्शी और कुशल प्रबंधन की. पर इन पहलुओं पर बाद में.तकरीबन चार साल पहले. दिल्ली गया. सेंटर फार सिविल सोसाइटी (सीसीएस) के दफ्तर में. सीसीएस […]

-हरिवंश-

पत्रिका ‘सिविल सोसाइटी’ का नया अंक सामने है. पांचवें वर्ष पर निकला वार्षिकांक. यह पत्रिका मिसाल है, उत्कृष्ट पत्रकारिता की. समर्पण की पत्रकारिता की. दृष्टि की पत्रकारिता की. साफसुथरे, पारदर्शी और कुशल प्रबंधन की. पर इन पहलुओं पर बाद में.तकरीबन चार साल पहले. दिल्ली गया. सेंटर फार सिविल सोसाइटी (सीसीएस) के दफ्तर में. सीसीएस के पार्थ जे शाह से मिलने. अनूठे इंसान हैं. विचारों के अनुसार जीनेवाले. अमरीका से पढ़े – लिखे. पर अपने सिद्धांत और आस्था के अनुसार काम करना चुना.

भारत में. उनकी संस्था ने ही पहली बार दिल्ली गवर्नेस रिपोर्ट प्रकाशित की. अपने ढंग की यह पहली और नयी कोशिश थी. सरकारी कार्यप्रणाली पर तथ्यपरक अध्ययन. इस रिपोर्ट से प्रमाणित हुआ, दिल्ली में एक रिक्शा चालक को लाइसेंस लेने में कितने चरणों से गुजरना पड़ता है? मोटेतौर पर कहें तो, इस रिपोर्ट का निष्कर्ष था, उदारीकरण या बदलाव गरीबों और कमजोर वर्ग से जुड़े सवालों – कानूनों में पहले होना चाहिए. एक साइकिल या एक रिक्शा के लाइसेंस के लिए बीस जगहों से, बीस सरकारी टेबुलों से क्यों गुजरना पड़े?

इस रिपोर्ट के मिजाज, तथ्य और दृष्टि ने लुभाया. पार्थ के यहां ही पहली बार ‘सिविल सोसाइटी ’ पत्रिका (पब्लिशर, उमेश आनंद, संपादक, रीता आनंद, पता-ई2144, पालम विहार, गु़ड़गांव, हरियाणा – 122017) देखी. बड़े आकार की. खूबसूरत छपाई, आकर्षक डिजाइन. जीवन से जुड़े विषय. फिर दिल्ली के खान मार्केट से इस पत्रिका का नियमित ग्राहक बना.

लगभग वर्ष भर बाद, इसके प्रकाशक उमेश आनंद से मुलाकात हुई. आरटीआई पर दिल्ली विश्वविद्यालय में कार्यक्रम था. हम एक सत्र में साथ-साथ वक्ता थे. उमेशजी से मिलने के बाद, जाना. साफ सोच, कमिटमेंट और अंदर की बेचैनी से एक इंसान कैसे नया और अलग काम कर सकता है? अपनी शर्तों पर जी और चल सकता है? उमेशजी, देश के बड़े अखबार घरानों में रहे. बिजनेस स्टैंडर्ड, फाइनेंसियल एक्सप्रेस, टेलिग्राफ, दो-दो बार टाइम्स आफ इंडिया में. दिल्ली टाइम्स आफ इंडिया में दोबारा सिटी एडिटर के रूप में. उनके साथी बताते हैं कि तीन साल में ही कलेवर और कंटेंट बदल दिया.

न्यूज स्टोरी में जान डाल दी. हवा पर रिपोर्टिंग शुरू हुई. यह सांस लेने के काबिल है कि नहीं (एयर पॉल्यूशन). बिजली प्राइवेटाइजेशन पर रिपोर्टिंग हुई. कोक-पेप्सी पर अनेक स्टोरीज (पत्रकारिता भाषा में न्यूज को भी स्टोरी कहते हैं) ब्रेक किया. उन्हीं दिनों उमेशजी और रीताजी के मन में कुछ नया करने का आइडिया आया. सार्थक और सोद्देश्य पत्रकारिता. एक-दो साल ब्रेक लेकर हार्वर्ड पढ़ने जाना चाहते थे. पर लगा कि पत्रकारिता में नया और हस्तक्षेप का वक्त यही है. उमेशजी और रीताजी ने नाम ढूंढ़ा. अपनी पत्रकारिता के मिशन और उद्देश्य के अनुरूप ‘सिविल सोसाइटी’ . मिशन था, अखबार छोटा हो, यह अहम मुद्दा नहीं है. पाठक कम हों, यह भी बड़ा प्रश्न नहीं है? मूल बात है कि प्रभावी पत्रकारिता होनी चाहिए.

पत्रकारिता का एक यथार्थ यह है कि नये प्रकाशन या अस्थापित संस्थानों में प्रतिभाएं नहीं आतीं. वहां जोखिम है. यह मिथ भी उमेशजी और रीताजी तोड़ना चाहते थे. दोनों का मानना था कि पत्रकारिता में मुद्दे और सवाल महत्वपूर्ण हैं. प्रसार नहीं. उमेशजी की यह बात आज दुनिया के जानेमाने मीडिया विशेषज्ञ भी कहने लगे हैं कि अखबारों का इंपैक्ट (असर) निर्णायक है. आप लाखों-करोड़ों में बिकें और आप बेअसर हों, तो यह पत्रकारिता नहीं, धंधा है. उसी तरह जैसे आप सैकड़ों वर्ष जीये, पर कुछ पल भी ऐसे सार्थक न हों जो, असरदार और प्रभावकारी हो, तो उस लंबी उम्र का क्या अर्थ?

समाज, देश और इंसान के लिए लंबी और निर्थक जिंदगी? या छोटी पर प्रभावकारी जिंदगी? इसकी तलाश में उमेशजी और रीताजी ने नयी यात्रा शुरू की. यात्रा क्या, अनिश्चित भविष्य में छलांग! चुनौतियों और कठिनाइयों की लहरों में डूबते-उतराते हुए. न कोई पूंजी थी. न कोई फाइनेंसर था. न पार्टनर था. न कार्यालय था. न बचत थी. न भविष्य की योजना थी. थी तो महज भिन्न पत्रकारिता की चाह. आज इस साधनविहीन पत्रिका के चालीस हजार के आसपास पाठक हैं. वेबसाइट पर इसके लगभग डेढ़ लाख से अधिक रीडर हैं. उमेशजी कहते हैं, यह मिथ तो टूटा ही है कि अच्छी पत्रकारिता के लिए ‘साइज’ और ‘सरकुलेशन’ (व्यापक प्रसार) अनिवार्य नहीं हैं.

पत्रिका का पहला अंक, सितंबर 2003 में निकला. इस पत्रिका के एडवाइजरी बोर्ड में हैं, अनुपम मिश्र, अरूणा राय, नसीर मुंजील, अरूण मैरा, दर्शनशंकर, जगसुरैया, शंकर घोष, उपेंद्र कौल. सब अपने-अपने क्षेत्रों के विशिष्ट, बड़े और जानेमाने नाम. पत्रिका के जन्म के बारे में अनुपमजी की एक टिप्पणी है. मजाक के तौर पर. पर बहुत कुछ कहती है. यह पत्रिका अज्ञात और अनजान जनरल वार्ड में पैदा हुई. कोई तामझाम नहीं. कोई समारोह नहीं. बड़े नाम नहीं थे जो नवजात शिशु (पत्रिका) को लाड़-प्यार करे. आशीर्वाद देने के लिए कोई गुरू भी नहीं था. पर लो प्रोफाइल में रहते हुए पत्रिका ने कई मापदंड बनाये. पहली चीज यह साबित हुई कि पत्रकारिता ‘एडवरटाइजिंग लेड’ (विज्ञापन संचालित) नहीं हो सकती.

यह कहना सही होगा कि ‘पत्रकारिता लेड एडवरटाइजमेंट’ संभव है. हां, चुनौतियां बड़ी हैं. वितरक नहीं मिलेंगे. विज्ञापन नहीं होगा. निवेशक नहीं होंगे. लिखनेवाले कम होंगे. पर यही पत्रकारिता समाज के असल सवाल उठा सकती है. उमेशजी कहते हैं, अच्छा और प्रोफेशनल बिजनेस चलाना भी कला है. हम पत्रिका चलाने के अनुभव से जान पाये हैं. अब मार्केटिंग के प्रोफेशनल कहते हैं, आप मार्केटिंग हमें दे दें. हम विज्ञापन ला देंगे. पांच वर्षों में सिविल सोसाइटी अलग और प्रामाणिक ब्रांड बन चुका है. पर हम यह नहीं करना चाहते. हम अपनी शर्तों पर पत्रकारिता करना चाहते हैं. हमें यह भी अनुभव हुआ कि इस देश के कुछेक कारपारेट सेक्टर इस किस्म की ईमानदार, पारदर्शी पत्रकारिता को हर संभव मदद करते हैं. उमेशजी बताते हैं कि ऐसे साफसुथरे और मूल्यों से चलनेवाले घरानों से ही यह पत्रकारिता हो पायी. वह टाटा घराने का नाम लेते हैं.

बताते हैं, बी मुथुरमण ने कहा, जो अच्छी और स्तरीय पत्रकारिता करना चाहते हैं, करें. हमारी आलोचना के लिए आप स्वतंत्र हैं. इसी तरह माइक्रोसाफ्ट के लोगों ने पत्रिका के कंटेंट (विषय) को देखकर विज्ञापन के लिए संपर्क किया. इन लोगों ने, न कभी कोई सुझाव दिया, न अपनी बातें थोपीं. इसी तरह अन्य लोग भी मिले. उमेशजी कहते हैं कि सिविल सोसाइटी ने यह भी साबित किया है कि पत्रकार खुद मीडिया में छोटा व्यवसाय शुरू कर सकते हैं. साफ सुथरा और उद्देश्यपरक. बढ़ते बाजार और बदलते समाज को अलग-अलग विचार चाहिए. बड़े अखबारों और मीडिया हाउसों की अलग भूमिकाएं हैं. पर बड़े अखबारों और टीवी चैनलों में नकारात्मक होड़ है. सिविल सोसाइटी के पढ़ने वाले हैं, सीइओ, डाक्टर, वकील, कंसलटेंट, न्यायाधीश वगैरह. सरकारी विभागों, कंपनियों, एनजीओ, स्कूलों और कॉलेजों में भी पाठक हैं. अरूणाचल प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक इसके विक्रय केंद्र हैं. पत्रिका के अपने कोर वैल्यूज हैं. मिशन और विजन हैं. हां, इस यात्रा में आर्थिक तंगी और संकट साथ हैं. आज उमेशजी मानते है कि पांच वर्षों बाद चुनौतियां अधिक हैं क्योंकि लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं. संसाधन नहीं हैं.

पत्रिका में देश में अनोखे और अलग काम करनेवाले लोगों के वर्णन मिलते हैं. नये विषयों पर उम्दा सामग्री. हर अंक में कुछ न कुछ ऐसा होता है जो संग्रहणीय, विचारपूर्ण और उद्वेलित करता हो. पांच वर्ष पूरे होने के अवसर पर जो अंक निकला है, उसमें फ्यूचर सिटी (भविष्य के शहरों) पर बेहतरीन और संपूर्ण सामग्री है. एशिया के देशों में हुए बदलावों के अनुभव भी हैं. अराजक और अनियंत्रित होते भारतीय शहरों के दास्तान हैं. क्या विकल्प हो सकता है, इस पर भी सामग्री है. जानेमाने लोगों के विचार. एक तरफ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी सेंटर फार इनवायरमेंट के प्रोफेसर डेविड वैमिस्टर का लेख है, तो दूसरी तरफ अनुपम मिश्र के विचार. दुबई पर सामग्री है, तो दिल्ली पर भी.

शहर में बस्तियों के खाली कराने पर चर्चा है, तो दूसरी ओर शहरी जीवन को बेहतर बनाने में टेक्नोलॉजी की भूमिका व रोल का उल्लेख है. दुनू राय की गंभीर चेतावनी है. शहर के हर पहलू को कामर्शियल करने के संबंध में. रियाज कादिर के लेख में यह उल्लेख है कि यूरोप और अमरीका में अब साइकिल नयी सवारी है. यह साम्यवादी चीन की साइकिल गाथा नहीं, बल्कि विकास के शीर्ष पर पहुंचे देशों का वृतांत है. शहरों से निकलनेवाले कूड़े एक तरफ हमारे यहां जीवन को नारकीय बनाते हैं, तो दूसरी ओर अन्य देशों में कूड़े व्यवसाय का माध्यम हैं. इस तरह हर अंक में उपयोगी सामग्री होती है.

एक दृष्टि देने वाली. कुछ नयी बात बतानेवाली. ज्ञान बढ़ानेवाली. इस अंक में रोचक कथा है, गुडगांव इज बिल्ट आन डंकी पावर (गदहों की ताकत से बना गुड़गांव). पिछले पांच वर्षों में जो बेहतर सामग्री सिविल सोसाइटी ने छापी, उनमें से भी कुछेक लेख ‘बेस्ट आफ सिविल सोसाइटी’ चैप्टर में हैं. हर अंक में इसी तरह की सामग्री, जो समाज को या पाठकों की चेतना को या ज्ञानसंसार को आगे ले जा सके. बिना संसाधन के पत्रिका की यह यात्रा साहसिक,उल्लेखनीय और अनुकरणीय है.

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