अनुज कुमार सिन्हा
वरिष्ठ संपादक
प्रभात खबर
एक माह पहले की बात है. भारत में टी-20 का वर्ल्ड कप हुआ था. उम्मीद थी कि भारत जीतेगा. नहीं जीता. दाे-चार दिनाेें के लिए खिलाड़ियाें की आलाेचना भी लाेगाें ने की. यह भारत की खूबी-खराबी दाेनाें है. टीम अगर जीतती रहे ताे खिलाड़ी हीराे लगते हैं.
हार गयी ताे विलेन हाे जाते हैं. पुतले जलने लगते हैं. हार के बाद लगा था कि लाेगाें के दिमाग से क्रिकेट का बुखार उतरेगा. उतरा भी, लेकिन कुछ दिनाें के लिए. वर्ल्ड कप का फाइनल खत्म हाेने के एक सप्ताह बाद आइपीएल शुरू हाे गया. जिस खिलाड़ी का बल्ला वर्ल्ड कप में नहीं चल रहा था, यहां चलने लगा. एक-एक खिलाड़ी काे, चाहे वह खेले या नहीं खेले, कराेड़ाें रुपये मिलते हैं. इतना पैसा है क्रिकेट में. यहां यह स्पष्ट कर दूं कि हम न ताे क्रिकेट के विराेधी हैं आैर न ही आइपीएल के. लेकिन अब समय आ गया है आकलन करने का.
क्रिकेट एक नशा बन गया है. अपवाद काे छाेड़ दें ताे बच्चे, युवा आैर बुजुर्ग सभी इसके आदी हाे गये हैं. टीवी पर हर समय आपकाे काेई न काेई मैच मिल जायेगा. इसका सेहत पर क्या असर पड़ रहा है, यह बात अभी समझ में नहीं आ रही है. इसे समझना हाेगा. हम यह नहीं कहते कि क्रिकेट मत खेलिए, मत देखिए. लेकिन भविष्य काे बचाना है, ताे देखने की सीमा तय करनी हाेगी. कब देखना है, कितना देखना है. खासकर बच्चाें काे. हर घर में माता-पिता परेशान हैं. स्कूल में शिक्षक.
आइपीएल चल रहा है. बच्चे नहीं मानते. देर रात तक आइपीएल देख रहे हैं. रात 11 या साढ़े ग्यारह बजे तक अगर काेई बच्चा टीवी पर मैच देखे आैर दूसरे दिन उसे सुबह पांच-साढ़े पांच बजे स्कूल जाने के लिए उठना पड़े (अभी गरमी का माैसम है, स्कूल की बसें छह बजे तक आ ही जाती हैं), ताे किसी भी हालत में बच्चाें की नींद पूरी नहीं हाे पाती. बच्चे झल्लाते हैं. चिड़चिड़े हाे रहे हैं. बात नहीं सुनते. किसी तरह अगर स्कूल चले भी गये, ताे वहां आंखें नहीं खुलतीं. शिक्षकाें से पिटाई खानी पड़ती है. हाेमवर्क करने के समय मैच देखते हैं. हर दिन साेने के लिए किसी बच्चे काे सिर्फ पांच घंटा मिले, ताे तबीयत खराब हाेना तय है.
ये बच्चे पढ़ाई में ध्यान क्या लगायेंगे. सिर्फ बच्चे ही क्याें, जो बड़े भी देर रात तक टीवी देख रहे हैं, मैच देख रहे हैं, उनका भी यही हाल हाे रहा है. नाैकरी करनेवाले अगले दिन दफ्तर में नींद लेते पाये जाते हैं.
सिर्फ इस साल की बात करें, ताे अभी चार माह ही खत्म हुए हैं, लेकिन इन चार माह में आपका बच्चा (अगर सिर्फ भारत का हर मैच देखता है) कितना मैच देख चुका है, शायद आपने इसकी गणना नहीं की हाेगी. आपका बच्चा अॉस्ट्रेलिया के खिलाफ पांच वनडे मैच देख चुका है. इसी साल भारत टी-20 के 16 मैच खेल चुका है. भारत में ही हाल में टी-20 का वर्ल्ड कप हुआ था. कुल 35 मैच खेले गये थे. ये सभी मैच आपके बच्चे देख चुके हैं.
एक-एक टी-20 मैच में न्यूनतम तीन घंटे भी लगते हैं, ताे जाेड़िये कि आपका बच्चा कितने घंटे मैच देख चुका है. उसकी आंख पर कितना जाेर पड़ चुका है. उसकी गर्दन कितनी देर तक सीधी रही है. मैच राेचक हुआ ताे काेई हिलना नहीं चाहता. अभी आइपीएल चल रहा है. 60 मैच खेले जायेंगे यानी अगर आपका बच्चा आइपीएल के सभी मैच देखता हैै, ताे वह 180 घंटे तक मैच देखेगा. मेडिकल साइंस कहता है कि देर तक बैठ कर लगातार टीवी देखने से आंख पर असर पड़ता है, बैकबाेन पर असर पड़ता है.
इन बच्चाें पर भी पड़ रहा है. पढ़ाई अलग चाैपट, सेहत अलग. डॉक्टर्स बताते हैं कि जाे बीमारी पहले 40 साल के बाद हाेती थी, अब 10-15 साल के बच्चाें काे हाेने लगी है. इसका बड़ा कारण घटिया लाइफस्टाइल है. हर घर में काेई सीरियल देखना चाहता है, ताे काेई मैच. यानी टकराव तय है.
ऐसी बात नहीं है कि वर्ल्ड कप खत्म, आइपीएल खत्म, ताे आनेवाले दिनाें में काेई मैच नहीं हाेगा. यह ताे धंधा है, बिजनेस है. एक टूर्नामेंट खत्म हाेते ही दूसरे की तैयारी. खिलाड़ियाें काे हार-जीत से काेई फर्क नहीं पड़ता. उन्हें पैसा मिलता है. लेकिन, जब अपना देश हारता है, ताे बच्चे निराश हाे जाते हैं. एक-दाे दिनाें तक उसका असर दिखता है.
बेहतर है कि आप अपने पर, अपने बच्चाें पर नियंत्रण रखें, समझायें. हमारे आैर आपके कहने से क्रिकेट मैचाें की संख्या कम हाेनेवाली नहीं है, लेकिन ज्यादा टीवी देखने पर नियंत्रण करना ताे अपने हाथ में ही है. जीवन कीमती है. बच्चाें काे इस बात काे समझाना हाेगा. हर मैच न देखें, कुछ मैच देखें, कुछ देर तक देखें. उतना ही देखें, जितना उनका शरीर झेल सकता है. बीच-बीच में स्काेर देख लें आैर काम चला लें. मैच के आदी न बन जायें. जितनी जल्दी बच्चे ही नहीं अभिभावक भी यह समझ जायें, उतना अच्छा, वरना बाद में पछताने से कुछ नहीं हाेगा.