देश के उत्तर में स्थित कश्मीर, पश्चिम में गुजरात और पूर्व में झारखंड के अनेक क्षेत्रों में बीते कई दिनों से अशांति का माहौल है. उन इलाकों से आ रही सभी खबरों में तोड़फोड़, आगजनी, पथराव, गोलीबारी और कर्फ्यू का जिक्र है. कई लोग मरे हैं, घायलों की संख्या बढ़ रही है, हालात को काबू में करने के लिए अतिरिक्त सुरक्षाकर्मी भेजे जा रहे हैं.
फरवरी में हरियाणा में भारी हिंसा में बड़ी संख्या में लोग मारे गये थे और खरबों रुपयों की संपत्ति खाक हो गयी थी. संगठित तौर पर होनेवाली हिंसा और वर्गीय तनाव हमारे समाज के लिए कोई नयी खबर नहीं है, लेकिन पिछले कुछ महीनों से देश के अलग-अलग हिस्सों में घटित हो रही घटनाएं व्यापक अराजकता और प्रशासनिक असफलता की सूचना दे रही हैं. इस लिहाज से यह स्थिति हमारे राजनीतिक नेतृत्व और कानून व्यवस्था के लिए बहुत चिंताजनक है. लेकिन, इन घटनाओं पर ठोस नियंत्रण की राजनीतिक और प्रशासनिक प्रयासों की कमी भी दिख रही है. संगठित हिंसा की यह निरंतरता इस लिहाज से भी बेचैन करनेवाली है, क्योंकि अलग घटनाओं के पीछे कारण अलग-अलग हैं. कश्मीर में लोगों का सरकार और सुरक्षा बलों के प्रति भरोसे में कमी से उबाल है, तो हरियाणा में जाट और गुजरात में पाटीदार समुदाय सरकारी नौकरियों में आरक्षण के तलबगार हैं.
झारखंड में हिंसा का चरित्र सांप्रदायिक है. ऐसे में यह जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारें सोच-समझ कर समस्या के समाधान की दिशा में अग्रसर हों. हिंसा और हिंसा से होनेवाले नुकसान को रोकने के लिए प्रशासनिक चुस्ती की दरकार है. गुजरात में पिछले वर्ष पाटीदार आंदोलन का भयावह नतीजे सामने आये थे, पर सरकार ने उस प्रकरण से सबक लेने की जहमत नहीं उठायी. इसका नतीजा यह हुआ है कि गुजरात के कई जिले एक दफा फिर तनावग्रस्त हैं. इस बात के संकेत भी हैं कि हरियाणा में जाट असंतोष के बड़े पैमाने पर हिंसा में बदल जाने के कई खुफिया चेतावनियों को सरकार ने नजरअंदाज किया था. गुजरात के बारे में भी ऐसी पूर्व सूचना सरकार के पास थी.
अक्सर देखा गया है कि सरकारी तंत्र की लापरवाही या अपरिपक्वता से स्थिति काबू में आने के बजाय बिगड़ती जाती है.
कश्मीर की स्थिति इसका उदाहरण है. कई मामलों में हिंसा को भड़काने में सरकार से जुड़े लोगों और राजनीतिक दलों की भी भूमिका भी होती है. हिंसा रोकने के लिए अधिक संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती जरूरी है, पर राज्य की ताकत के बूते सामुदायिक असंतोष को कुछ समय के लिए दबाया तो जा सकता है, पर राजनीतिक नेतृत्व की जिम्मेवारी उस असंतोष के स्थायी निवारण की है. यह सही है कि कतिपय समुदायों की हर मांग को तुष्ट करना संभव या उचित नहीं है, पर उनके भरोसे को जीतने की कोशिश से सरकारें पल्ला नहीं झाड़ सकती हैं.
यह भी समझना और स्वीकार करना होगा कि हर मौके पर असंतोष अकारण या निराधार नहीं होता. राजस्थान में गुर्जरों, हरियाणा में जाटों और गुजरात में पाटीदारों की मांग को आर्थिक असुरक्षा के व्यापक वातावरण के संदर्भ में देखा जाना चाहिए और इसके निदान के लिए ठोस पहलें होनी चाहिए. युवाओं की बढ़ती संख्या और रोजगार के अवसरों की कमी इन समुदायों की भी चिंता हैं, परंतु इस दिशा में सुचिंतित प्रयास के बजाय हरियाणा सरकार ने आनन-फानन में जाट आरक्षण का विधेयक पारित कर दिया जिसे केंद्रीय नेतृत्व का समर्थन भी प्राप्त है.
इससे अन्य आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक रूप से अपेक्षाकृत संपन्न समुदायों को भी शह मिलेगी. इस कदम से यही संकेत गया है कि संगठित हिंसा के रास्ते मांगें स्वीकृत करायी जा सकती हैं. कश्मीर की नयी सरकार और केंद्र सरकार को वहां के राजनीतिक संकट के परिप्रेक्ष्य में लोगों मेम भरोसा बहाल करने की कोशिश करनी चाहिए, न कि प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी कर शांति कायम करने का असफल प्रयास करना चाहिए.
झारखंड में धार्मिक उत्सव के दौरान सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, पर इस बार सरकार और प्रशासन ने उनकी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए जरूरी तत्परता नहीं दिखायी. संगठित हिंसा का सहारा लेकर राजनीतिक रोटियां सेंकने की प्रवृत्ति भी हमारे सार्वजनिक जीवन का निंदनीय तत्व है.
इस चिंताजनक परिदृश्य में ऐसे भी उदाहरण हैं जो सराहनीय हैं. बिहार और कर्नाटक में सांप्रदायिक तनाव की अनेक स्थितियों पर प्रशासनिक तत्परता और त्वरित कार्रवाई के कारण समय रहते काबू पाया गया है. हिंसा को रोकने और लोगों को शांत करने की मुख्य जिम्मेवारी सरकार की है. साथ ही, समाज की जिम्मेवारी भी सचेत रहने की है. यह हमें समझना होगा कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. लचर प्रशासनिक तंत्र और अराजक माहौल तबाही का आमंत्रण है.
यदि सरकार और समाज हिंसा को बढ़ावा देनेवाले तत्वों को हाशिये पर रखने में परस्पर सहभागिता का रवैया अख्तियार नहीं करेंगे, तो देश को विकसित बनाने की बात तो दूर, इसे बचा पाना भी संभव नहीं होगा.