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स्त्री संघर्ष का इतिहास व सिनेमा

सुजाता युवा कवि एवं लेखिका विश्व इतिहास में अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने की शुरुआत स्त्री ने मताधिकार की मांग के साथ की. इंग्लैंड और अमेरिका में स्त्री मताधिकार के लिए होनेवाले आंदोलनों के इतिहास से हम बहुत परिचित नहीं हैं. स्कूल की इतिहास की किताबों में अक्सर उसे चंद पंक्तियों में समेट दिया […]

सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
विश्व इतिहास में अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने की शुरुआत स्त्री ने मताधिकार की मांग के साथ की. इंग्लैंड और अमेरिका में स्त्री मताधिकार के लिए होनेवाले आंदोलनों के इतिहास से हम बहुत परिचित नहीं हैं.
स्कूल की इतिहास की किताबों में अक्सर उसे चंद पंक्तियों में समेट दिया जाता है और औरतों के ‘सफरेज’(मताधिकार)आंदोलन का महत्व हमारी पीढ़ियां समझ ही नहीं पातीं. बीसवीं सदी की शुरुआत ने ब्रिटेन में मताधिकार के राजनीतिक हक के लिए आंदोलनकर्ता स्त्रियों, जिन्हें सफरेज मिलिटैंट तक कहा गया, का आक्रोश और प्रतिरोध देखा. शीशे तोड़ने, फोड़ने, पुलिस से पिटने और जेल भरने, भूख हड़ताल से लेकर जॉर्ज पंचम के सामने एक मताधिकार आंदोलनकर्त्री एमिली डेविसन की शहादत की गवाह रही इस सदी की शुरुआत. बड़ी संख्या में आम कामगार औरतें इसमें शामिल थीं.
जब विश्व क्रांतियों की बात होती है, तो औरतों की इस क्रांति को हम किताबों से और बौद्धिकों की स्मृति से भी मिटा हुआ पाते हैं. जबकि इसके लिए हमें ऋणी होना चाहिए उन स्त्रियों का, जिन्होंने अपने पतियों और प्रशासन दोनों से पिटते हुए मताधिकार के लिए आंदोलन जारी रखा. आंदोलन में निराशा के क्षणों में एमिली डेविसन को लगा कि कोई बड़ा झटका ही आंदोलन की तरफ ध्यान खींचेगा और यह उसने अपनी शहादत से किया. हैरानी की बात है कि जब एमिली चार दिन अस्पताल में पड़ी रहीं, तो कई पुरुषों ने भर्त्सना में पत्र लिखे कि उस जैसी स्त्री को तो मर ही जाना चाहिए.
अंतत: 1928 में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर मताधिकार मिल सका. पिछले साल अक्तूबर में आयी फिल्म ‘सफरेजेट’ स्कूल के इतिहास पाठ्यक्रम से गायब इसी महत्वपूर्ण पक्ष पर आधारित है. मेरिल स्ट्रीप, जिन्होंने फिल्म में छोटी-सी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, कहती हैं कि लोग ‘सफरेज’ शब्द का अर्थ तक नहीं जानते. ऐसे में यह फिल्म स्त्री आंदोलन के इतिहास को कला और नाटकीयता के जरिये आम दर्शक तक पहुंचानेवाली महत्वपूर्ण फिल्म है.
‘शी इज ब्यूटीफुल व्हेन शी इज एंग्री’ एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म है, जो स्त्री-मुक्ति आंदोलन (विमेन-लिब), की शुरुआत और प्रक्रिया की छानबीन करती है. अमेरिका में 1960 से 80 का दशक इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि यह ‘उग्र नारीवाद’ का दौर था, जिसमें औरतों ने हर स्तर पर बराबरी के लिए आवाज उठायी.
सिर्फ मताधिकार और विश्वयुद्धों में पुरुषों के व्यस्त हो जाने की वजह से खाली हुई जगहों पर नौकरी करती हुई स्त्री अपने जायज हकों को हासिल नहीं कर पायी थी. सफरेज आंदोलन के बाद 1960 तक का समय स्त्री-मुक्ति आंदोलन के लिए एक लगभग व्यर्थ हुआ समय था. 1960-70 के दशक में औरतों ने अपने शरीर, अपनी यौनिकता और प्रजनन पर अपना हक मांगा. वे अपने दोयम दर्जे से निराश थीं और उग्र हो चुकी थीं. तब के नारीवाद ने स्त्री की समस्या की जड़ पर प्रहार किया. शुलमिथ फायरस्टोन अपनी 1970 की पुस्तक में लिखती हैं कि औरतों और मर्दों के बीच श्रम का विभाजन इतिहास का सबसे पहला और पुराना वर्ग-विभाजन है और इसलिए यह समस्या बहुत गहरी है.
इस आंदोलन में मुख्य भूमिका निभानेवाली स्त्रीवादियों- केट मिलेट, रीटा ब्राउन, फ्रैन बील आदि के साक्षात्कार फिल्म में हैं. खास बात यह है कि इस डॉक्यूमेंटरी फिल्म की शूटिंग, साक्षात्कार, निर्देशन आदि सब कुछ स्त्रियों ने किया है. यह फिल्म समकालीन नारीवादी मुद्दों- अश्वेत नारीवाद, बलात्कार और ‘स्लट वॉक’ जैसे मुद्दों को भी समेटती हुई एक बेहद जरूरी फिल्म है.
बीसवीं सदी के भारतीय समानांतर सिनेमा ने पितृसत्ता के विरुद्ध खड़ी स्त्री के संघर्ष को दिखाया और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा में स्त्री मुद्दों पर आधारित फिल्में आने लगीं. कई महिला-निर्देशक भी जहां परंपरागत तरीके से सिनेमा बना रही हैं, वहीं अपनी अलग उपस्थिति दर्ज करानेवाली स्त्रियां भी मौजूद हैं.
दीपा मेहता, अपर्णा सेन, मीरा नायर जैसी निर्देशकों ने महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की है. हमारे पास वाटर, बैंडिट क्वीन, मेरी कॉम, फायर, क्वीन, डर्टी पिक्चर, हाइवे, लंचबॉक्स जैसी उल्लेखनीय फिल्में हैं.
अब भी भारतीय इतिहास में स्त्री-मुक्ति-आंदोलन के विभिन्न पक्ष सिनेमा का विषय नहीं बन सके हैं. 19वीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलन में सती-प्रथा, बाल-विवाह का विरोध, विधवा-पुनर्विवाह और स्त्री-शिक्षा पर बल दिया गया. आजादी के संघर्ष में स्त्रियों की व्यापक भागीदारी रही. सरला देवी, एनी बेसेंट, सरोजिनी नायडू, भीकाजी कामा, कमला चट्टोपाध्याय, दुर्गाबाई देशमुख, बसंती देवी, अरुणा आसफ अली सरीखे कई सशक्त व्यक्तित्व हैं. शुरुआती दौर में स्त्रियों के सामाजिक-पारिवारिक अधिकारों के साथ मताधिकार को लेकर भी चौदह महिलाओं के एक प्रतिनिधिमंल ने मॉन्टेग्यू-चेम्स्फोर्ड समिति के सामने एक प्रस्ताव रखा था.
अखिल भारतीय महिला कांग्रेस, इंडियन वीमेन एसोसिएशन, नेशनल काउंसिल ऑफ वीमेन ने स्त्रियों के मताधिकार की मांग को लेकर लंदन जाकर संयुक्त समिति के सामने अपनी बात रखी. लेकिन हमारे यहां भारतीय-स्त्री-संघर्ष के इतिहास के नाम पर निष्ठा जैन के वृत्तचित्र के बाद एक ‘गुलाबी गैंग’ जैसी फिल्म है.
श्वेत स्त्रियों के आंदोलन के इतिहास में बहुत सी भिन्न स्त्री अस्मिताएं भी हैं, जो दर्ज नहीं हो सकीं. एशियाई प्रतिनिधित्व के तौर पर सोफिया दुलीप सिंह, जो एक भारतीय राजकुमारी थीं, इंग्लैंड के सफरेज आंदोलन में बेहद सक्रिय रहीं, लेकिन उन्हें भुला दिया गया. वे फिल्म ‘सफरेज’ में कहीं नहीं हैं.
स्त्री-मुक्ति आंदोलन इतिहास का उपेक्षित पक्ष है. इसलिए इस पक्ष पर फिल्म बनाना जितना मर्दवादी सिनेमा में जगह बनाने का सवाल है, उससे कहीं ज्यादा इतिहास से जूझने का सवाल है. आज स्त्री-केंद्रित फिल्मों के बड़ी संख्या में दर्शक उपलब्ध हैं.
मल्टीप्लेक्स सिनेमा के आने के बाद औरतें अकेले भी फिल्म देखने जाने का साहस करने लगी हैं. तकनीक है, अवसर है, नये विमर्श हैं, नये सवाल हैं; हमें अब सिनेमा के स्त्रीवादी युग के लिए, प्रतिमान-परिवर्तन के लिए तैयार होना चाहिए.

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