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कहां विकास, हुआ खल्लास!

मनसा, वाचा, कर्मणा. अगर मन, वचन और कर्म में सच्चाई रही होती, तो देश में विकास को अब तक जन आंदोलन बन जाना चाहिए था. दो साल कोई कम नहीं होते. वह भी तब, जब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में घूम-घूम कर विकास को जन आंदोलन बनाने की बात कही थी. ऐसा हो […]

मनसा, वाचा, कर्मणा. अगर मन, वचन और कर्म में सच्चाई रही होती, तो देश में विकास को अब तक जन आंदोलन बन जाना चाहिए था. दो साल कोई कम नहीं होते. वह भी तब, जब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में घूम-घूम कर विकास को जन आंदोलन बनाने की बात कही थी. ऐसा हो गया होता, तो आज देश में सभी बम-बम कर रहे होते. कोई गिला नहीं करता कि स्वास्थ्य सेवाएं खराब हैं, शिक्षा व्यवस्था खोखली है, रोजगार के अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं या किसान की दुर्दशा अंतहीन है. क्योंकि हर कोई जानता है कि दशकों की समस्याएं चंद सालों में नहीं सुलझायी जा सकतीं.
लेकिन, जब दूर-दूर तक कोई सुगबुगाहट न दिखे, विकास के बजाय कभी गोमाता तो कभी भारत माता के नाम पर अवाम को आंदोलित किया जा रहा हो, तब मन में शक उठना लािजमी है कि कहीं विकास का नारा खालिस सब्जबाग तो नहीं था! इधर पनामा पेपर्स में आये 500 से ज्यादा भारतीयों के अवैध विदेशी फर्मों के नाम से सनसनी मची है. प्रधानमंत्री ने 15 दिन में रिपोर्ट मांगी है. वित्त मंत्री अरुण जेटली कहते हैं कि अवैध खाते वालों की रातों की नींद हराम कर दी जायेगी. लेकिन, सार्वजनिक जीवन में असली बात जनधारणा की होती है. इस लीक में तीन खास नाम हैं अमिताभ बच्चन, लोकेश शर्मा और सत्ता का करीबी अडानी समूह, जिसकी कंपनी अडानी एयरो डिफेंस सिस्टम्स इटली की उस कंपनी इलेक्ट्रॉनिका की मुख्य भारतीय पार्टनर है, जिसने भारत में कथित तौर पर कमीशन खिलाया है.
बेहतर होता कि सरकार तत्काल कदम उठाते हुए अमिताभ बच्चन को अतुल्य भारत के ब्रांड एंबेसडर की जिम्मेदारी से मुक्त कर देती. जेटली साहब उस खेल व्यापारी लोकेश शर्मा के खिलाफ सख्त कदम उठाते, जिसने 2000 में उनके डीडीसीए का अध्यक्ष रहते कॉरपोरेट बॉक्स बेचे थे. साथ ही गौतम अडानी से कह कर इटली की इलेक्ट्रॉनिका से रिश्ते खत्म करा दिये जाते.
सवाल यह भी उठता है कि जिस काले कारनामे की पोल दुनिया के चंद अखबारों ने मिल कर कुछ महीनों में खोल दी, उसे सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश की सरकार दो साल के कार्यकाल में क्यों नहीं खोल पायी, वह भी तब जब उसके सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री ने इस दौरान 40 विदेश यात्राएं की हों. इस दौरान हमारे प्रधानमंत्री जिन 34 देशों में गये हैं, उनके साथ हमने अगर टैक्स चोरी की सूचनाओं की अदलाबदली से जुड़े ऑटोमेटिक एक्सचेंज ऑफ इन्फॉर्मेशन (एइओआइ) के कॉमन रिपोर्टिंग स्टैंडर्ड पर करार कर लिया होता, तो पनामा पेपर्स के लीक की जरूरत नहीं पड़ती. दुनिया में ब्रिटेन, जर्मनी व फ्रांस समेत 96 देशों में एइओआइ पर सहमति बन चुकी है. भारत अभी नहीं, अगले वित्त वर्ष 2017-18 में जी-20 देशों के साथ एइओआइ सहमति पर दस्तखत करने जा रहा है. तब तक बस रातों की नींद हराम करने की बातें होती रहेंगी.
विकास के पक्ष में सरकार का सबसे बड़ा दावा है कि उसके राज में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) तूफानी गति से बढ़ा है. प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में कहा कि दिसंबर 2015 की तिमाही में शुद्ध एफडीआइ ने नया रिकॉर्ड बना दिया है. कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में एफडीआइ 316 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि सॉफ्टवेयर व हार्डवेयर में लगभग चार गुना हो गया है. लेकिन, विदेशी निवेश आये और देश में रोजगार न पैदा करे, तो इसका मतलब यही है कि उसने केवल हमारी नीतियों का फायदा उठा कर मुनाफा कमाने का स्वार्थ भर सिद्ध किया है. सरकार के लेबर ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, सितंबर 2015 की तिमाही में 1.34 लाख रोजगार पैदा हुए हैं, जो 2009 के बाद के पिछले छह सालों में किसी भी तिमाही का न्यूनतम स्तर है. यह आंकड़ा इसलिए भी कलेजा चाक कर देता है, क्योंकि हर तिमाही भारत में 30 लाख नये लोग रोजगार की लाइन में जुड़ जा रहे हैं.
सरकार महीनों से फेंट रही है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर दी जायेगी. ऐसा हो गया तो देश के 26.3 करोड़ किसानों के चेहरे खुशी से लहलहा उठेंगे. सिंचाई, पौधरोपण, बागवानी, मछली, मुर्गी, सूअर पालन और अच्छी मार्केटिंग से ऐसा हो सकता है. लेकिन कैसे? देश के अलग-अलग भागों में किसान अपनी आय बढ़ाने के ऐसे तमाम मौकों का दोहन करते रहे हैं. अगर छह साल में किसानों की आय दोगुनी करनी है, तो उसे 12.25 प्रतिशत की सालाना चक्रवृद्धि दर से बढ़ना होगा, वह भी मुद्रास्फीति के असर को घटाने के बाद. पांच प्रतिशत मुद्रास्फीति को जोड़ दें, तो यह दर 17.25 प्रतिशत होनी पड़ेगी. किसानों के पास उनकी फसल ही कमाई का असली साधन है और पिछले दो सालों में मुख्य फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार ने बमुश्किल 10-12 प्रतिशत बढ़ाया है. इसलिए किसानों की आय का दोगुना होना कतई संभव नहीं लगता. जानेमाने कृषि विशेषज्ञ एमएस स्वामीनाथन का कहना है, ‘कृषि का अर्थशास्त्र सार्वजनिक नीति से तय होता है, केवल टेक्नोलॉजी से नहीं. आपको ऐसी मूल्य निर्धारण नीति बनानी होगी, जो किसानों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित करे.’
सरकार यह भी कहती है कि कृषि फसल बीमा योजना लाकर उसने किसानों को आकस्मिकता के कोप से बचा लिया है. फसल बीमा के प्रीमियम का बड़ा हिस्सा केंद्र व राज्य सरकार की तरफ से दिया जायेगा. इस साल बजट में फसल बीमा योजना के लिए 5,500 करोड़ रुपये रखे गये हैं. लेकिन चौंकानेवाली बात यह है कि खुद सरकार ने चार प्रमुख सरकारी कंपनियों- नेशनल इंश्योरेंस, न्यू इंडिया एश्योरेंस, ओरिएंटल इश्योरेंस और यूनाइटेड इंडिया इश्योरेंस को इस बीमा से बाहर रख दिया है. उन्होंने अपने विशद अनुभव का हवाला दिया, लेकिन उनकी एक न सुनी गयी. यह काम 11 बीमा कंपनियों को दिया गया है, जिनमें से दस निजी कंपनियां हैं और बाकी एक सरकार की एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी (एआइसी) है. बात बड़ी साफ है कि किसानों को बीमा का दावा मिले या न मिले, निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियों को 5,500 करोड़ रुपये के प्रीमियम का बड़ा हिस्सा मिलना तय है. बाकियों के लिए जीडीपी का आंकड़ा है और एफडीआइ का शोर है. इसमें कोई खोट नजर आये, तो दागी नेताओं की तरह तीन बार बोलिए- भारत माता की जय!
अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काम
anil.raghu@gmail.com

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