कविता विकास
स्वतंत्र लेखिका
रंग खिले, रंग मिले, रंग बरसे, रंग हरसे, रंग सरसे. यूं तो हमारे यहां आधी दर्जन ऋतुएं बारी-बारी से आतीं हैं और विविध रंगों के माध्यम से अपना सौंदर्य लूटाती हैं. फिर भी वसंत और फागुन में सबसे ज्यादा रंगों के आकर्षण हैं. प्रकृति के उपादानों से रचा मानव शरीर भी अपने मन में इंद्रधनुषी रंगों का समावेश किये हुए है. रंग है तो आनंद है, आनंद है, उमंग है और यही उमंग ब्रह्म से एकाकार कर जीने की परिभाषा गढ़ता है.
मन ब्रह्मांड है. अवनि-अंबर का समावेश जिसके विविध रंग हमारे मन पर अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव डालते रहते हैं. आधारभूत रंगों के साथ मिश्रित रंग तथा श्वेत-श्याम विविधता की संरचना करते हैं.
गुस्से में लाल-पीला होना, शर्म से लाल हो जाना, गुलाबी स्वास्थ्य, मन का हरा-भरा होना आदि मुहावरे यूं ही नहीं लिखे गये होंगे. मन को आह्लादित करने के लिए किसी बाग-बगीचे में जाने की जरूरत नहीं, यह तो आस-पास के पलाश, सेमल, अमलतास और गुलमोहर को देख कर ही बाग-बाग हो जाता है. उद्यानों में लगे मौसमी पौधे बच्चों सा दुलार चाहते हैं, पर ये बृहद गाछ खुद झरते-खिलते रहते हैं, मानो यह बतलाना चाहते हों कि हम तो धरती के संरक्षक हैं. पलाश वन में घूमनेवाला कह सकता है कि पलाश महज एक फूल नहीं, एक एहसास है. ताल-तलैया के तीर पर दानी अमलतास इस धरती का आंचल हल्दिया देता है. महुआ अपनी पीत मुस्कान में वायवी उड़ानों संग मधुर-मदिर-शोखी छलकाता गिरता रहता है. गुलमोहर प्रेयसी-प्रियतम के रूप-सौंदर्य में उपमान बन कर शृंगरित होता है.
सेमल, निपत्र और निर्गंध, नर्म रूई जैसी नर्म कल्पनाओं का प्रतीक है. श्वेत छाल में लिपटे तने पर रक्तवर्ण सेमल की सुंदरता अद्वितीय है. शाल्मली के श्वेत रूप में धवल शीतलता को आत्मसात करने के लिए उनके धूसर छाल के भीतर की गूढ़ लाल त्वचा अपने नयनरम्य आविष्कार का स्वयं बखान करती हैं. अजब-गजब है यह नैसर्गिक रूप-लावण्य.
आकाश को चूमनेवाले ये गाछ-वृक्ष आदिकाल से कवियों के हृदय को मोहित कर अमर सृजन के लिए बाध्य करते रहे हैं. मन के महाकाश में उनके रूप का दस्तावेज ताउम्र सुरक्षित हो जाता है, जो मन तरंगों में सिंदूरी रंग घोल कर प्यार की अंगीठी में सतत जलाता रहता है.
भावनाएं महक उठतीं हैं और शब्द लहलहा उठते हैं कोरे कागज पर. रंगों का नकाब लगा कर मानव अपनी संवेदनाओं को उन तक पहुंचा सकता है, जहां वह सीधे नहीं पहुंच पाता. वह पलाश के फूलों से रंग निचोड़ कर लगा देता है उन गालों में, जहां पहुंचने का बहाना वह साल भर से ढूंढ़ता रहा था. आ जाती है होली रंगों के साथ.
हो जाते हैं सब सराबोर रंग के विस्तृत पैमाने में. मन की होली, तन की होली. फाग रंग, फाग गंध. रंग शाश्वत हैं. प्रेम के और अमरत्व के रंग. श्वेत-श्याम रंग अपनी सार्थक अभिव्यक्ति के बाद भी खुशियों के प्रतीक नहीं हैं. जहां खुशियां हैं, वहां रंग हैं.रंग हंसते हैं, रुलाते हैं, गुनगुनाते हैं. जीवन में पीछे छूट चुकों को वापस बुलाते हैं.
मधुऋतु में निर्वसन हुए तरुवर पर जो नयनाभिराम रंग छटकते हैं, उनकी रुमानियत पोर-पोर को इसलिए स्फुरित करती है, क्योंकि पतझड़ अपनी सूखी, भूरी-पीली पत्तियों के कठोर रूखेपन से मन को वीरान कर चुका होता है. दुख की क्षणभंगुरता को प्रकृति के अलावा और कौन दार्शनिक बता सकता है? इसलिए जीवन से अगर रंग भाग रहा है तो पकड़ लें. प्रियतम के रंग में तो रंगी ये कायनात सारी है, उसमें डूब जाने की कला सीख लें. होली की शुभकामनाएं!