बंदे ने जब होश संभाला, तो खुद को खाकी निक्कर और नीली कमीज स्कूल की ड्रेस में देखा. स्कूल के अलावा भी निक्कर ही पहनी. निक्कर पहन कर मां सोने नहीं देती थी. गंदी बात. पैजामा पहनो. लेकिन यदा-कदा बड़ों को खाकी निक्कर के साथ सफेद कमीज पहने देखा, तो हैरानी हुई. इत्ते बड़े आदमी. बच्चों की तरह खुली-खुली निक्कर! महिलाएं तो शर्मा ही जातीं. मां ने पिताजी को सख्त हिदायत दे रखी थी कि खबरदार कोई निक्कर पहन कर घर में घुसा तो!
वक्त गुजरा. बंदा दसवें में पहुंच गया. टांगों पर बड़े-बड़े बाल उग आये थे. भद्दा लगता था. पैंट वाले बड़े सहपाठी गंदी निगाहों से देखते थे. टीचरों ने डांटना शुरू कर दिया. निक्कर छोड़ कर पैंट में आ गया बंदा. बहुत सहज लगा.
जवान हुए. नयी कॉलोनी में बस गये. यहां बड़े लोग, बड़ी कोठियां और बड़ी बातें. सुबह मॉर्निंग वॉक पर लोग निक्कर पहने दिखते. एक हाथ में डेढ़-दो फुटा चमचमाता लकड़ी का रूल. अंगरेज बहादुर और लाट साहबों की याद ताजा होती. दूसरे हाथ में जंजीर से बंधा कुत्ता. शुरू-शुरू में बंदा समझा कि कुत्ता टहलाने का ड्रेस कोड है शायद. लेकिन यह सब तो नकली निक्करधारी थे. असली निक्करधारी तो वही खाकी वाले थे. पुराने समय की खुली और कलफदार निक्कर की रवायत को जिंदा रखे हुए थे. कॉलोनी का एक पार्क उनका ठिकाना रहा.
हां, तो बात निक्कर की हो रही थी. 21वीं शताब्दी आते-आते निक्कर खास-ओ-आम हो गयी. अमीर हो या गरीब, कर्म का लिहाज किये बिना निक्कर पहने दिखने लगा. हर तरफ निक्कर ही निक्कर. कुकुर टहलाने जाओ तो निक्कर. सब्जी-भाजी लेने जाओ तो निक्कर. मरघटे जाओ तो निक्कर. बदन से चिपकी-चिपकी डिजाइनर निक्करों से बाजार पट गया. पैंट से भी महंगी निक्कर. छह जेब वाली निक्कर. नव-निक्करधारियों की नयी जमात. पुरानी डिजाइन की निक्कर को तो ग्रहण ही लग गया.
हद हो गयी जब अमीरजादे निक्कर पहने कार चलाने लगे. बगल में पैमेरियन कुत्ता भी. सुबह-सुबह दूध-ब्रेड और जलेबी लेने जाते हैं. लेट-नाइट विद फैमिली आइसक्रीम भी खाते हैं. निक्कर ने इंसल्ट कर दी आइसक्रीम की और छह लखिया कार की भी. डॉक्टर से चेकअप के लिए भी निक्कर में चल देते हैं.
देखना कल को दूल्हा भी निक्कर में घोड़ी चढ़ेगा और उधर दुल्हन भी शॉर्ट्स में जयमाल लिये स्वागत करेगी. जब इतना होगा, तो दफ्तर भला कहां छूटेंगे. शुक्र है भद्र पुरुषों के खेल क्रिकेट में निक्कर की बीमारी नहीं है. मगर कब तक बचेगा यह. कई खिलाड़ी मैन ऑफ मैच का अवाॅर्ड निक्कर में लेते हैं. पता नहीं कौन से पौरुषत्व का प्रतीक है यह नंगी निक्कर? बंदा बिलबिला उठता है. संस्कृति कहां जा रही है.
लेकिन अब अच्छी खबर आयी है. असली निक्करधारी अब पैंट पहनेंगे. बंदे को किंचित अफसोस भी हुआ. किसी इतिहास को अस्त होते देखना वाकई बहुत तकलीफदेह होता है और दुर्लभ भी. लेकिन खुशी ज्यादा है. ब्रिटिश साम्राज्य की याद दिलाती एक खराब संस्कृति के एक अंश का अंत हुआ. बधाई हो! लेकिन अच्छा होता, अगर निक्कर के बदले धोती या पायजामा होता. चलो जो हुआ, अच्छा हुआ. कम-से-कम निक्कर की बिदाई का सिलसिला तो शुरू हुआ! देखना, एक दिन संस्कृति के ये स्वयंभू नव-रखवाले नव-निक्कर को कहीं देश से ही न निकाल देंगे! नव-निक्करधारियों सावधान!
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
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