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किस्सा क्या होता है?

प्रभात रंजन कथाकार किस्सा क्या होता है? मेरी बेटी के इस सवाल ने मुझे परेशान कर दिया. मैं अपने किस्सों की दुनिया में चला गया. बचपन के दिनों में, जब गांव में रहता था. दादी के किस्से होते थे, दादा के किस्से. हम जैसे उन किस्सों के जादू में रहते थे, दिन भर इंतजार करते […]

प्रभात रंजन
कथाकार
किस्सा क्या होता है? मेरी बेटी के इस सवाल ने मुझे परेशान कर दिया. मैं अपने किस्सों की दुनिया में चला गया. बचपन के दिनों में, जब गांव में रहता था. दादी के किस्से होते थे, दादा के किस्से. हम जैसे उन किस्सों के जादू में रहते थे, दिन भर इंतजार करते थे कि कब रात आये, कब किस्से सुनने को मिलें. अब सोचता हूं, तो लगता है कि क्यों दादी के किस्सों में दुख होता था, दर्द होता था.
उन राजकुमारियों का दर्द, जिनको विवाह के लिए राजकुमार नहीं मिलते थे, या जिनको सौतेली मां सताती थी, परेशान करती थी. मैं सीतामढ़ी का रहनेवाला हूं, जिसको पारंपरिक रूप से सीता की जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है. दादी की कहानियों में अक्सर सीता का दर्द उभर आता था.
एक प्रतापी राजा की पुत्री होने के बावजूद उनको दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं. जीवन में कोई सुख नहीं मिला. दादा के किस्सों में वीरता होती थी, पुरुष का प्रताप होता था. अगर वह कहानी किसी डाकू के बारे में भी होता था, तो उसमें उसकी वीरता की कहानियां होती थीं, वे दानवीर पुरुषों की कहानियां होती थीं, कृपालु राजाओं की कहानियां होती थी, या अपनी पुत्री के विवाह के लिए यज्ञ करवानेवाले राजाओं की. उनमें दुख-दर्द नहीं वीरता होती थी. ये किस्से थे, जो हमने रातों में नींद और सपनों की दुनिया में जाने से ऐन पहले सुने थे.
आज उन किस्सों का सुख याद आता है. सुनने का सुख. लेकिन अपनी बेटी को क्या बताऊं? वह गांव में नहीं, दिल्ली जैसे महानगर में पली है, उसके दादा-दादी तो हैं, लेकिन उनके किस्से उसके लिए नहीं हैं, क्योंकि वह उनके पास नहीं रही. असल में, हमारी जो पीढ़ी आज बड़ी हो रही है, वह किस्साविहीन पीढ़ी है. वह टीवी के माध्यम से, कॉमिक्स के माध्यम से तो पारंपरिक, पौराणिक किस्सों से जुड़ी हुई है, मगर सुन कर थाती के रूप में किस्से पाने का सुख उसको हासिल नहीं हुआ है. उसको किस्से, किस्सागोई की परंपरा के बारे में समझा पाना मुश्किल है.
आज हिंदी में इस बात की चर्चा होती है कि कहानियों में, उपन्यासों में किस्सागोई नहीं है.लिखने का वह पारंपरिक अंदाज गायब होता जा रहा है. साहित्य में समकालीन समाज की जटिलताएं तो आयी हैं, मगर उससे परंपरा का वह रूप गुम होता गया है, जिसको समाज ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित किया था. हमें आधुनिकता, विकास के एवज में उसको गंवा दिया है.
मुझे बड़ी हैरानी होती है, जब मैं ‘दास्तानगोई’ के कार्यक्रम देखता हूं. उर्दू-फारसी के जो किस्से दास्तान के रूप में सुने-सुनाये जाते रहे, उनको अब इलीट समाज के सामने ‘एक्जौटिक’ रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा है. मुझे याद है कि दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र किया है कि वे पेशावर के किस्साख्वानी बाजार में रहते थे, जहां शाम होते ही चौक पर अलग-अलग जगहों के किस्सागो किस्से सुनाने आ जाते थे. उनको सुनने के लिए बड़ी तादाद में लोग जुट जाया करते थे. इसी तरह से हम किस्से सुनते हुए बड़े हुए.
असल में आज की पीढ़ी को किस्सा शब्द को समझा पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि हमारी आंखों के सामने एक पूरी परंपरा लुप्त हो गयी. विस्थापन ने किस्सा सुनने-सुनाने की परंपरा को लील लिया. हम इन्हीं किस्सों के माध्यम से अपने समाज, अपने देशकाल को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की दृष्टि विकसित किया करते थे.
समय बड़ी-बड़ी समझी जानेवाली परंपराओं को हमारी स्मृतियों से भी लोप कर देता है. मेरी बेटी जिस दौर में बड़ी हो रही है, वह किस्साविहीन दौर है. मुश्किल है उसे यह समझा पाना कि किस्सा क्या होता है?

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