चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
अल्बर्ट आइंस्टीन को याद करते हुए ‘टाइम’ मैगजीन में एक चिट्ठी छपी. इसमें लियो मैटर्सडॉफ नाम के सज्जन ने लिखा कि ‘प्रोफेसर आइंस्टीन के अमेरिका आने से लेकर उनकी मृत्यु के साल तक उनके आयकर रिटर्न का ब्यौरा मैं ही तैयार करता था.
एक बार प्रिंस्टन स्थित उनके आवास पर मैं आयकर रिटर्न की तफ्सील तैयार कर रहा था. उनकी पत्नी ने आग्रह किया कि दोपहर का खाना मैं उन दोनों के साथ ही खाऊं. भोजन के वक्त आइंस्टीन मेरी तरफ मुखातिब हुए और अपनी अनूठी हंसी के बीच कहा कि ‘आयकर को समझ पाना दुनिया में सबसे मुश्किल काम है.’ मैंने कहा कि ‘एक चीज उससे भी ज्यादा कठिन है, और वह है आपका सापेक्षता का सिद्धांत’. आइंस्टीन का उत्तर था- ‘अरे नहीं, वह तो आसान है.’ इस पर उनकी पत्नी ने कहा कि ‘हां, सिर्फ आपके लिए.’
नये बजट के बाद कर्मचारी भविष्य निधि पर लगनेवाले टैक्स को लेकर जब हाय-तौबा मची और वित्त मंत्रालय ने कहा कि ‘समझ की कमी’ की वजह से लोग इसे तूल दे रहे हैं, तो आइंस्टीन की जिंदगी का यह प्रकरण अनायास याद आ गया. आयकर ही क्यों, पूरा बजट ही संख्याओं का एक विराट बुझौवल होता है.
जैसे आंइंस्टीन की पत्नी को लगा कि सापेक्षता के सिद्धांत को समझना सिर्फ आइंस्टीन के लिए आसान है, उसी तरह आम जन के नजरिये से कहा जा सकता है कि बजट को सही-सही सिर्फ वित्त मंत्री समझते हैं या उनके सलाहकार.
बहरहाल, वाहवाही लूटने के ख्याल से ही सही, इस बार सरकार ने बजट नाम के विराट बुझौवल को आसान बनाने की खूब कोशिश की. वित्त मंत्रालय ने वेबसाइट पर बाकायदा इलस्ट्रेशन बना कर बताया है कि किसान, मजदूर, उद्यमी, विद्यार्थी, निवेशक और बुजुर्गों के लिए बजट कैसे फायदेमंद है.
मिसाल के लिए एक 62 वर्षीया बुजुर्ग दीपा नाडार का रेखाचित्र उकेरकर बताया गया है कि बजट से उन्हें बहुत फायदे होनेवाले हैं. अनाज के लिए बने ‘प्राइस स्टैब्लाइजेशन फंड’ से वे अब ज्यादा बचत कर सकेंगी. डिजिटल लिट्रेसी मिशन में इनरोल कराने से दीपा डिजिटल रूप से शिक्षित बनेंगी. पीएम जनऔषधि योजना से दीपा को महत्वपूर्ण दवाइयां उचित मूल्यों पर मिलेंगी. नये कानून से उन्हें अपनी बचत के पैसे सुरक्षित तरीके से निवेश करने में मदद मिलेगी. आधार प्लेटफार्म का इस्तेमाल कर सामाजिक सुरक्षा देने से उन्हें सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ मिलेगा. उन्हें अपने होमलोन पर ब्याज दर में 50 हजार रुपये की अतिरिक्त छूट मिलेगी.
लेकिन, बुजुर्गों की रोजमर्रा की सच्चाइयों के बरक्स बजट के ये दावे कुछ ऐसे ही हैं, जैसे कोई टूटे दांतवाले व्यक्ति के आगे भुने हुए चने रख कर मान ले कि उसका पेट भर जायेगा. देश में 60 पार बुजुर्गों की संख्या करीब दस करोड़ है और इनमें से 51 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जीवन जी रहे हैं.
हैल्पेज इंडिया की नयी रिपोर्ट के मुताबिक 60 पार की उम्र के केवल 9 प्रतिशत बुजुर्ग केंद्र सरकार और 18 प्रतिशत बुजुर्ग राज्य सरकार के कर्मचारी के तौर पर पेंशनर हैं. इनमें कुशल श्रमिक की श्रेणी में रखे गये 4 प्रतिशत बुजुर्गों को और जोड़ लें, तो केवल 31 प्रतिशत यानी तकरीबन 3 करोड़ बुजुर्गों के बारे में माना जा सकता है कि उन्हें सीमित अर्थों में ही सही जीवन-यापन के लिए एक आर्थिक सहारा हासिल है. शेष 7 करोड़ बुजुर्गों की जिंदगी दीपा नाडार नाम के सरकारी रेखाचित्र में बने बुजुर्ग से बहुत अलग और कारुणिक है.
एक ऐसे देश में जहां मात्र 6 प्रतिशत ग्रामीण और 29 प्रतिशत शहरी घरों में कंप्यूटर हो, आप कैसे मान सकते हैं कि बुजुर्ग डिजिटल रूप से साक्षर बनने के लिए सरकारी मिशन का हिस्सा बनेंगे? सात साल पहले शुरू हुई जन औषधि योजना में दुकानें अब तक 100 ही खुल पायी हैं. कैसे मान लें कि ऐसे स्टोर की संख्या एकबारगी 3 हजार हो जायेगी और अगर हो भी गयी तो क्या 7 करोड़ बुजुर्ग आबादी की चिकित्सा जरूरतों के लिए यह पर्याप्त होगा?
एक ऐसे देश में जहां 80 प्रतिशत बुजुर्ग सिर्फ धन की कमी के कारण अपने बेटे-बेटियों के हाथों प्रताड़ित महसूस करते हों और 20 प्रतिशत एकदम ही बेआसरा हों, अच्छा होता कि सरकार बुजुर्गों को होमलोन या आधार-कार्ड के हवाई फायदे ना गिना कर वृद्धावस्था के नाम पर केंद्रीय मद से दी जानेवाली 200 रुपये की सहायता राशि में ही कुछ इजाफा कर देती. कम-से-कम इस तोहमत से कुछ तो पीछा छूटता कि 8 प्रतिशत बुजर्ग आबादी पर केंद्र सरकार जीडीपी का 1 प्रतिशत से भी कम (0.032%) खर्च करती है.