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रोहित के प्रति संवेदना का अर्थ

तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा दिल्ली में सर्दियों में लोग पुण्य कमाने के लिए कंबल बांटा करते हैं. सर्दियां आते ही जगह-जगह विज्ञापन निकलते हैं ‘दान के कंबल’ यहां बिकते हैं. ये कंबल सस्ते होते हैं, पतले होते हैं, लेकिन गर्मी चाहे जितनी भी दें, इनका नाम कंबल ही होता है. दान के कंबल बाकी […]

तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
दिल्ली में सर्दियों में लोग पुण्य कमाने के लिए कंबल बांटा करते हैं. सर्दियां आते ही जगह-जगह विज्ञापन निकलते हैं ‘दान के कंबल’ यहां बिकते हैं. ये कंबल सस्ते होते हैं, पतले होते हैं, लेकिन गर्मी चाहे जितनी भी दें, इनका नाम कंबल ही होता है. दान के कंबल बाकी कंबलों से भिन्न कैसे होते हैं? अगर कंबल ‘कंबल’ ही है, तो फिर उन्हें सिर्फ कंबल ही क्यों नहीं कह कर बेचा जाता, ‘दान के कंबल’ क्यों कहा जाता है? इसलिए कहा जाता है, क्योंकि गरीबों व असहायाें को देने के लिए बड़े लोग दान का नाटक तो करना चाहते हैं, लेकिन पैसे कम खर्च करने की नीयत होती है. पुण्य चाहिए, मीडिया में प्रचार चाहिए, लेकिन गंभीरता के बिना खर्च करना चाहते हैं.
राजनीति में दुखी, परेशान एवं असहाय जनता के लिए सहानुभूति का नाटक करना दान के कंबल बांटने जैसा ही होता है. कहीं भी कोई दुख तकलीफ हो जाये, तो मीडिया को खबर करके नेता लोग पहुंच जाते हैं. दो शब्द सहानुभूति के कहते हैं, जिनका दुख से संतत्प लोगों के साथ कोई सरोकार नहीं होता. जनता को होनेवाले दुख के भी अनेक प्रकार होते हैं. जो दुख मीडिया के पहले पन्ने पर छा जाता है, राजनेताओं को सबसे ज्यादा संवेदना उसी दुख के प्रति होती है. जनता को अनेक प्रकार के आघात पहुंचते हैं.
वे सबके सब राजनेताओं की संवेदना के पात्र नहीं बन पाते. सीमा पर दुश्मन का सामना करते हुए हमारे सैनिक शहीद होते हैं, तो उनके परिवार एवं मित्रों को जो दुख होता है, उससे अधिकतर राजनेता अछूते रहते हैं. जब शहीद की पार्थिव देह चिता पर रखी जाती है, तो एकाध मनोहर पर्रिकर जैसे ही वहां दिखते हैं, बाकी नेता अन्यत्र व्यस्त रहते हैं. पठानकोट के शहीद या उससे पहले कर्नल महादिक और कर्नल गुलाटी जैसे शहीदों के अंतिम दर्शन के लिए कौन आया?
दूसरे दुख सांप्रदायिक एवं अराष्ट्रीय हिंसा के होते हैं. इनमें पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में पुलिस चौकी को जलाने, पुलिसवालों पर हमला करने, उन्हें घायल करने और लूटपाट जैसी घटनाएं शामिल हैं. इससे पहले नंदीग्राम हत्याकांड हुआ था. उससे पहले उत्तराखंड निर्माण के संघर्ष में रामपुर तिराहा कांड हुआ था. इस प्रकार के जितने कांड हुए, उनमें राजनीतिक उबाल और पुरस्कार वापसी या हमदर्दी के तूफानी दौरों का वह आयाम नहीं दिखा, जो अचानक हैदराबाद में राेहित वेमुला जैसे एक सक्रिय एवं होनहार नौजवान की आत्महत्या पर दिख रहा है.
रोहित के प्रति सबको सहानुभूति है. वह एक संवेदनशील एवं वैचारिक दृष्टि से प्रतिबद्ध नौजवान था. जब वह चारों ओर से निराश होकर थक टूट गया, अकेला हो गया और उसे लगा कि अब इस अंधेरी सुरंग के बाहर कोई टिमटिमाता दीया नहीं है, तो उसने उदासी के गहराते क्षणों में अपनी जान ले ली. यह बात कोई महत्व नहीं रखती कि वह ऐसे लोगों के गुट में था, जिन्होंने याकूब मेमन की सजा का भी विरोध किया, या जो राजनीतिक दृष्टि से विश्वविद्यालय में एक अतिरेकी सक्रियता दिखा रहे थे. संभवत: इस गुट के लोग यह मानते थे कि वैचारिक स्वतंत्रता की जो सीमाएं उन्हें प्राप्त हैं, वे उन लोगों को नहीं मिलनी चाहिए, जो उनकी बात से सहमत नहीं हैं.
वैसे भी वामपंथी स्वभाव में ही निहित है कि वैचारिक स्वतंत्रता का अर्थ है- केवल उनके समर्थन में कही गयी बातों को प्रकट करने की आजादी. जिन बातों से वे सहमत नहीं या जिन विचारों को वे अस्वीकार्य मानते हैं, उनके लिए स्वतंत्रता का कोई अवकाश नहीं हो सकता. जहां कहीं भी वामपंथी प्रभुत्व रहा, वहां वैचारिक स्वतंत्रता केवल एकतरफा रही. अखबारों में भी जहां-जहां इनका प्रभाव है, वहां-वहां छोटे-छोटे गुलाग और साइबेरिया बन जाते हैं.
रोहित जिस गुट में भी रहा हो, लेकिन सत्य यह है कि दुख और वेदना के अतिशय पीड़ाजनक क्षणों में वह अकेला हो गया. ये तमाम भीड़वाले लोग और पोस्टरों पर रोहित के प्रति संवेदना व्यक्त करनेवाले उस समय कहीं और व्यस्त थे. जब रोहित फांसी लगाने का निर्णय कर रहा था, उस समय भी वह अकेला था. भीड़ और नेता रोहित की अंतिम विदाई के बाद ही आये. इस प्रसंग से यह कटु सत्य पुन: उजागर हुआ कि अपने विचारों के लिए प्रतिबद्ध रोहित जैसा व्यक्ति कितना अकेला हो जाता है. उसके गुट के लोग पोस्टर लगाते हैं, अपने राजनीतिक विरोधियों पर रोहित के कंधे से आक्रमण करते हैं, लेकिन रोहित के जीवित रहने के लिए आवश्यक आत्मीय ऊष्मा एवं सहचारी भाव तब तक अनुपस्थित रहता है, जब तक रोहित कहीं दूर आशा की किरण तलाश रहा होता है.
रोहित के प्रति संवेदना का अर्थ शिक्षा जगत में वह परिवर्तन लाना होना चाहिए, जहां अतिरेकी राजनीतिक वैमनस्य और घृणाका बोलबाला ना हो. आखिरकार रोहित ही क्यों युवावस्था में, जब वे जीवन की देहरी पर आत्मविश्वास के साथ कदम रखनेवाले होते हैं, अपना अंत करने की सोचते हैं? क्या रोहित के उदाहरण से हमें शिक्षा संस्थानों में पनप रही राजनीतिक घृणा और अतिवाद के समाधान की बात नहीं सोचनी चाहिए? क्या शिक्षा संस्थानों का उद्देश्य शिक्षा और सहचारी भाव देने के अलावा भी कुछ हो सकता है? विश्व के जितने भी प्रगतिशील देश हैं उनमें कहीं भी, एक भी विश्वविद्यालय अथवा शिक्षा केंद्र में इस प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों की कल्पना भी नहीं हो सकती, जो हमारे विश्वविद्यालयों में पायी जाती है. विश्वविद्यालय का अर्थ है कि वहां छात्र शिक्षा में नये शिखर छूने के लिए दिन-रात एक करते हैं. न तो प्राध्यापकों को, न ही छात्रों को शिक्षा, शोध और वैश्विक स्तर पर नये प्रतिमानों के अध्ययन के अलावा कुछ सूझता है.
चीन के सिचुआन विश्वविद्यालय में मुझे जब फेलोशिप मिली, तो वहां मुझे एक माह रहने का अवसर प्राप्त हुआ. मैंने छात्रों को वहां के पुस्तकालय में रात के दो-दो बजे तक पढ़ते देखा है. दिन में यदि क्लासरूम में बैठने के कारण समय नहीं मिलता, तो रात के ग्यारह बजे से वे खेल के मैदान में फुटबाॅल का अभ्यास करते हैं. लेकिन, यहां क्या स्थिति है? केवल भारत में ही अनेक राजनीतिक प्राध्यापक बिना छात्रों को पढ़ाये राजनीतिक दंगल में कसरत करते हुए वेतन लेते हैं, छात्र शिक्षा के अलावा बाकी सब गतिविधियों में समय लगाते हैं. फिर हम चाहते हैं कि दुनिया में भारत के विश्वविद्यालय प्रथम सौ की सूची में तो आ ही जायें.
हैदराबाद में जो नेता जाकर अपनी राजनीतिक बयानबाजी कर रहे हैं, क्या उन्हें इस विषय में भी सोचने का वक्त होगा? शायद नहीं. क्योंकि, यह विषय उनकी राजनीतिक आवश्यकता ही नहीं है. भारत के अधिकतर गरीब छात्र बहुत मेहनत करते हुए अपने एवं अपने माता-पिता के नाम को रोशन करते हैं. जो संगठन छात्रों को घृणा की राजनीति में धकेलते हैं, उनको इन छात्रों के जीवन और उनके माता-पिता के सपनों के बारे में भी सोचना चाहिए.

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