रमेश कुमार दुबे
स्वतंत्र टिप्पणीकार
लगातार सस्ता होता कच्चा तेल भले ही तेल आयातक देशों का खजाना भर रहा हो, लेकिन अब इसके कई पर्यावरणीय व आर्थिक दुष्परिणाम निकलने की आशंकाएं हैं. कच्चे तेल की कीमतों के 40 डॉलर प्रति बैरल के मनोवैज्ञानिक स्तर से भी नीचे जाने के बाद अब इसके 20 डॉलर तक गिरने के अनुमान किये जा रहे हैं. पहले कच्चे तेल की कीमतें मांग और आपूर्ति से निर्धारित होती थीं, लेकिन अब इस पर बहुआयामी कारकों का प्रभाव पड़ रहा है.
अमेरिका का तेल आयातक से निर्यातक बनना, चीन की विकास दर में धीमापन, शेल गैस क्रांति, नयी तकनीक, ऊर्जा दक्ष वाहनों का विकास और सबसे बढ़ कर बैटरी तकनीक में लगातार आ रहे सुधार के कारण कच्चे तेल की कीमत तय करने में तेल निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) की अहमियत घटती जा रही है.
1973 में ओपेक द्वारा तेल उत्पादन में कटौती के बाद कच्चे तेल की कीमतें साल भर में तीन डॉलर से बढ़ कर 12 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गयी थीं. इससे अमेरिका, यूरोप व जापान की आर्थिक वृद्धि दर को झटका लगा और ऊर्जा शक्ति की धुरी मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका की ओर झुक गयी. तेल की ऊंची कीमतों ने सऊदी अरब व अन्य खाड़ी देशों को निवेशकों के लिए आकर्षक बना दिया.
इससे इस क्षेत्र में अमेरिकी दखलंदाजी तेजी से बढ़ी. दूसरे शक्तिशाली देश भी खाड़ी देशों में अपनी पैठ बनाने में जुट गये. इससे तेल उत्पादक देशों ने ओपेक को और मजबूत बनाया. लेकिन, विश्व का लगभग आधा तेल उत्पादित करनेवाला ओपेक अब बिखर रहा है. ओपेक का प्रमुख सदस्य सऊदी अरब तेल की कीमतें इसलिए गिरने दे रहा है, ताकि अमेरिका के लिए शेल गैस की खोज व उत्पादन महंगा सौदा हो जाये. सऊदी अरब तेल की कम कीमत के जरिये ईरान को नियंत्रित करना चाहता है. वह लेबनान, सीरिया, यमन में ईरान के बढ़ते प्रभाव को भी रोकना चाहता है.
गोता लगाते कच्चे तेल की कीमतों का एक कारण अमेरिका और रूस के बीच जारी शह और मात का खेल भी है. आज रूस की कुल निर्यात आय का 68 फीसदी हिस्सा तेल-गैस से आ रहा है.
दिवालिया होने की कगार पर पहुंच चुके रूस को महंगे होते कच्चे तेल-गैस ने सुधरने का जो मौका दिया था, अमेरिका उसकी जड़ काटने में जुटा है. दरअसल, यूक्रेन मामले में रूस के हस्तक्षेप से कुपित पश्चिमी देशों ने रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगा रखा है. इससे रूसी अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की गिरती कीमतें रूस को दिवालिया बनाने की ओर धकेल रही हैं. यही कारण है कि रूसी मुद्रा रूबल लगातार कमजोर हो रही है, जिससे विदेशी निवेशक रूस में बिकवाली करके अपनी पूंजी को वापस ले जा रहे हैं.
सस्ते कच्चे तेल के कारण तेल आयातक देशों को अब आयात पर खर्च कम करना पड़ रहा है और यह धन विकास पर खर्च हो रहा है. यूरोप की अर्थव्यवस्था में सुधार आ रहा है. भारत जैसे भारी-भरकम आयातक देशों का राजकोषीय असंतुलन संभलने लगा है.
लेकिन, यदि कच्चे तेल की कीमतें लंबे समय तक न्यूनतम स्तर पर बनी रहती हैं, तो इसके नकारात्मक नतीजे आने शुरू हो जायेंगे. कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से खाड़ी देशों में आर्थिक गतिविधियां मंद पड़ेंगी, जिससे भारतीय कामगारों की आमदनी घटेगी. इसका असर भारत के राजस्व पर भी पड़ेगा. कमोबेश यही स्थिति कई तेल आयातक एशियाई देशों की है.
सस्ते कच्चे तेल की सबसे बड़ी मार पर्यावरण पर पड़नेवाली है. महंगे कच्चे तेल से बचने के लिए नयी तकनीक से ऊर्जा दक्ष वाहनों के निर्माण की जो मुहिम शुरू हुई थी, वह अब थमती नजर आ रही है.
इसका दूसरा परिणाम अपरंपरागत ऊर्जा में निवेश में कमी के रूप में आ रहा है, जो भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है. गौरतलब है कि कच्चे तेल की ऊंची कीमतों के चलते सौर व पवन ऊर्जा में तेजी से निवेश बढ़ा था, जिसका नतीजा इनकी लागत में तेजी से गिरावट के रूप में आ रहा था. इसी तरह सस्ता कच्चा तेल शेल गैस की हवा निकाल रहा है. दुनिया भर की अग्रणी कंपनियां शेल गैस के उत्खनन-विकास से हाथ पीछे खींच रही हैं. उदाहरण के लिए रूसी गैस पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से यूक्रेन ने 10 अरब डॉलर की लागत वाली अपनी शेल गैस विकास की परियोजना रोक दी है.
इसी तरह अमेरिका, ब्रिटेन, चीन भी शेल गैस में निवेश के प्रति अरुचि दिखाने लगे हैं. गोल्डमैन सैस के मुताबिक, एक लाख करोड़ डॉलर की ऊर्जा निवेश पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं. दीर्घकालिक रूप से यह प्रवृत्ति घातक है, क्योंकि इसका नतीजा कच्चे तेल की कीमतों में तेजी के रूप में आ सकता है.