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हिंदी साहित्य से गायब हो गये हैं किसान

प्रभात रंजन कथाकार उत्तर भारत के किसानों के जीवन को लेकर हाल में कौन-सा उपन्यास आया है? जब मेरे एक विद्यार्थी ने यह सवाल किया, तो मैं गहरी सोच में पड़ गया. यह कोई ऐसा आसान सवाल नहीं है, जिसका जवाब आसानी से दिया जा सके. मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य से उत्तर भारत […]

प्रभात रंजन

कथाकार

उत्तर भारत के किसानों के जीवन को लेकर हाल में कौन-सा उपन्यास आया है? जब मेरे एक विद्यार्थी ने यह सवाल किया, तो मैं गहरी सोच में पड़ गया. यह कोई ऐसा आसान सवाल नहीं है, जिसका जवाब आसानी से दिया जा सके. मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य से उत्तर भारत का वह किसान अब गायब हो चुका है, जिसे प्रेमचंद के लेखन ने हिंदी के आधार किरदारों के रूप में स्थापित किया था. या िफर, रेणु जी ने जिसे अपने लेखन में जीवंत बना दिया था.

विडंबना यह है कि जिस दौर में उत्तर भारत के गांवों से सबसे अधिक विस्थापन हो रहा है. जिस दौर में उत्तर भारतीय ग्रामीण-किसानी संस्कृति की मौलिकता के ऊपर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है, उस दौर में साहित्य में उसका विश्वसनीय अंकन नहीं हो रहा है. जबकि, हिंदी के लेखक-आलोचक सबसे अधिक दुहाई आज भी किसानों-मजदूरों के प्रति प्रतिबद्ध होने की ही देते हैं.

एक उपन्यास का नाम ध्यान आया- ‘फांस’. वरिष्ठ लेखक संजीव के इस उपन्यास के केंद्र में विदर्भ के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं हैं.

असल में यह कड़वी सच्चाई है कि हिंदी का लेखक अपने समाज से लगता है कट गया है और शायद यही कारण है कि उसके लेखन के केंद्र में विदर्भ के किसान तो आते हैं, लेकिन उत्तर भारत के वे किसान नहीं आ पाते, जो अपने गांव, अपनी मिट्टी से विस्थापित नहीं हो पाते और वहीं अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के सपनों में जीते हैं. मुझे याद आता है शिवमूर्ति की एक लंबी कहानी कुछ साल पहले ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुई थी- ‘अंधी छलांग’. इस कहानी में पहली बार एक संपन्न किसान को यह अहसास होता है कि पूंजी के दौर में, पैसे के दौर में उसकी खेती-बाड़ीवाली संपन्नता का कोई मतलब नहीं रह गया है.

वास्तव में, इस सवाल के ऊपर मैं दूसरे पहलू से भी सोचना चाहता हूं कि साहित्य में ऐसी छवि क्यों बन गयी है कि गांव माने पिछड़ापन और शहर माने विकास है. जिस देश की बड़ी आबादी आज भी ग्रामीण हो, क्या वहां सिर्फ दुख और बदहाली ही पायी जाती है? क्या हमने कभी इस बदलाव को समझने की कोशिश की है कि किस तरह गांवों के किसान फसल-चक्र को बदल रहे हैं? किस तरह नकदी फसलों की तरफ ध्यान देते हुए वे बिना गांव छोड़े अपने जीवन को बदलने में लगे हुए हैं? यह बदलाव हमें क्यों नहीं नजर आता है?

किसान-मजदूरों की बात करनेवाले लेखकों को किसानों-मजदूरों के जीवन के करीब आना होगा, तब जाकर साहित्य में किसानी जीवन की मुकम्मल तसवीर उभर कर आ पायेगी. जिस तरह कभी फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ में उभर कर आयी थी. यह सच में अपने आप में बड़े दुर्भाग्य की बात है कि जिस हिंदी भाषा का आधार बड़े पैमाने पर किसानी-ग्रामीण संस्कृति है, वह अपने आधार से मुंह मोड़ कर मध्यवर्गीय ढंग के लेखन की सुविधाजीविता में सिमटता जा रहा है. वह मध्यवर्ग में अपने नये पाठक की तलाश में मुब्तिला है.क्या हिंदी के परिदृश्य से किसान हमेशा के लिए विदा हो चुके हैं? उस विद्यार्थी के सवाल के बाद यही सवाल मन गूंज रहा है.

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