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आतंक के खिलाफ

भारत-पाकिस्तान संबंधों में जब भी कोई सकारात्मक मोड़ आने की संभावना नजर आती है, उसे पटरी से उतारने की कोशिशें भी तेज हो जाती हैं. पठानकोट में वायुसेना ठिकाने पर हुए आतंकी हमले को ऐसे ही खतरनाक प्रयासों की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए. दोनों देशों के बीच बातचीत की हालिया पहल […]

भारत-पाकिस्तान संबंधों में जब भी कोई सकारात्मक मोड़ आने की संभावना नजर आती है, उसे पटरी से उतारने की कोशिशें भी तेज हो जाती हैं. पठानकोट में वायुसेना ठिकाने पर हुए आतंकी हमले को ऐसे ही खतरनाक प्रयासों की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए. दोनों देशों के बीच बातचीत की हालिया पहल के साथ ही भारत के विरुद्ध हिंसा और आतंकवाद को शह देनेवाले तत्वों द्वारा अड़ंगा लगाने की आशंकाएं व्यक्त की जाने लगी थीं.
शुरुआती जानकारियों से ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं कि पठानकोट हमले के पीछे मौलाना मसूद अजहर और उसके गिरोह जैशे-मुहम्मद का हाथ है. मसूद अजहर पाकिस्तान से इस आतंकी गुट को संचालित करता है तथा हाफिज सईद और सैयद सलाहुद्दीन जैसे सरगनाओं की तरह उसे भी पाकिस्तानी सेना और कुख्यात इंटेलिजेंस एजेंसी आइएसआइ का भरपूर समर्थन और संरक्षण प्राप्त है.
भारत का स्वाभाविक कूटनीतिक संवाद पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व के साथ हो रहा है, लेकिन यह ऐतिहासिक विडंबना रही है कि पाकिस्तान की रक्षा और विदेश नीति में उसकी सेना और आइएसआइ तथा विभिन्न कट्टरपंथी और आतंकवादी संगठनों का दखल रहता है. अब इसे इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता की कमी माना जाये या सत्ता में बने रहने की कवायद का हिस्सा कहा जाये, पाकिस्तानी सरकारें सत्ता प्रतिष्ठान के अतिवादी घटकों तथा नॉन-स्टेट हिंसक तत्वों पर लगाम लगा पाने में विफल रही हैं. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के शासन में भी ये खतरनाक आतंकी खुलेआम अपनी गतिविधियों को अंजाम देते रहते हैं.
जब अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ता है, तो कार्रवाई के नाम पर प्रतिबंध की खानापूर्ति कर दी जाती है. ऐसी स्थिति में ये सरगना अपने गिरोहों का नाम बदल देते हैं या कुछ दिन के लिए चुप बैठ जाते हैं. भारत की तरह पाकिस्तान भी आतंकवाद का शिकार रहा है, पर दुर्भाग्य से उसकी सत्ता संरचना भारत-विरोधी मानसिकता से ग्रस्त होकर इस सच्चाई से मुंह मोड़े बैठी है. संतोष की बात है कि पठानकोट हमले के बाद दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व ने बातचीत जारी रखने का फैसला किया है. यह आतंकियों के इरादों को बड़ा झटका है.
लेकिन, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि सितंबर, 2013 के बाद यह पांचवां हमला है, जिसमें आतंकियों ने एक जैसी रणनीति अपनायी है. न्यूयॉर्क में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की बैठक से पूर्व जम्मू-कश्मीर में सेना और पुलिस शिविरों पर हमला हुआ था. वर्ष 2014 में 28 मार्च को जम्मू में मोदी की एक सभा के दो दिन बाद हमला किया गया. उसी वर्ष 27 नवंबर को नेपाल में मोदी और शरीफ की बैठक के बाद पाकिस्तानी बंदूकधारियों ने सेना के एक गश्ती दल पर हमला किया था.
पिछले साल 27 जुलाई को पंजाब के गुरदासपुर में और पांच अगस्त को उधमपुर में आतंकियों ने हमला किया था. इन सभी हमलों के तार पाकिस्तान से संचालित गिरोहों से जुड़े पाये गये हैं, जिन्हें आइएसआइ का खुला सहयोग मिलता है. ऐसे हमलों के अलावा घुसपैठ और जासूसी कराने के भी अनेक मामले सामने आये हैं.
अब पाकिस्तानी नेतृत्व को ऐसी नापाक हरकत करनेवाले तत्वों पर कड़ाई से लगाम लगाना होगा तथा आतंकवाद को महज आतंकवाद के रूप में देखना होगा, न कि अपने कुंठित रणनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के जरिये के तौर पर.
निश्चित रूप से यह भारतीय सुरक्षा व्यवस्था के लिए भी बड़ी चुनौती है. उम्मीद है कि सरकार और सुरक्षा एजेंसियां इस घटना के विभिन्न पहलुओं पर गंभीरता से विचार कर रक्षा तंत्र को चाक-चौबंद करने का पूरा प्रयास करेंगी. लेकिन, इसमें हमारे देश की राजनीति की भी बड़ी अहम भूमिका है.
अफसोस की बात है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलों पर भी पार्टियां अपने दलगत दायरों से बाहर नहीं निकल पाती हैं. कल तक सरकार में रहते हुए जो रवैया कांग्रेस का था, अब वही सत्तारूढ़ भाजपा अपना रही है. तब बतौर विपक्ष राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित बयानबाजी भाजपा किया करती थी, अब वही तेवर कांग्रेस पार्टी के हैं.
आतंकवाद कोई सैद्धांतिक या राजनीतिक मसला नहीं है, जिस पर पार्टियों की अलग-अलग राय हो सकती है. आतंक के निशाने पर देश की एकता और अखंडता है. उसके हमले में हमारे नागरिक और सैनिक मारे जा रहे हैं. उनका मुकाबला भी मिलजुल कर करना होगा और दोनों बड़ी पार्टियों को परिपक्वता के साथ अपने उत्तरदायित्व का पालन करना होगा. इसमें हुई कोई भी चूक और गैरजिम्मेवारी देश के लिए खतरनाक हो सकती है तथा उससे आतंकियों की ही हौसलाआफजाई होगी.

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